शबाहत हुसैन विजेता
जिस आज़ादी के लिए सरदार भगत सिंह ने बचपन में बंदूकें बोई थीं. जिस आज़ादी के लिए सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज बनाई थी. जिस आज़ादी के लिए अशफाक उल्ला खां ने लिखा था, “जाऊंगा खाली हाथ मगर यह दर्द साथ ही जाएगा, जाने किस दिन हिन्दोस्तान आज़ाद वतन कहलाएगा”. जिस आज़ादी के लिए रोटी आन्दोलन चलाया गया, जिस आज़ादी के लिए नमक बनाया गया. वो आज़ादी हमें भीख में मिली थी.
यह शर्मनाक बयान पद्मश्री का भी अपमान है और इस मुल्क की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ निछावर कर देने वालों का भी अपमान है. कंगना को अपने बेहूदे बयान पर तालियां बजाने वालों से उत्साहित नहीं होना चाहिए. कम वक्त में बहुत कुछ हासिल कर लेने की ललक में कंगना ने पिछले दो सालों में जिस रास्ते पर सफ़र किया है वो किसी से छुपा नहीं है.
कंगना को असली आज़ादी मिली 2014 में. मतलब दिसम्बर 2013 तक भारत गुलामी की साँसें ले रहा था. मतलब अटल बिहारी वाजपेयी गुलाम हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री थे. मतलब मिसाइलमैन एपीजे अब्दुल कलाम गुलाम हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति थे. मतलब भारत में आईटी सेक्टर ने जो उड़ान भरी थी वो गुलामी के दौर में भरी थी. इतने आईआईटी, एम्स, मेडिकल कालेज, क्रिकेट में वर्ल्ड कप सब गुलामी के दौर में भारत को नसीब हुआ था.
2014 में जब आज़ादी मिल गई तब भारत ने कौन से कमाल किये. नोटबंदी के ज़रिये भारत को तरक्की के रास्ते पर पहुंचा दिया गया. अदालतों की इज्जत इस तरह से आसमान को छूने लगी कि सरकार की मर्जी के फैसले होने लगे. चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया एक अदद राज्यसभा सीट के पीछे दौड़ने लग गया. अयोध्या का फैसला ऐसे जज से करवाया गया जो उस फैसले के फ़ौरन बाद रिटायर हो गया.
आज़ादी तो लालकृष्ण आडवाणी को मिल गई. जिसने पार्टी खड़ी की, जिसने जीत का रास्ता बताया, उससे कोई राय भी लेने नहीं जाता. आज़ादी तो यूपी के मुख्यमंत्री को मिल गई जो जनसभा में हुंकार भरता है छाती में गोली मारने की और कोई जज इसका संज्ञान भी नहीं लेता. यूपी का मुख्यमंत्री बुलडोजर चलाने का एक्सपर्ट बन गया.
आज़ादी तो मजदूरों की मदद करने वाले सोनू सूद को मिली. घर में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट घुस गया. जो लोगों की मदद के लिए गले तक कर्ज़ में डूब गया उसकी आय के साधन तलाशे जाने लगे.
कंगना की आज़ादी में ट्रेनों में जहाँ भारतीय रेल लिखा होता था वहां अडानी लिख गया. हवाई अड्डों के बाहर अडानी के बोर्ड लग गए. बीएसएनएल जैसी कम्पनी बिकने के कगार पर पहुँच गई. अम्बानी ने कर लो दुनिया मुट्ठी में का नारा अपने लिए तो सही साबित कर ही लिया.
कंगना आधी बात बोलकर चुप हो गईं क्योंकि तालियां तेज़ी से बजने लगी थीं वर्ना वो यह ज़रूर बतातीं कि महाराष्ट्र में आज़ादी मिलना बाकी है. वहां की अंग्रेज़ सरकार ने उनका ऑफिस तोड़ दिया था.
यह कैसी आज़ादी है कंगना जिसमें सच बोलने वाले पत्रकार बेरोजगार हो गए. जिसमें टीवी चैनल सरकारी प्रवक्ता बन गए. दूरदर्शन पहले अकेला सरकारी प्रवक्ता हुआ करता था लेकिन उसकी आँखों पर भी शर्म का पर्दा हुआ करता था लेकिन मौजूदा दौर के छोटे पर्दे ने बेशर्मी के मामले में आपको भी पीछे छोड़ दिया है.
आज़ादी की कीमत तुम क्या जानो कंगना. एक अदद पद्मश्री के लिए तुमने आज़ादी के लिए की गई उन कोशिशों का कत्ल कर दिया जिस पर आने वाली नस्लें भी नाज़ करेंगी. तुम क्या जानो चन्द्रशेखर आज़ाद कौन थे. तुम्हें क्या मालूम कि कालापानी की सज़ा क्या होती थी. अंडमान-निकोबार की जेल का इतिहास खंगाला होता तो शायद तुम्हें खुद पर शर्म आ गई होती.
जिस आज़ादी में हिन्दू-मुसलमान के नाम पर खून बहाया गया. जिस आज़ादी में खाने का तेल खरीदने के भी लोगों के पास पैसे नहीं रह गए. जिस आज़ादी में भुखमरी एक बीमारी की तरह से फैल गई. जिस आज़ादी में विपक्ष सरकार को कोढ़ सरीखा महसूस होता है. जिस सरकार में जस्टिस लोया से लेकर पहलू खान तक की मौत पर चैनलों को डिबेट की ज़रूरत महसूस नहीं होती.
जिस आज़ादी में सब कुछ भीख पर आधारित होने लगा है. जिस आज़ादी में गरीबी की रेखा से नीचे वालों को पांच किलो गेहूं या चावल से खरीदने की चालें चली जा रही हैं. जिस आज़ादी में सही बोलना जुर्म और तुम्हारी तरह के झूठों को पद्मश्री से नवाज़ा जा रहा है. अगर यही आज़ादी है तो यह थूकने के लायक है. हमें तो वो आज़ादी चाहिए है जिसमें हर होंठ सारे जहाँ से अच्छा गाने को मजबूर नज़र आयें. हमें तो वो आज़ादी चाहिए है जिसमें अन्तरिक्ष में बैठे राकेश शर्मा से कोई इन्दिरा गांधी पूछे कि वहां से भारत कैसा दिखता है और राकेश शर्मा बेसाख्ता बोल उठें कि सारे जहाँ से अच्छा. लेकिन वो तब नज़र आता है जब पद्मश्री काम से नहीं तलवे चाटने से मिलती है. तुम्हारी आज़ादी तुम्हें मुबारक, मगर प्लीज़ इसे देश की आज़ादी मत कहना. पैदल घरों को लौटते मजदूरों का खून फिर से सड़कों को शर्मिंदा कर जाता है.
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