डा. रवीन्द्र अरजरिया
राजनीति में आदर्श, सिध्दान्त और मान्यतायें बदलते देर नहीं लगती। मंच से कोसने वालों को गले लगाने में भी इन्हें कोई झिझक नहीं होती। अवसरवादिता की जीती जागती परिभाषा गढ़ने में लगे यही दल, देश की तकदीर संवारने का दावा करते हैं, जो स्वयं के हितों के लिए समझौता करने से पहले क्षण भर भी नहीं सोचते।
कथनी और करनी का अंतर तो आमबात हो गई है। आश्वासनों का अस्तित्व ही समाप्त होने के लिए होता है। उनका अनुपालन करके इतिहास बनाना, किसी भी पार्टी के लिये हितकर नहीं होता। इसीलिए कोई भी दल ऐसा जोखिम लेने का साहस नहीं जटा पता। राष्ट्रपिता की 150 वीं जयंती पर जहां कांग्रेस ने पूरे साल कार्यक्रमों की श्रंखला चलाई वहीं भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी गरिमामय आयोजनों का दम भरा।
अन्य दलों ने भी गांधी जी के नाम को आदर्श की परिभाषा बनाने में बिलकुल भी देर नहीं की। यहां तक कि क्षेत्रीय दल भी राष्ट्रपिता के यशगान करते नहीं थके। जिस देश में घोर विरोधी दल सत्ता के लालच में एक साथ शपथग्रहण करने के लिए खड़े हो जाते हों, वहां के प्रशासनिक तंत्र का बेलगाम हो जाना लाजमी ही है। व्यवस्था, आयोजन और व्यवहार यह सब शासन नहीं प्रशासन देखता है।
प्रशासन वही रहता है केवल सत्ताधारी बदल जाते हैं। प्रशासन की मानसिकता को बदले बिना परिवर्तन की बयार का नाम तो लिया जा सकता है, स्पीकर पर चिल्ला-चिल्ला कर तालियां बटोरी जा सकतीं है, लोगों को कुछ समय के लिए भावनाओं में बहाया जा सकता है परन्तु सच्चाई से मुंह नहीं मोडा जा सकता। गांधी जयंती को ही ले लीजिये।
खबर आयी कि बुंदेलखण्ड के महोबा जिलामुख्यालय पर सुबह साढे छ: बजे प्रभात फेरी का समय निर्धारित था, इसके लिये संयोजक भी निर्धारित थे, आयोजन के पांच दिन पहले से पूरी व्यवस्था की मानीटरिंग करके उसे प्रचारित भी किया गया, लेकिन आयोजन के समय शुभारम्भ स्थल पर संयोजक ही नहीं पहुंचं। सरकारी स्कूल के कुछ बच्चे जरूर पहुंच गये और पहुंच गये कुछ गांधीवादी विचारक।
आखिरकार उपस्थित लोगों के दबाव में निर्धारित समय से आधा घंटे बाद संयोजको की गैर मौजूदगी में ही औपचाकि प्रभात फेरी को हरी झंडी दिखाई गयी। यह संयोजक कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं बल्कि सरकार से भारी भरकम राशि को वेतन के रूप में स्वीकारने वाले वरिष्ठ अधिकारी ही थे। मामले ने तूल पकडा। सपा ने इस शर्मनाक घटना को मुद्दा बनाकर उछाला। दोषियों के विरुध्द कार्यवाही की मांग की, अन्यथा आंदोलन की चेतवानी दे डाली।
कांग्रेस ने भी अगले दिन इस दिशा में कड़ा रुख अपनाया। मांग, ज्ञापन और आंदोलन तक की बातें की गई। दोषियों को दण्डित करने के लिये समय सीमा निर्धारित की गई। महिलाओं की इंकलाबी टोली के रूप में पहचान बना चुकी गुलाबी गैंग ने भी राष्ट्रपिता की जयंती पर भी दायित्वों के निर्वहन न करने वालों के विरुध्द दण्डात्मक कार्यवाही की मांग करते हुए एक हफ्ते का वक्त दिया।
हायतोबा ज्यादा होते देख जिलाधिकारी ने स्पष्टीकरण मांगा। बस इतना ही हुआ। आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा, क्यों ज्यादातर लोग पद पर पहुंचते ही दायित्वों को तिलांजलि देकर व्यक्तिगत हितों के प्रति ज्यादा सजग हो जाते हैं। प्रश्नों का मकडजाल मस्तिष्क में घूम ही रहा था कि तभी कालबेल का मुधर स्वर गूंजने लगा। मुख्य व्दार खोला तो हमारे सामने देश के जानेमाने विचारक दीपक गायके मौजूद थे।
उन्होंने आगे बढ़कर आत्मिक सम्मान से हमें ओतप्रोत कर दिया। उनकी इस अप्रत्याशित मौजूदगी ने हमें चौंकाकर रख दिया। क्षण भर तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वे पूना से यहां पहुंच गये हैं। अतीत की स्मृतियां अपना पिटारा खोलतीं उसके पहले ही उन्होंने बिना किसी संंकोच के चाय की मांग कर दी। परिवारबोध से परिपूर्ण शब्दों ने आत्मिक सुख का संचार कर दिया। हम दौनो ड्राइंग रूम में आमने सामने जम गये।
चाय की प्रतीक्षा में हमने उन्हें अपने मन में चल रहे प्रश्नों के झंझावात से अवगत कराया। उन्होंने जोरदार ठहाका लगाते हुए कहा कि यह सब हाथी के दांतों की कहावत का वास्तविक प्रयोग है। हाथी भी सामान्य नहीं सफेद और वह भी विदेश से खासतौर पर मंगाया हुआ। सत्तासीन होते ही सरकारें सबसे पहले आम आवाम की चिन्ता का राग अलापतीं है।
समाज के अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति तक शासन की योजनायें पहुंचाने वालों की मानसिकता का भी तो परीक्षण किया जाना चाहिये। डाकिये की नियत जाने बिना उसे मनीआर्डर करने के लिए पैसे देना, खुली आंखों से मक्खी खाने जैसा ही है। स्वाधीनता के बाद से आजतक कभी भी प्रशासनिक अधिकारियों की दक्षता, कार्यशैली और क्षमता को परीक्षण की कसौटी पर आंका ही नहीं गया।
सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों के समसामयिक ज्ञान को तौले बिना ही उन्हें मध्यम वर्गीय परिवारों से मिलने वाले टैक्स से अकल्पनीय वेतन दे दिया जाता है। ऐसे कम ही शिक्षक होंगे जो निजी स्कूलों में अध्यापन का कार्य कर सकें। ज्ञान, नियत और कार्यशैली की तिपाई उल्टी हो गई है। प्रशासनिक तंत्र में एसोसियेशन, संगठन और संघों तले मनमानियों का तांडव हो रहा है।
अनियमितताओं के दावानल से निकलने के लिए करने होंगे भागीरथी प्रयास, और ऐसे प्रयासों को मूर्तरूप देने वाला आज दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। इतिहास गवाह है कि प्रकृति ऐसे व्यक्तित्व को निश्चित ही अवतरित करेगी, जो मानवीय भावनाओं के अनुरूप व्यवस्था कायम करेगा। चर्चा चल ही रही थी कि तभी नौकर ने चाय के प्याले और स्वल्पाहार की सामग्री से भरी प्लेट्स टेबिल पर सजाना शुरू कर दी। बातचीत में व्यवधान उत्पन्न हुआ किन्तु तब तक हमें अपनी सोच को दिशा देने हेतु साधन मिल चुका था।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है यह लेख उनका नीजि विचार है)