केपी सिंह
पेट्रोल की कीमतों के शतक पार करने के साथ ही एक इतिहास रच गया है। भारत में बुलेट ट्रेन के इस जमाने में मंहगाई भी बुलट रफ्तार से लोगों की जिन्दगी कुचलने के लिये दौड़ पडी है। यह कुछ ही महीनों में पेट्रो पदार्थो की कीमतों में भारी उछाल में निहित झलक है।
इस बीच किसान अपनी अस्तित्व चिन्ता में व्याकुलता की चरम सीमा तक जा पहुंचे है, जिसकी छाप उनके अनंतकालीन हो रहे धरने में दिखाई दे रही है। नये कृषि कानूनों को अपने ऊपर सबसे बडी मार के रूप में संज्ञान लेकर वे इन्हें वापिस कराने के मुददे पर जीने मरने की लडाई लडने के लिये कूद पडे है।
जबकि इस युद्धघोष के शोर में डीजल की दरों में हुयी बडी बढोत्तरी से खेती के भविष्य पर जो प्रश्नचिन्ह लगा है उसे लेकर किसान सचेत नहीं हो पा रहा है। खेती की लागत लगातार बढाकर भी सरकार किसानों की आमदनी दुगुनी करने का जो दावा ठोक रही है उससे बडी लफ्फाजी दूसरी कोई नहीं हो सकती है।
यह दूसरी बात है कि अन्धभक्त तो मौजूदा सरकार के लिये 500 रूपये लीटर में भी पेट्रोल खरीदने को तैयार है। उनके जज्बे को सलाम पर अपनी नीतियों के चलते मंहगाई के इस विराट अवतार को देखकर सरकार खुद सहम गयी है।
केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पेट्रोल की कीमत के प्रति लीटर सैकडा पार करते ही लोगो के आक्रोश के सम्भावित विस्फोट को थामने के लिये डीजल पेट्रोल को कुछ शर्तो के साथ जीएसटी के दायरे में लाने की पेशकश कर डाली थी। लेकिन भक्ति की खुमारी में संज्ञाशून्यता के शिकार हो चुके लोगो को जब उन्होने इस मूल्य वृद्धि पर कोई प्रतिरोध करते नहीं पाया तो अब वे खामोश हो चले है।
कमाल की बात यह है कि इस वर्ष के बजट में रक्षा सेक्टर में कमोबेश कोई बढोत्तरी नहीं की गयी है फिर भी अन्धभक्त कह रहे है कि चीन सिर पर खडा है ऐसे में हमें कुछ भी मंजूर है क्योंकि सरकार को हौंसला देने के लिये यह जरूरी है। यह बेतुका भक्तिभाव लोकतंत्र के सारे गुणों को नष्ट करने वाला है। लोकतंत्र में सरकार की नीतियों के बरक्स वैकल्पिक नीतियों का खाका सामने आते रहना चाहिये।
इस गुजाइश के रहने से व्यवस्था के सामने आने वाली चुनौतियों से पार पाने की सूझ तैयार होती है। मोदी एण्ड कम्पनी जब विपक्ष में थी तो इसी के तहत उसके पास डीजल और पेट्रोल की मंहगाई रोकने के लिये वैकल्पिक सुझावों की कमी नजर नहीं आती थी।
इस कम्पनी के एक कमाण्डर बाबा रामदेव बता रहे थे कि पेट्रो पदार्थो पर जो बेजा टैक्स थोपा गया है अगर उसे सन्तुलित कर दिया जाये तो इनकी दरे कितनी कम हो सकती है। यह जायज बात थी जो आज भी प्रासंगिक है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की जितनी कीमत है उसको देखते हुये डीजल, पेट्रोल की कीमते देश में बहुत ज्यादा है। यहां तक कि कई गरीब और फिसड्डी पडोसी मुल्कों से भी ज्यादा।
सरकार की टैक्स नीतियां जन विरोधी है। अगर देश में आर्थिक संकट भी है तो भी सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह आम आदमी पर ही उसकी औकात से ज्यादा बोझ डालती रहे। ऐसा प्रयास तो औपनिवेशिक शोषण और दमनचक्र की याद दिलाता है। प्रत्यक्ष कर की परिभाषा नये सिरे से तय की जानी चाहिये।
सबसे बडा प्रत्यक्ष कर पेट्रोल डीजल के माध्यम से वसूला जाने वाला टैक्स है जिसमें आयकर की तरह दाव देने के लिये कोई आड नहीं है। इसके दायरे में बहुतायत आम जनता आती है क्योकि यह उनके बुनियादी स्तेमाल से जुड गया है। आज आम आदमी का गुजारा कम से कम बिना बाइक रखे होना मुमकिन नहीं है।
कई लोगों के लिये तो डीजल पेट्रोल रोजगार है जो लोडर की तरह बाइक को स्तेमाल करते है। वे बाइक से माल की सप्लाई गांवों में देकर जो बचत कर लेते है वही उनकी आमदनी है। पेट्रोल की कीमते बढने से उनकी यह बचत खत्म हो जायेगी। ऐसे मेहनतकश तबके के रोजगार पर प्रहार करने के पहले सरकर को सौ बार सोचना चाहिये।
सत्ता में आने के पहले मोदी एण्ड कम्पनी बताती थी कि विदेशों में इतना काला धन जमा है कि अगर उसे वापस लाकर जब्त किया जा सके तो हर आदमी के खाते में 15 लाख रूपये कैश भेजने की व्यवस्था की जा सकती है पर अब जबकि स्विस बैंक ने भारतीयो के कई खातो की जानकारी सरकार को दे दी है तो सरकार के पास कोई खजाना क्यों नहीं आया।
क्या सरकार ने राजनीतिक फायदे के लिये कालाधन वालों से सांठगांठ कर उन्हें संरक्षण दे दिया है या व्यवहारिक रूप से विदेशों में जमा कालाधन वापस लाना सम्भव नहीं है। क्या सरकार को यह कह देना चाहिये कि हम यह चर्चा तो तब करते थे जब सत्ता के बाहर थे ताकि तत्कालीन सरकार को बदनाम किया जा सके।
स्विस बैंक के अलावा भी कालाधन जमा करने के कई अडडे छोटे छोटे द्वीपीय देशों में कायम हो चुकी है जिसका जिक्र पनामा पेपर्स में हुआ था। लेकिन सरकार ने इन देशों से कालाधन वापस लाने की योजना बनाने के बजाय इसकी चर्चा तक भुला दी है।
आज भी यह बात विलकुल सत्य है कि कालाधन और भ्रष्टाचार के रूप में देश के संसाधनों का अपहरण हो रहा है। आर्थिक संकट के समय जब इस पर लगाम लगाने की चर्चा होनी चाहिये तो सरकार आम आदमियों को हलाल करके अपने खजाने की पूर्ति का सुविधाजनक तरीका स्तेमाल करने में लगी है।
सरकार क्यों नहीं सोचती कि अगर आर्थिक संकट है तो अपने प्रचार विज्ञापन के हजारों करोड के बजट में कटौती करे। ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतों में कई वर्षो से हर साल बडा अनुदान विकास के लिये भेजा जाता है जबकि उनका दायरा बहुत छोटा होता है। इस कारण एक दो दशक बाद उनको संतृप्त हो जाना चाहिये।
इसके बाद कुछ वर्षो के लिये उनको अनुदान न भेजकर उनके फण्ड को कतिपय बडे कार्यो के लिये डायवर्ट कर देना चाहिये। इससे सरकार को काफी किफायत हो सकती है। ऐसे कई उपाय है जो खोजे जा सकते है पर यह कैसे किया जाये। प्रधान आदि सरकार के अपने आदमी होते है जिन्हें सरकारी खजाने की खुली लूट की छूट देना जैसे उसका कर्तब्य बन गया है। आज सरकार की सबसे बडी कमजोरी यह है कि वह निहित स्वार्थो से नहीं लडना चाहती जबकि यह लोग जनता के शोषण की कीमत पर ही पनपते है। इस कारण जनता को राहत के लिये इन पर प्रहार जरूरी होता है।
लोग इमरजेन्सी की बात करते है। कुछ लोग कहते है कि इन्दिरा गांधी ने घोषित इमरजेन्सी लगाई थी पर आज की सरकार भी अघोषित इमरजेन्सी लागू कर अपने विरोधियों के खिलाफ दमनचक्र चला रही है। जो भी हो सरकार को इमरजेन्सी लगाने का अधिकार होना चाहिये क्योकि कभी कभी निहित स्वार्थ काबू से बाहर हो जाते है जिनको कन्ट्रोल करने के लिये सरकार को पावर दिखाना होता है।
इस कसौटी पर देखे तो इन्दिरा जी की नीतियां गौर करने लायक है। उन्होने बैंको के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म करने जैसे कदम उठाकर शासन के सामाजिक उददेश्यों को पूरा किया था और इमरजेन्सी को भी अनुशासन पर्व का नाम देकर अधिकारियो और कर्मचारियों की मनमानी से आम जनता को राहत दिलाने की कोशिश की थी।
सरकारी अमला रिश्वत लेने में डरने लगा था, ट्रेने समय से आने जाने लगी थी वगैरह-वगैरह। पर वर्तमान सरकार तमाम वर्ग सत्ताओं का समर्थन हासिल कर शासन को पुख्ता रखने में विश्वास करती है, निहित स्वार्थो को सबक सिखाने में नहीं जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
सही बात तो यह है कि इस सरकार ने नीतिगत तौर पर अभी तक कोई ऐसा निर्णय व्यापक रूप से नहीं लिया है जो जनता के हितों और अधिकारों को मजबूत करे। खातों में सहायता भेजने जैसे कदम कोई वर्तमान सरकार के मौलिक नहीं है। ऐसे कदम उठाना तो नई टेक्नोलोजी का तकाजा था। उत्तर प्रदेश में बहुत पहले मायावती ने भी नई टेक्नोलोजी आने पर छात्रवृत्ति का ब्यौरा ऑनलाइन करके हर जिले में सरकारी खजाने का करोडो रूपया बचाया था।
बहरहाल पेट्रो पदार्थो के मूल्य बाजिब रखने के लिये सरकार पर दबाव बनाया जाना चाहिये। यह बात सही है कि बाहरी और आन्तरिक सुरक्षा के लिये वर्तमान सरकार का कोई विकल्प नहीं है इस कारण सम्पूर्णता में उसे अभी और शासन करने का मौका दिये जाने की मानसिकता सही हो सकती है लेकिन इस कारण उसे रोजमर्रा में निरंकुशता की छूट दी जाये यह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है।
कांग्रेस के जमाने में उसका विरोध भी प्रचण्ड होता था हालांकि चुनाव में लोग उसी को चुनते थे। प्रचण्ड विरोध रहने से समय समय पर व्यवस्था में जो खामियां आती थी सरकार उन्हें दूर करने के लिये सजग रहती थी। मसलन कांग्रेस सरकारों ने अनुच्छेद 356 का जमकर दुरूपयोग किया लेकिन जब इससे जन विरोध बढते देखा तो उसे सरकारिया आयोग गठित कर राज्य सरकारों की स्वायत्ता के लिये लोगो को आश्वस्त करना पडा।
राजीव गांधी के समय बिहार में प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने के लिये कानून बनाया गया लेकिन पत्रकारों ने देश भर में इसके खिलाफ अभियान चलाया तो सरकार को सम्भलने के लिये मजबूर होना पडा और कानून वापस लेना पडा। ऐसी अनेक मिसालें है।
वर्तमान सरकार को भी पटरी पर चलते समय बहकने से रोकने के लिये समय समय पर ऐसा ट्रीटमेन्ट दिया जाना जरूरी है। किसी कदम विशेष का विरोध करने का मतलब सरकार का अन्तिम रूप से विरोध किया जाना नहीं है जब तक कि वह सम्पूर्णता में खारिज किये जाने योग्य काम न करने लगे। इस कारण सरकार के समर्थक बनो शायद अभी देश को इसकी जरूरत है पर अन्धभक्त नहीं।