दिनेश श्रीनेत
जीवन ही जीवन को बड़ा बनाता है। जीने की सार्थकता जीवन के भीतर है, उसके बाहर नहीं। किसी धर्म में नहीं, किसी दर्शन में नहीं, किसी स्वर्ग-नर्क में नहीं। जीवन का अर्थ उसके विस्तार से ही निकलता है। टॉम हैंक्स अभिनीत और रॉबर्ट जमैकस द्वारा निर्देशित फिल्म ‘फॉरेस्ट गम्प’ इसीलिए आपके मन में बस जाती है।
25 साल से ज्यादा वक्त बीत जाने के बावजूद इस फिल्म का एक भी दृश्य अप्रासंगिक नहीं लगता। फिल्म का कैनवस बहुत विस्तृत है और अमेरिकी इतिहास के एक छोटे से कालखंड को अपने में समेटे हुए है। इसमें एक बड़ा हिस्सा 70 के दशक का है और हम एल्विस प्रीस्ली से लेकर हिप्पी मूवमेंट तक की झलकियां इस फिल्म में देखते हैं। कुछ फिल्में अपनी कहानी, निर्माण और अभिनय से परे हो जाती हैं, वे आपके जीवन में शामिल हो जाती हैं। ‘फॉरेस्ट गम्प’, ‘गाइड’, ‘कागज के फूल’ मुझे ऐसी ही फिल्में लगती हैं। तो ‘फॉरेस्ट गम्प’ से हम जीवन के कौन से सबक सीखते हैं?
फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है कि यह कुछ कहती नहीं। कोई बना-बनाया विचार या दर्शन अपने दर्शकों पर नहीं थोपती। इस लिहाज से इसकी पटकथा संचरना भी जटिल है। आरंभ, मध्य, अंत की परिचित परिपाटी से परे – अरस्तू के क्लॉसिक थ्री-एक्ट-स्ट्रक्चर से परे। फिल्म का आरंभ हवा में उड़ते एक पंख से होता है। फॉरेस्ट जो फिल्म का नायक है, उस पर को एक किताब में दबा देता है। उसका जीवन भी हवा तैरते निरुद्देश्य पंख-सा होता है। हवा का झोंका जिधर ले जाए उधर बह निकलता है वो… लेकिन वह तीन चीजों का दामन कभी नहीं छोड़ता।
पहला, फॉरेस्ट हमेशा अपने दिल की आवाज सुनता है। यही वजह है कि जीवन में आई तमाम उथल-पुथल और भटकावों के बावजूद वह अपने बचपन की दोस्त जैनी को अंतिम समय तक प्यार करता रहता है। अंत में जैनी उसके अकेलेपन के साथी, उनके प्रेम की निशानी फॉरेस्ट के बेटे को सौंपकर इस दुनिया से विदा लेती है। दिल की आवाज सुनने के कारण ही फॉरेस्ट अपने अफसर लेफ्टिनेंट टेलर का आदेश नहीं मानता है और उसकी और अपने साथियों की जान बचाता है। लेफ्टिनेंट जब अपने पैर गवां देता है तो वह फॉरेस्ट को कोसता है कि अपाहिज की ज़िंदगी जीने की बजाय वह युद्ध में मर क्यों नहीं गया। लेकिन वक्त बीतने के साथ उसकी जीवन में फिर आस्था जगती है और वह दोबारा एक नया जीवन आरंभ करता है। दिल की इसी ‘अज्ञात पुकार’ पर फॉरेस्ट भागना शुरू करता है और तीन सालों तक भागता ही रहता है।
फॉरेस्ट के जीवन की दूसरी अहम बात, वह अपने जीवन में आए हर इंसान, हर रिश्ते की कद्र करता है। चाहे वो उसकी अपनी मां हो, उसकी बचपन की साथी जैनी हो, हमेशा झींगों के कारोबार की बात करने वाला उसका अश्वेत दोस्त बब्बा हो या उसका अफसर टेलर। फॉरेस्ट ने हर रिश्ते को एक पौधे की तरह सहेजा। वक्त बीतता गया और फॉरेस्ट का सहेजा गया हर रिश्ता किसी मजबूत दरख़्त सा लहलहाता गया। देखिए, मां ने उसे जीवन के प्रति आस्था दी। मां का कहा हर वाक्य वह समझ पाता था और उसे अपने जीवन में साकार करता गया।
फिल्म के कितने यादगार संवाद फॉरेस्ट की मां के कहे गए वाक्य हैं, जिसमें सबसे लोकप्रिय है, “मेरी मां हमेशा कहती थी कि ज़िंदगी एक चॉकलेट के डब्बे की तरह है… क्या पता तुम्हें (उस डब्बे में से) क्या मिले !” या फिर, “ईश्वर ने तुमको जो दिया है, उसी के साथ तुम्हें सर्वश्रेष्ठ करना होगा।” बाकी रिश्तों की भी यही कहानी है। जैनी ने उसे बेटा दिया… उसका अपना प्रतिरूप। बब्बा ने झींगे के कारोबार की बक-बक करते हुए अपनी मृत्यु के बाद भी फॉरेस्ट को एक ऐसा रास्ता दिखाया जिस पर चलकर वह करोड़पती बना। यह फिल्म सिखाती है कि प्रेम या रिश्ते इंस्टेंट नहीं होते। ये निरंतरता में ही अपनी खुश्बू और रंग बिखेरते हैं।
तीसरी सबसे अहम बात यह थी कि फॉरेस्ट ने अपने जीवन में हमेशा आगे की तरफ देखा। ठीक उसी तरह जब फिल्म में वह कहता है, “मेरी मां हमेशा कहती थी कि आगे बढ़ने से पहले आपको अपना अतीत पीछे छोड़ना होगा।” जीवन में दुःख आए, सुख आए, कष्ट सहे, वह उदास हुआ, हताश हुआ, अकेला पड़ा… मगर हर बार वह उठा और चल पड़ा। मुझे फिल्म का वह दृश्य बेहद सुंदर लगता है जब वह जैनी के अचानक घर छोड़ देने के बाद एक दिन उठता है और दौड़ना शुरू कर देता है। वह दीवानावार दौड़ता चला जाता है। वह समुद्र देखता है, रेगिस्तान देखता है, सितारों से भरा आसमान देखता है। कितने सुंदर तरीके से यह फिल्म बताती है कि इस विराट प्रकृति के साये तले हम सब मनुष्यों के साझा दुःख, साझा तकलीफें, साझा बेचारगियां और साझा खुशियां हैं।
हम सब प्रेम करते हैं, अपनों से बिछुड़ते हैं, अकेले होते हैं और फिर भी यह जीवन जीते चलते जाते हैं। हवा झोंकों के संग उड़ते किसी पंख की तरह…
मेरे लिए इस फिल्म के यही तीन सबक हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ब्लागर हैं और सिनेमा और साहित्य पर उनकी विश्लेषणात्मक नज़र रहती है, यह लेख उनके फेसबुक वाल से लिया गया है)