जुबिली न्यूज डेस्क
पिछले छह महीनों के दौरान अनेक ख़बरें सामने आई हैं, जहां लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही लड़कियों की हत्या उनके ही प्रेमी साथियों ने की है. मुंबई से एक और लड़की की हत्या की दिल दहला देने वाली ख़बर आई है.
इससे पहले अपनी पसंद के लड़कों के साथ ज़िंदगी गुज़ारने का फ़ैसला करने वाली लड़कियों के मां-पिता या रिश्तेदारों द्वारा उनके मारे जाने की ख़बरें ज़्यादा आम हुआ करती थीं. लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि अब उनका साथ देने का वादा करने वाले उनके साथी भी उनका ख़ून कर रहे हैं. सामने आने वाली हर घटना पहली वाली से ज़्यादा ख़ौफ़नाक और दिल दहला देने वाली है.
ऐसी क्रुरता जो रूह कपा दे.. पहले लड़की की हत्या. फ़िर शव को काटना. काटने के लिए तरह-तरह के तरीक़े और औज़ारों का इस्तेमाल करना. काटे हुए शरीर के साथ उसी घर में रहना. फ़िर बारी-बारी से शरीर के हिस्सों को ठिकाने लगाना. उन्हें जलाना, उबालना, फेंकना, कुत्ते को खिलाना, सूटकेस में भर देना, फ्रीज़ में डाल देना… और यह सब करते हुए अपनी दुनिया मज़े से रमे रहना.
यह सब उनके साथ किया जा रहा है, जिनके साथ, साथ जीने मरने के क़समें-वादे किये गये थे. लव-इन यानी सह-जीवन में दो लोग अपनी मर्जी से साथ रहना तय करते हैं. यह जीने का बेहतरीन तरीक़ा हो सकता है, इसलिए उम्मीद की जाती है कि इस रिश्ते में बराबरी और इज़्ज़त होगी, अहिंसा होगी और मोहब्बत तो होगी ही. मगर अब ये रिश्ते भी दागदार किये जा रहे हैं. हालांकि, ऐसी कुछ कहानियों का इस्तेमाल लिव-इन के विचार के ख़िलाफ़ करना चालाकी होगी.
मर्दों के लिए यह सब करना इतना आसान क्यों है?
क्या हम लड़कों और मर्दों ने कभी प्रेम करती या प्रेम में डूबी लड़कियों की आंखें देखी हैं? अगर देखी हैं तो मोहब्बत और भरोसे से भरी उन नज़रों के साथ धोखा कैसे किया जा सकता है? ज़रा सोचिये हम कितना बड़ा जुर्म कर रहे हैं.
दरअसल ज़्यादातर लड़कों और मर्दों को प्रेम करना नहीं आता है. वे प्रेम में अलबला कर और घमंडी भी हो जाते हैं. वे ख़ुद को विजेता समझते हैं. वे प्रेम को जीतना चाहते हैं. उन्हें नहीं पता कि प्रेम में हारना होता है. सब कुछ हारना होता है.
यही नहीं, मर्द प्रेम की शुरुआत ही शरीर से मानते हैं. इसलिए शरीर से ही शुरू करते हैं. शरीर जीतने के लिए हमलावर होते हैं, ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं. लेकिन किसी का मन जीतने के लिए इंसान होना पड़ता है और हमेशा इंसान बने रहना पड़ता है. यानी अहिंसक बने रहना पड़ता है. ऐसा होना आसान नहीं होता.
मर्दाना आशिक बन कर प्रेम नहीं हो सकता
जब तक लड़की उनके ‘काबू’ में नहीं आती, यही लड़के मान-मनुहार करते हैं. जिस क्षण उन्हें यह अंदाज़ा हो जाता है कि अब यह ‘मेरी’ है, उसी क्षण उनका व्यवहार आशिक़ से ‘मर्द’ वाला हो जाता है.
और अगर उन्हें इस बात का भरोसा हो जाए कि इस लड़की का साथ देने वाला कोई नहीं है या इसके साथ कोई खड़ा नहीं होगा या अब यह मेरे चंगुल में फंस चुकी है, उस क्षण लड़कों और मर्दों का व्यवहार बदल जाता है.
लड़कों को इस बात का भी बख़ूबी अंदाज़ा होता है कि शादी की रस्म के बिना रह रहीं आम लड़कियों को सामाजिक मान्यता नहीं मिलेगी. वे लोक-लाज, इज़्ज़त के नाम पर चुप रहना पसंद करेंगी. इस दिमाग़ी हालत का फ़ायदा मर्द बख़ूबी उठाते हैं. हिंसा की बुनियाद ऐसे ही पड़ती है.
लिव-इन में रहने वाली और पिछले दिनों मारी गई ज़्यादातर लड़कियां इन्हीं हालात से गुज़र रही होंगी. इसीलिए इनमें से ज़्यादातर के परिजनों को उनके जीवन के बारे में या तो पता नहीं था या पता था तो उन्होंने बेटियों से नाता तोड़ लिया था.
बहादुर होती हैं लिव-इन में रहने वाली लड़कियां
हमारे समाज में लड़की के लिए शादी सामाजिक हिफ़ाज़त की छतरी ही नहीं बल्कि सामाजिक इज़्ज़त और रिश्ते की मान्यता पाने का भी ज़रिया है. ज़्यादतर लड़कियों की जिस तरह परवरिश की जाती है, उसमें उनके होने या उनकी ज़िंदगी का मक़सद शादी बना दी जाती है.
इसलिए शादी की रस्म के बिना या ‘लिव-इन’ रिश्ते में लड़के का रहना और लड़की का रहना एक ही बात नहीं है. लड़की का ऐसे रहना बहुत बहादुरी का काम है. समाज के लोगों की उंगली हमेशा लड़की पर उठती है, सवाल हमेशा लड़की से किया जाता है. लाँछन हमेशा लड़की को झेलना पड़ता है.
आज भी बेहद कम लड़कियां हैं, जो शादी के दायरे से बाहर खुलेआम किसी साथी के साथ लिव-इन में जीवन गुज़ारने फ़ैसला करती हैं. खुलेआम उसे मानने का हौसला और ताक़त रखती हैं. ज़्यादातर लड़कियां अपने इस फ़ैसले को न सिर्फ़ अपने परिवारवालों से छिपाती हैं बल्कि बहुत नज़दीक के लोगों को भी इसका बारे में खुलकर नहीं बता पातीं. क्यों?
यही नहीं, लड़की के लिए पार्टनर का चुनाव और उसके साथ हिम्मत से खड़ा होना, लड़कों की तुलना में कहीं ज़्यादा हिम्मत का काम है. इसीलिए अगर कोई साथी के मोहब्बत के भरोसे घर छोड़ती है और उसके साथ छल होता है- तो यह कहीं बड़ा जुर्म है.
लिव-इन का फ़ैसला लेनी वाली लड़कियों के साथ आमतौर पर उसके परिवार वाले खड़े नहीं होते हैं. जब इन लड़कियों के साथी उनके साथ बदसुलूकी या हिंसक बर्ताव करते हैं तो उनके पास कोई ऐसा कंधा नहीं होता है, जहां वो भरोसे के साथ अपना दर्द कह सकें या उसके भरोसे बदसुलूक साथी या रिश्ते से नाता तोड़ सकें. कोई ऐसी जगह भी नहीं होती है, जहां वे बेहिचक ऐसे साथी से नाता तोड़ कर जा सकें. वह अपने पुराने दोस्तों से भी कट जाती है.
वैसे भी लड़कियों को यही घुट्टी पिलाई जाती है कि भला है-बुरा है, जैसा भी है उसके साथ निबाह करना है. इसलिए सह-जीवन जैसे रिश्ते में जाने वाली लड़कियाँ भी बर्दाश्त करती हैं. बर्दाश्त करने की एक बड़ी वजह यह भी होती है कि वे इसे अपने फ़ैसले का नतीजा मानती हैं. इसलिए इसे ढोती हैं.
दूसरी ओर, लड़के या मर्दों के लिए ऐसे रिश्ते से निकलना हमेशा आसान होता है. उनका परिवार अक्सर नहीं छूटता या उन्हें आसानी से अपना लेता है. मर्द जो हैं! यह उसके मर्दानगी के गुण मान लिए जाते हैं.
यही नहीं परिवार तो जानते-बूझते ऐसे लड़कों की शादी भी तय कर देते हैं. वह एक रिश्ते में रहते हुए दूसरी लड़की से शादी भी कर लेते हैं. शादी के लिए लिव-इन की दोस्त को मारकर तंदूर में भी डाल देते हैं. वह झूठ-सच के साथ आसानी से समाज, परिवार और दोस्तों के बीच अपना लिए जाते हैं.
मर्दों को मोहब्बत करना सीखना होगा
लड़कियां तो काफ़ी बदलीं लेकिन उनसे कदमताल करते हुए लड़के नहीं बदले हैं. वे अब भी मर्दाना तरीक़े से व्यवहार करते हैं. उनके लिए रिश्ते और रिश्ते को बनाने का तरीक़ा पितृसत्तात्मक है.
वे जब प्रेम करते हैं तो अक्सर छल करते हैं. वे रहते मर्दवादी हैं और अपने को नारीवादी दिखाना चाहते हैं. वे इंस्टाग्राम की नारीवादी पोस्ट और रील से लड़कियों को रिझाना चाहते हैं. वे उस पोस्ट में कही गई बातों के मुताबिक ख़ुद चलते नहीं. उन रास्तों को अपनाते नहीं. आज़माते नहीं. बदलते नहीं. मर्दों को समानता और सम्मानजनक मोहब्बत करना सीखना होगा. इसके लिए सबसे पहले लड़की की इज़्ज़त करनी सीखनी होगी.
मां-पिता, रिश्तेदार या दोस्त भी बहुत कुछ कर सकते हैं
आमतौर पर लिव-इन या अपनी पसंद का साथी चुनने वाले के साथ लड़की के घरवाले, नाते-रिश्तेदार, गांव-समाज नहीं खड़ा होता है. यह वह पहली चीज़ है, जो लड़की की हालत को कमज़ोर बनाती है और लड़के को मर्दाना ताक़त देती है.
इसलिए सबसे पहले ज़रूरी है कि अगर कोई लड़की अपना साथी चुन रही है, तो उसकी बात जानी जाए. समझी जाए. हौसला दिया जाए. इतना भरोसा दिया जाए कि वह हमेशा अपनी बात खुलकर बेख़ौफ़ बता सके. लड़की के फ़ैसले को इज़्ज़त या नाक या मूंछ से जोड़कर न देखा जाए. तब शायद हमारी बेटियां ज़हरीले दबंग मर्द साथियों की हिंसा से लड़ने का बेख़ौफ़ हौसला बना पाएंगी.
लड़कियों को कुछ करना होगा या नहीं?
लिव-इन बड़ा फ़ैसला है. आमतौर पर नौकरी करती लड़कियों को लगता है कि वे अब ऐसे फ़ैसले ले सकती हैं और वो लेती हैं. लेकिन पैरों पर खड़े होने का मतलब महज़ नौकरी या आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना नहीं है. सशक्त होने की सबसे पहली शर्त होनी चाहिए- दिमाग़ी तौर पर आज़ाद शख़्सियत. मानसिक ग़ुलामी से आज़ाद ज़िंदगी. अगर लड़कियों ने अपने घरवालों से आज़ाद हो कर, अपने हित में फ़ैसला लिया तो उन्हें अपनी ज़िंदगी के हर फ़ैसले में यह आज़ादी बरकरार रखनी चाहिए.
यह क़तई नहीं होना चाहिए कि एक तरफ़ तो उन्होंने घरवालों से अपनी आज़ादी ली और यह आज़ादी अपने मर्द साथी के पास गिरवी रख दी, उसके ग़ुलाम हो गए. वह जैसा चाहे, वे वैसा ही ज़िंदगी ग़ुज़ारें. उसके मुताबिक, अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले लें. यह सशक्त होना नहीं है. इसलिए लड़कियों को मोहब्बत और मोहब्बत के नाम पर ग़ुलामी में फ़र्क करना सीखना होगा.
‘अच्छी लड़की’ की छवि तोड़नी होगी
लड़कियों को भी मर्दाना समाज की बनाई सहनशील, सुशील, त्यागी, सेवक, अच्छी कन्या की छवि तोड़नी होगी. ‘लड़की डोली में जाती है, फिर वो अर्थी में आती है’ या ‘पति का घर ही असली घर है’ या ’मेरा पति मेरा देवता है’- इस सोच को दिमाग़ से निकाल फेंकना होगा.
लड़कियों को यह दिमाग़ से निकालना होगा कि ‘वह‘ उनके साथ कुछ भी कर सकता है. जैसे- ‘वह‘ प्रेम करता है तो मार भी सकता है. कभी-कभार मेरी ग़लती पर मार ही दिया तो कौन सा बड़ा अपराध हो गया, प्यार भी तो करता है? पता नहीं ऐसा सोचने वाली लड़कियों के दिमाग़ में प्यार की क्या परिभाषा है? वे किस प्यार की बात कर रही हैं?
मोहब्बत में हिंसा की जगह नहीं
मोहब्बत में किसी भी तरह की हिंसा की जगह नहीं हो सकती है. हिंसा का मतलब सिर्फ़ देह पर पड़ने वाली चोट नहीं है, मन पर होने वाले वार भी हैं और दिमाग़ को परेशान वाली बातें भी हैं.
हर वह बात हिंसा है, जो इंसान के सम्मान के ख़िलाफ़ है. जो प्रेम करता है, वह मर्द ‘कभी-कभार’ भी किसी तरह की हिंसा नहीं कर सकता या मार नहीं सकता. कहीं आने-जाने या किसी से बात करने से रोक नहीं सकता. यह बात जितनी पुख़्ता तौर पर लड़कियां बता सकती हैं, बताना ज़रूरी है. यानी जो बात सम्मान के ख़िलाफ़ हो, किसी भी तरह की आज़ादी को नियंत्रण करने की कोशिश हो, उसे पहली ही सीढ़ी पर रोक देना निहायत ज़रूरी है.
सम्मान और आज़ादी से एक बार समझौता, हमेशा समझौते के रास्ते पर ही ले जाता है. इस समझौते में जो चीज़ ख़त्म होगी, वह है लड़कियों की आज़ाद शख़्सियत. ऐसी किसी भी हिंसा का अहिंसक तरीक़े से मुक़ाबला करना ज़रूरी है. अहिंसा कमज़ोरी की निशानी नहीं है. जैसा महात्मा गांधी कहते हैं, अहिंसा ताक़तवरों का हथियार है.
यही नहीं लड़कियों को हमेशा इस बात को याद रखना चाहिए कि उन्होंने लिव-इन जैसा बहादुरी का फ़ैसला अकेले दम पर किया और इसके लिए लोगों से रिश्ते तोड़े. इसीलिए मोहब्बत का मतलब बर्दाश्त करना नहीं है. हिंसा को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करने की आदत डालनी होगी. रिश्ते में एक बार हिंसा को जगह मिली तो वह पांव पसारती ही जायेगी. लड़कियों को ये भी जानना चाहिए कि ऐसे रिश्ते से जितनी जल्दी हो सके बाहर निकलना ज़रूरी है.