संकट काल में संवेदनाएं झकझोरती है और कलमकार उसे अल्फ़ाज़ की शक्ल में परोस देता है । ये वक्त साहित्य रचता है और ऐसे वक्त के साहित्य को बचा कर रखना भी जरूरी है। जुबिली पोस्ट ऐसे रचनाकारों की रचनाएं आपको नियमित रूप से प्रस्तुत करता रहेगा ।
मालविका हरिओम का नाम हमारे दौर के उन शायरों में शुमार है जो आवाम के दर्द के साथ खुद को जोड़ के चलते हैं। कोरोना काल में जब सड़कें सूनी आँखों के साथ चलते हुए मजदूरों से भरी हैं , ऐसे में मालविका के मन ने ये दो गजलें लिखी ।
पढिए मालविका हरिओम की गजल
1
छाले दरक रहे हैं और पाँव गल रहे हैं
वो भूख-प्यास लेकर सड़कों पे चल रहे हैं ।
पन्नों पे जिनकी ख़ातिर सरसब्ज़ योजनाएँ
वो धूप की तपिश में दिन-रात जल रहे हैं ।
लानत है पक्षपाती उस तंत्र को हमेशा
जिसकी दुआ से सारे धनवान फल रहे हैं ।
खाली पड़ा जो पत्तल दिख जाए उसमें रोटी
ये सोच करके बच्चे आँखों को मल रहे हैं ।
मज़दूर थे वो जब तक सबके ही काम आए
मजबूर हो गए तो सबको ही खल रहे हैं ।
2
तेरी हस्ती में कोई दम नहीं है
तू ज़िंदा आदमी है बम नहीं है ।
तड़पकर भूख से सड़कों पे मर जा
अब ऐसी मौत पर मातम नहीं है ।
तेरे छालों को जो आराम दे दे
बना ऐसा कोई मरहम नहीं है ।
तू पूँजीवाद का हल्वा है प्यारे
तुझे खाने में कोई कम नहीं है ।
सियासत के गणित में शून्य है तू
अगर घट भी गया तो ग़म नहीं है ।
यह भी पढ़ें : #CoronaDiaries: हवा खराब है। आकाश मायावी
यह भी पढ़ें : आदमी अपने हर सही-ग़लत के पक्ष में दार्शनिक तर्क गढ़ लेता है : संजीव पालीवाल
यह भी पढ़ें : कविता : लॉक डाउन