रुदाली होती तो वह भी सच में रोती
शबाहत हुसैन विजेता
लखनऊ। रंगकर्म की दुनिया को आज बड़ा नुकसान हुआ है। आज हिन्दी प्रेमियों को भी बड़ा नुकसान हुआ है। उषा गांगुली का जाना रंगकर्म का नुकसान है, हिन्दी का नुकसान है। लड़कियों के हक़ की लड़ाई लड़ने वालों का नुकसान है। रंगमंच पर वह रंगकर्म को जीती थीं और कोलकाता के एक कालेज में हिन्दी की शिक्षिका थीं।
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में 1945 में पैदा हुईं उषा गांगुली को लड़का और लड़की के बीच का फर्क बचपन में अपने घर में ही हो गया था, जहां उनके छोटे भाई का जन्मदिन तो मनाया जाता था लेकिन उनका भी जन्मदिन कभी आता है यह घर वालों को याद नहीं रहता है। घर में मिले इस फर्क की आग उनके दिल में कहीं न कहीं चिंगारी की शक्ल में मौजूद थी जो कोलकाता में रहते हुए रंगमंच पर नज़र आयी।
उषा गांगुली ने अपने नाटकों के ज़रिये औरत के सवालों को बड़ी शिद्दत से उठाया। महाश्वेता देवी के उपन्यास रुदाली को उषा गांगुली ने रंगमंच पर जिस अंदाज़ में जीवंत किया उसे आने वाला दौर याद रखेगा। रुदाली में एक पात्र है सनीचरी। सनीचरी पैदा हुई तो उसके घर पर कोई उत्सव नहीं हुआ। वह सनीचर के दिन पैदा हुई तो माँ-बाप ने उसका नाम ही सनीचरी रख दिया।
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उसे ज़िन्दगी में इतने कष्ट मिले कि आँखों के आंसू न जाने कहाँ गायब हो गए। यहाँ तक कि उसका खुद का बेटा मर गया तब भी वह नहीं रोई। बदलती दुनिया में उसने हर तरह का माहौल देखा। जहाँ- कदम-कदम पर कष्ट हैं उन हालात को भी देखा और जहाँ के लोग किसी की मौत पर भी नहीं रोते वह घर भी देखे। जिन घरों के लोग रोते नहीं वह अपने घर में किसी के मर जाने पर किराये की रोने वालियों का इंतजाम करते हैं। रुदाली वही है जो पैसे मिलने पर दहाड़ें मारकर रोती है और समाज को तब पता चलता है कि इस घर में कोई मर गया है।
महाश्वेता देवी ने जिस शानदार अंदाज़ में रुदाली को लिखा उसे उषा गांगुली ने मंच पर इस तरह से जीवंत कर दिया जैसे कि सनीचरी खुद मंच पर चढ़कर अपनी ज़िन्दगी को जी रही हो।
उषा गांगुली कानपुर में पैदा हुईं लेकिन उनकी शिक्षा दीक्षा कोलकाता में हुई। पढ़ाई के बाद कोलकाता ही उनका कर्मक्षेत्र भी बन गया। एक कालेज में वह हिन्दी की शिक्षिका बन गईं। बांग्ला रंगमंच सारी दुनिया में मशहूर है लेकिन हिन्दी की इस शिक्षिका ने बंगाल में हिन्दी रंगमंच को चुना। हालांकि उन्होंने कुछ बांग्ला नाटकों में भी काम किया लेकिन हिन्दी रंगमंच को उन्होंने खुद जिया।
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उषा गांगुली शानदार रंगकर्मी थीं। अपनी नाट्य संस्था का नाम भी उन्होंने रंगकर्मी ही रखा था। रंगकर्मी के बैनर तले उन्होंने कोर्ट मार्शल, होली, मिट्टी की गाड़ी और महाभोज जैसे नाटक किये और उन्हें देश भर में लेकर गईं। काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी को भी उन्होंने नाटक के ज़रिये जिन्दा कर दिया। उषा गांगुली के नाटक अंतर्यात्रा को कैसे भूला जा सकता है। इसके निर्देशन के साथ-साथ वह इसकी अभिनेत्री भी थीं। इस नाटक के ज़रिये उषा गांगुली ने औरत की उस जद्दोजहद को जीकर दिखाया जिसमें उसके अन्दर किस तरह के अंतर्द्वन्द्व चलते हैं और बाहर से वः किस तरह से जीती है।
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अंतर्यात्रा में उषा गांगुली ने जो ज़िन्दगी जीकर दिखाई वह खुद उसके काफी करीब से गुजरती नज़र आती हैं। रंगमंच के ज़रिये ज़िन्दगी की जद्दोजहद को जीवंत कर देने वाली उषा गांगुली को रंगप्रेमियों का ढेर सारा प्यार मिला। संगीत नाटक अकादमी जैसे सम्मान मिले। उनके काम को पसंद करने वालों की तादाद बहुत बड़ी है।
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मंच पर वह जितनी एक्टिव नज़र आती थीं उससे लोगों को यह पता नहीं चल पाता था कि वह लम्बे समय से रीढ़ की हड्डी के दर्द से बेचैन थीं। बीती रात वह अपने बिस्तर पर यूं सोईं कि सुबह भी सोती ही रह गईं। उनकी मौत की खबर मिली तो एक पुराना शेर याद आ गया, मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस, यूं तो दुनिया में सभी आये हैं मरने के लिए।