केपी सिंह
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में मंत्रियों के आयकर को सरकारी बजट से भरे जाने की प्रथा खत्म करने का फैसला लिया गया। जो 1981 से चली आ रही थी। 1981 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पीवी सिंह ने मंत्रियों का अल्प वेतन और भत्ते देख उनका आयकर सरकारी खजाने से भरवाने की व्यवस्था लागू की थी। तब से मंत्रियों के वेतन, भत्ते और सुविधाओं में भारी बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन फिर भी इस व्यवस्था को बदलने का विचार किसी मुख्यमंत्री के दिमाग में नहीं आया।
वर्तमान मुख्यमंत्री ने भी इस मामले में स्वतः पहल नहीं की। मीडिया में जब इससे संबंधित सुर्खियों के कारण सत्ता शर्मसार होने लगी तब फैसला हुआ कि आगे से मंत्री साहबान अपना आयकर अपने ही वेतन से अदा करेंगे।
चाल चरित्र और चेहरे को बदलने की बात करने वाली भाजपा को विधायकों और मंत्रियों की मुफ्तखोरी पोषित करने वाली परंपराओं को बदलने की प्रभावी कार्रवाई शुरू से ही करनी चाहिए थी। समय-समय पर संघ और भाजपा की समन्वय बैठकें होती हैं जिसमें उसकी सरकार भी विनीत मुद्रा में हाजिर रहती है। इसके बावजूद भाजपा के विधायकों और मंत्रियों के आचरण से लेकर रहन सहन तक को नजीर के रूप में ढ़ालने की कशिश संघ अभी तक नहीं दिखा सका है।
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शासन दमन से नहीं शासकों के संयम और त्यागपूर्ण व्यवहार की उच्च कोटि की मिसाल से चलता और मजबूत होता है।
भले ही भाजपा वामपंथी विचार धारा की आलोचना करती हो लेकिन इस मामले में वामपंथी दलों के मुख्यमंत्री, मंत्री अध्यात्म के अधिक नजदीक निकले। इन्द्रजीत गुप्ता आतंकवाद के भीषण दौर में केन्द्रीय गृहमंत्री बने थे लेकिन वह बंगले में जाने की बजाय फ्लैट में ही रहते रहे। अतिरिक्त सुरक्षा का कोई तामझाम उन्होंने नहीं लिया। त्रिपुरा में बीस साल तक मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार 2018 के चुनाव में अपदस्थ हुए हैं। इतने लंबे समय तक राज्य में हुकुमत चलाने वाले माणिक सरकार बंगला तो दूर साधारण घर तक नहीं बनवा सके बल्कि अपना अपना पुश्तैनी घर भी उन्होंने पार्टी को पहले ही दान दे दिया था। मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद सरकारी घर लेना पसंद करने की बजाय वे पार्टी दफ्तर में ही एक कमरे में शिफ्ट हो गये। मुख्यमंत्री के रूप में मिलने वाले वेतन को वे हमेशा पार्टी को ही दान करते रहे। उनका अपना खर्चा रिटायर शिक्षक पत्नी की पेंशन से चलता है।
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वामपंथी मंत्रियों के ये उदाहरण विरल नहीं हैं बल्कि वामपंथी दलों में यह आचार व्यवहार संस्कृति के तौर पर व्याप्त रहा है जिसे भाजपा न अपना सकी है और न अपना पा रही है। एक समय कई राज्यों में दशकों तक वामपंथी दलों ने हुकुमत चलाई पर इसमें कोई खास बदलाव नहीं हुआ। चुनावों में जीतने की मुख्य वजह है उनके नेताओं की यही सादगी थी।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी हाल के कुछ वर्षो को छोड़ दे तो एक ऐसा संगठन रहा है जिसमें लोग समाज और देश की सेवा के वास्ते अपने जीवन को होम देने का संकल्प लेकर आते रहे हैं। पर अवसर मिला और जब उनके कसौटी पर चढ़ने की बारी आयी तो वे खरे नहीं रह सके। ऐसा क्यों यह एक सवाल है जिससे संघ पीछा नहीं छुड़ा सकता है।
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कल्याण सिंह के पहले कार्यकाल के समय से ही भाजपा में नियंत्रण बनाये रखने के लिए भेजे जाते रहे संगठन मंत्री दलाली आदि के आरोपों की वजह से आरोपों के घेरे में रहे हैं। फिर भी संघ में ऐसे की संगठन मंत्री आगे बढ़ते रहे जिनकी कार्यशैली दागदार थी। अब तो ओटीसी के लिए दरवाजे उनके लिए भी खोल दिये गये हैं जो कैरियर के सोपान की तरह संघ को इस्तेमाल करना चाहते हैं।
बहरहाल मंत्रियों की मुफ्तखोरी से जुड़ी एक और प्रथा है जिसे योगी आदित्यनाथ को संज्ञान में रहना चाहिए चूंकि योगी आदित्यनाथ पर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से काम करने और अहंकारी होने के आरोप भले ही लगा लिये जायें लेकिन वे ईमानदार हैं और बेईमानी को किसी भी रूप में प्रश्रय नहीं देना चाहते इस सत्य को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
आज मंत्रियों के साथ जिलों में उनके दौरों में जाने वाला लश्कर बढ़ गया है। मंत्री और उनका स्टाफ उनकी गाड़ी लम्बी हो जाने से अब पहले से ज्यादा सवार रहता है, इसके बाद सुरक्षा की गाड़ी और पीछे कम से कम दो और गाड़ियां जिनमें उनके रिश्तेदार व दलाल टाइप मित्र खातिरदारी कराने के लिए आते हैं।
मंत्री जिलों में त्रयोदशी या विवाह जैसे निजी कार्यक्रम में जाते हैं तो भी उन्हें यात्रा भत्ता से लेकर खाना भत्ता आदि सभी मिलता है। स्टाफ और सुरक्षा कर्मियों को भी मिलता है। पर वे खाने के खर्चे के लिए अपने विभाग के जिले मे तैनात अम्ले पर आश्रित रहते हैं जो जेब से आपस में चंदा करके यह खर्चा उठाता है। कुछ जिले ऐसे हैं जहां मंत्री के साढ़ू जैसे रिश्तेदार का धाम होता है वहां तो उनका दौरा महीने में पांच बार तक लगता रहता है।
ऐसे जिले में उनके विभाग के लोग कितनी और किस किस्म की गालियों से मंत्रियों को नवाजते हैं यह सुनने के काबिल है। मंत्रियों की यह मुफ्तखोरी भ्रष्टाचार में बढ़ावे का एक मुख्य कारण है क्योंकि अपनी जेब से उनके लिए खर्चा करने वाले अधिकारी और कर्मचारी कहीं न कहीं से वसूली करके तो भरपाई करेंगे ही।
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अनुपमा जी जब प्रदेश मंत्री मंडल से बर्खास्त नहीं हुई थी उस समय जिला बेसिक शिक्षाधिकारियों की सामत आ गई थी। मंत्री जी पति महोदय के साथ आती थी और सरकारी विश्राम गृह की बजाय किसी तीन सितारा या पांच सितारा होटल में रूकवाने की फरमाइश करती थी। शॉपिंग भी करती थी जो लाखों में होती थी।
सेवायोजन, खेलकूद आदि कई विभाग तो ऐसे हैं जिनमें जिला स्तर पर कोई बजट नहीं आता। नतीजतन अधिकारी को अपने वेतन से ही मंत्री जी और उनके मेहमानों के नखरे उठाने पड़ते हैं।
केन्द्र में मंत्री जेके अल्फांसों पावरफुल नौकरशाह रह चुके हैं। वे जब सेवा में थे उन्होंने अपने संस्मरणों पर एक किताब लिखी थी उसमें उन्होंने बताया कि वे पहली बार केरल में जब कलेक्टर बने वहां वाममोर्चे की सरकार थी। उनकी पोस्टिंग मुख्यमंत्री के ही जिले में हो गई। एक दिन मुख्यमंत्री जिले में आये और सर्किट हाउस में रूके। इसके खाने आदि का बिल बाद में अल्फांसों ने मुख्यमंत्री कार्यालय को भिजवा दिया। जब कार्यालय में उनका बिल देखा गया तो स्टाफ की त्यौरियां चढ़ गई। अल्फांसों के पास मुख्यमंत्री के पीए का फोन आया जो बहुत नाराज थे लेकिन अल्फांसों विचलित नहीं हुए। सीएम को बताया गया तो उन्होंने फोन करके परीक्षा लेने के लिए पहले अल्फांसों को डपटा और इसके बाद उन्हें शाबाशी दी, कहा कि अब तुम ही चार साल तक उनके जिले में कलेक्टर रहोगे।
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वाममोर्चे की सरकार से भाजपा की सरकार इस मामले में बढ़कर कुछ कर सकती है। नेताओं के कारण अफसरों को भी ऐसी मुफ्मखोरी करने का प्रोत्साहन मिलता है। कमिश्नर और डीआईजी जिलों में दौरे के लिए पहुंचते है तो ऐसा लगता है कि चरने के लिए छुट्टा किये गये हों। बाद में ये लोग चुकाने के लिए अपना बिल डीएम एसपी के मत्थे मढ़कर चले आते हैं। भ्रष्टाचार की रवायत पर मजबूत ठोकर लग सकती है अगर मुफ्तखोरी के पहले सोपान से ही इसे बुहारना शुरू कर दिया जाये। क्या योगी सरकार इसकी इच्छा दिखा सकेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)