न्यूज डेस्क
कांग्रेस का नाम लेते ही गांधी परिवार का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। यह कहें कि कांग्रेस और गांधी एक-दूसरे के पर्याय हैं तो गलत नहीं होगा। शायद इसीलिए अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या गांधी परिवार के बिना कांग्रेस पार्टी आगे बढ़ सकती है। जवाब सबके सामने है।
ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस में किस कदर उथल-पुथल मचा हुआ है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्यों में कांग्रेस में घमासान मचा है। राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश के बाद किस तरह कांग्रेस नेता उनको मनाने के लिए बिछे जा रहे थे। कोई पार्टी की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी जिसमें पढ़े-लिखे नेताओं की भरमार है वहां कुछ नेताओं को छोड़कर बाकी सभी गांधी परिवार की छत्रछाया में खुद को महफूज समझते हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का भविष्य क्या है।
कर्नाटक में सियासी संकट पिछले एक सप्ताह से बना हुआ है। वहां की समस्या सुलझाने के लिए कांग्रेस नेताओं से ज्यादा जेडीएस प्रमुख और मुख्यमंत्री कुमारस्वामी कोशिश कर रहे हैं और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दस जनपथ की ओर टकटकी लगाए हुए हैं।
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हाईकमान का आदेश ही उनके लिए सर्वोपरि है, जबकि गांधी परिवार इस मामले से दूरी बनाए हुए हैं। फ्रंट पर न तो सोनिया गांधी आई और न ही राहुल-प्रियंका।
कर्नाटक में चल रहा सियासी संकट कांग्रेस के उन नेताओं की पहली परीक्षा है जो गैर-गांधी थ्योरी पर चलने की मंशा रखते हैं। राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद गैर गांधी नेताओं के लिए कर्नाटक संकट को सुलझाना एक बड़ी परीक्षा है। अगर वे इसमें कामयाब हो जाते हैं तो पार्टी में गैर गांधी थ्योरी को बल मिलना तय है।
गौरतलब है कि पिछले साल कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 78 सीटें मिली थी। जेडीएस के खाते 38 सीटें आई। भाजपा 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी तो बन गई, लेकिन सरकार नहीं बना सकी।
सरकार बनाने के जरुरी बहुमत से भाजपा केवल दस सीट पीछे रह गई। चूंकि केंद्र में भाजपा की मजबूत सरकार थी, इसलिए कर्नाटक में यह शोर मच गया कि भाजपा सरकार बनाने के प्रयासों में लग गई है।
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उस वक्त कांग्रेस के 78 विधायकों में भी टूट की संभावना जैसी खबरें सामने आने लगी। दूसरी ओर, जेडीएस विधायकों में भी बड़े पैमाने पर सेंध लगने का खतरा मंडरा रहा था।
ऐसा नहीं है कि उस वक्त भाजपा ने कर्नाटक में सरकार बनाने का प्रयास नहीं किया। भाजपा ने सरकार में आने के लिए हर संभव
कोशिश की लेकिन दूसरे दल के विधायक आने को तैयार नहीं हुए।
कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी तो इसके पीछे राहुल गांधी की रणनीति थी। कांग्रेस के पास 78 सीटें थी फिर भी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए राहुल ने 38 सीटों वाली जेडीएस को समर्थन दे दिया। कांग्रेस के समर्थन से एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बन गए।
राहुल की इस रणनीति को न केवल कांग्रेसियों की सराहना मिली, बल्कि विपक्षी दलों में भी यह संकेत चला गया कि राहुल गांधी ऐसे मुश्किल समय में बड़े निर्णय ले सकते हैं। उन्होंने कर्नाटक की सियासत के बहाने विपक्ष की एकजुटता को मजबूती प्रदान करने के लिए एक संयुक्त मंच तैयार कर दिया था।
अब चूंकि राहुल गांधी अध्यक्ष नहीं है तो उन नेताओं के कर्नाटक संकट का हल निकालना किसी बड़ी परीक्षा से कम नहीं है, जो गैर-गांधी थ्योरी के आधार पर पार्टी को आगे ले जाने की बात कहते हैं।
हालांकि कांग्रेस ने सदन में कर्नाटक का मुद्दा उठाया है। पार्टी नेता गुलाम नबी आजाद ने कर्नाटक संकट के लिए सीधे तौर पर भाजपा को जिम्मेदार ठहरा दिया है। कांग्रेस नेता और पूर्व सीएम के.सिद्धारमैया व केसी वेणुगोपाल कर्नाटक के सियासी संकट को हल करने के प्रयासों में लगे हुए हैं।
इन नेताओं पर है जिम्मेदारी
कांग्रेस में वरिष्ठ नेताओं की अच्छी खासी सूची है। ये सभी राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। ऐसे में इनसे उम्मीद की जाती है कि ये लोग कांग्रेस पार्टी को गांधी परिवार के बिना भी आगे ले जा सकते हैं। ये कर्नाटक की सियासी समस्या भी सुलझाने में सफल होंगे।
कांग्रेस पार्टी में जब कहीं पर भी ऐसा संकट आता है तो उसे सुलझाने के लिए सबसे पहले अहमद पटेल की ओर देखा जाता है। उन्हें सोनिया गांधी और राहुल गांधी का खास विश्वस्त माना जाता है। इसके बाद मोतीलाल वोरा, अशोक गहलौत, कमलनाथ, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, केसी वेणुगोपाल, पी चिदंबरम, अंबिका सोनी, अधीर रंजन चौधरी, शीला दीक्षित, के.सिद्धारमैया, मुकुल वासनिक, कैप्टन अरमेंद्र सिंह, मल्लिकार्जुन खडग़े, शशि थरुर, अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल आदि नेताओं को भी पार्टी में विशेष तव्वजो दी जाती है। इनके अलावा ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, भंवर जितेंद्र सिंह, रणदीप सुरजेवाला, आशा कुमारी, शैलजा, आरपीएन सिंह व कई दूसरे नेता भी राहुल के विश्वासपात्र रहे हैं।
अब देखना दिलचस्प होगा कि ये लोग बिना गांधी के कैसे इस समस्या से पार पाते हैं।