राजेन्द्र कुमार
उत्तर प्रदेश देश का प्रधानमंत्री देने के मामले में भले ही चौकस रहा हो. देश में अव्वल रहा हो, पर यहां की सरकारों को राज्य के नागरिकों को अग्रिम जमानत का अधिकार देने में चार दशक का वक्त लग गया.
जाहिर है कि सूबे के सरकारों ने इस मामले में नागरिकों के अधिकार की अनदेखी करने का ही रुख अपनाया था, यह तो भला हो उन लोगों का जो समय-समय इस मसले को लेकर न्यायालय पहुंचे और वहां से मिले निर्देशों के चलते मुलायम सिंह यादव, मायावती और योगी आदित्यनाथ ने जो प्रयास किये, उसके चलते आखिर उत्तर प्रदेश में भी अग्रिम जमानत पाने का रास्ता खुल गया है.
अब सोचने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश में आखिर अग्रिम जमानत पर रोक क्यों लगी? क्या इस राज्य में अग्रिम जमानत का मिसयूज हो रहा था? तो जबाव है कि ऐसा नही था. फिर क्यों यूपी के लोगों को अग्रिम जमानत लेने संबंधी अधिकार का अन्य राज्यों की तरह लाभ लेने से वंचित किया गया.
इसकी पड़ताल से पता चला कि इमरजेंसी के दौरान जब देश की जनता के तमाम अधिकार छीने गए थे तब ही वर्ष 1976 में अग्रिम जमानत के व्यवस्था को यूपी में भी खत्म किया गया.
संविधान की मूल भावना के विपरीत लिए गए इस फैसले तब विरोध भी हुआ था. जिसकी अनदेखी करते हुए नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में यूपी एक्ट संख्या-16 के रूप में विधानसभा में पास कराकर एक मई 1976 से इसे लागू किया गया था।
तब इस एक्ट में इसका औचित्य सिर्फ यह बताया गया कि अग्रिम जमानत के प्रावधान (सेक्शन-438) की वजह से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो रही थी, इसलिए इसे समाप्त किया जाता है।
इमरजेंसी के खत्म होने और केंद्र में जनता पार्टी के सरकार बनने पर देश के अन्य राज्यों में तो अग्रिम जमानत की व्यवस्था बहाल कर दी गई. परन्तु उत्तर प्रदेश में इसे बहाल नहीं किया गया क्योंकि तत्कालीन राज्य सरकारों ने इसके लिए जरूरी पहल ही नहीं की.
दुःख की बात तो यह है कि वर्ष 2003 के पहले तक राज्य की सत्ता पर काबिज रही सरकारों ने एक बार भी यह नही सोचा कि इमरजेंसी के दौरान जनता के छीने गये अधिकार को बहाल किये जाने की जरूरत है.
ऐसा क्यों हुआ? क्यों सूबे में इमरजेंसी के बाद आयी सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया? इस सवाल पर सीनियर जर्नलिस्ट सुभाष मिश्र का कहना है कि इमरजेंसी के बाद कई सालों तक कांग्रेस की सरकार राज्य में रही. चूकी कांग्रेस सरकार के शासन में ही अग्रिम जमानत का अधिकार राज्य के लोगों से छीना गया. इसलिए कांग्रेस की सरकारों ने इस दिशा में सोचा ही नहीं. फिर इसके बाद आयी मुलायम सिंह यादव की सरकार, उसके बाद बनी बीजेपी की सरकार और फिर सपा-बसपा गठबंधन की सरकार के दौर में जो राजनीतिक उठापटक हुई उसमें चलते किसी भी सरकार ने इस दिशा में पहल ही नही की.
इस मामले में वास्तविक पहल वर्ष 2003 में सत्ता में आयी मुलायम सिंह यादव की सरकार में हुई. सपा के नेताओं के अनुसार मुलायम सिंह यादव ने इमरजेंसी के दौरान जेल गये नेताओं से वार्ता कर रहे थे तब ही अग्रिम जमानत पर लगी रोक का मामला चर्चा में आया.
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इसी के बाद जून 2003 में मुलायम सिंह यादव के राज्य में अग्रिम जमानत बहाली के पक्ष में अधिकारियों को कार्रवाई करने का निर्देश दिया। तो गृह विभाग के अफसरों ने अग्रिम जमानत बहाली के प्रावधान लागू करने के लिए महाधिवक्ता, डीजीपी तथा अन्य अधिकारियों से राय ली।
इन लोगों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये तो लोकनिर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी। इस समिति में प्रमुख सचिव गृह तथा प्रमुख सचिव न्याय को रखा गया।
इस समिति में अन्य राज्यों में अग्रिम जमानत बहाली के नियम कायदों का अध्ययन कर राज्य में अग्रिम जमानत बहाली को लागू करने की सलाह दी। इसके पहले मुलायम सिंह सरकार इस मामले में फैसला लेती मायावती की सरकार सत्ता में आ गई.
मायावती सरकार में भी इस मामले को गंभीरता से लिया. विधि आयोग और गृह विभाग के अफसरों से राय ली. इसी बीच कुछ लोग इस मामले को लेकर न्यायालय गए. जिस पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को फिर से लागू करने के लिए राज्य सरकार से कहा। मायावती सरकार ने राज्य विधि आयोग से इस मामले में रिपोर्ट देने को कहा तो राज्य विधि आयोग ने वर्ष 2009 में अपनी तृतीय रिपोर्ट में इस व्यवस्था को फिर से लागू करने की सिफारिश की थी। जिसे स्वीकार करते हुए मायावती सरकार इस संबंध में एक विधेयक लायी और उसे विधान सभा से पास करवाकर स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार के पास भेजा।
लेकिन केंद्र ने कुछ बदलावों के सुझावों के साथ इसे राज्य सरकार को वापस भेज दिया। इस पर मायावती ने इस मामले को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया. अखिलेश सरकार ने भी इस दिशा में प्रयास किये पर कोई सफलता हाथ नहीं लगी ।
अब कहा जा रहा है कि अग्रिम जमानत बहाली का क्रेडिट योगी सरकार को मिलना था. इसलिए सत्ता में आने के बाद वर्ष 2018 में योगी सरकार ने इस संबंध में विधेयक पारित करवाया और गत 1 जून को राष्ट्रपति ने दंड प्रक्रिया संहिता (उत्तर प्रदेश संशोधन) विधेयक-2018 को मंजूरी दे दी.
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यह विधेयक उत्तर प्रदेश के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा-438 में संशोधन का प्रावधान करता है। इस संशोधन के मुताबिक अब यूपी में अग्रिम जमानत हो सकेगी और अग्रिम जमानत पर सुनवाई के दौरान आरोपित का मौजूद रहना जरूरी भी नहीं होगा। लेकिन गंभीर अपराधों के मामले में अग्रिम जमानत नहीं मिलेगी.
उन मामलों में भी अग्रिम जमानत नहीं मिलेगी जिनमें फांसी की सजा हुई हो। गैंगस्टर कानून के तहत आने वाले मामलों में भी अग्रिम जमानत नहीं दी जाएगी। फिलहाल चार दशक से चली अग्रिम जमानत मिलने की कवायद का अब अंत हो गया है और कहा जा रहा है कि देर आये दुरुस्त आये और अब ऐसी व्यवस्था बने कि नागरिकों के छीने गये अधिकार की बहाली के लिए फिर इतना लंबा संघर्ष राज्य को फिर न झेलना पड़े।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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