Monday - 28 October 2024 - 11:44 PM

ऊपर वाले माफ़ कर दे, अब सहा नहीं जाता

शबाहत हुसैन विजेता

लखनऊ. कभी सोचा नहीं था कि ऐसा वक्त भी देखना पड़ेगा. जिन लोगों से मोहब्बत थी. जिनके साथ दिल का रिश्ता था वो एक-एक कर साथ छोड़कर चले जा रहे हैं. साल भर पहले निर्मल दर्शन की कैंसर से मौत हुई थी तो कलेजा मुंह को आ गया था. काफी दिनों तक यही महसूस होता रहा कि शायद अब जी नहीं पाऊंगा.

कोरोना की दूसरी लहर आई तो दिल के टुकड़े-टुकड़े कर गई. कुछ ही वक्त में कितने दोस्त और रिश्तेदार अचानक से अलविदा कह गए और कितने अस्पताल में पड़े हैं. अब वाकई बर्दाश्त नहीं होता. ऊपर वाले के सामने हाथ जोड़कर कहता हूँ कि कोई गलती हो गई हो तो माफ़ कर दो. यह दुनिया तुम्हीं ने बनाई है. हम सब तुम्हारे बच्चे हैं. क्यों ऐसा खेल खेल रहे हो. माफ़ कर दो, अब सहा नहीं जाता.

राष्ट्रीय स्तर पर जिस वाहिद अली वाहिद ने दुनिया को जोड़ने की कोशिश की वो वाहिद भी कल चले गए. निर्मल दर्शन और वाहिद अली वाहिद के जाने का नुक्सान कभी पूरा नहीं हो पाएगा. जब कवि सम्मलेन और मुशायरे एक मंच पर शुरू हुए थे तब निर्मल पैगम्बर-ए-इस्लाम की शान में नात पढ़ते थे और वाहिद सरस्वती वंदना करते थे. जिस दौर में सियासत ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत पैदा कर दी उस दौर में निर्मल और वाहिद काफी चीज़ें संभाले हुए थे. एक साल के भीतर यह पुल भी ढह गया.

इस कोरोना ने साथ काम करने वाले तमाम पत्रकारों को हमसे छीन लिया. प्रमोद श्रीवास्तव से शुरू हुआ सिलसिला पवन मिश्रा तक आ गया है. जिनके साथ काम किया. जिनके साथ दिल के रिश्ते थे. जो मददगार थे. जो लड़ते थे, बातें सुनाते थे, अगले दिन बात न करो तो चिल्लाते थे, लड़ जाते थे. उनके साथ दिल का रिश्ता था उन्हें कोरोना छीन ले गया.

राष्ट्रीय क्राइम नज़र के सम्पादक शाहिद रिज़वी, सामाजिक कार्यकर्त्ता फ़िरोज़ आगा, जाने माने लेखक नरेन्द्र कोहली, इतिहासकार पद्मश्री योगेश प्रवीन, कवि कमलेश द्विवेदी, पायनियर अखबार की ताविशी श्रीवास्तव. कितने नाम गिनाये जाएं. कैसे बताया जाए कि कोरोना किसे-किसे छीन ले गया.

अवधनामा के ब्यूरो चीफ वक़ार भाई वेंटीलेटर पर हैं. वक़ार भाई जैसा मददगार ढूंढना मुश्किल है. कोरोना ने उन्हें परेशान कर रखा है. राष्ट्रीय सहारा के मोहम्मद अली भाई अस्पताल में भर्ती हैं.

बहुत से साथी हैं जो भर्ती भी नहीं हो पा रहे है. ज़रूरतमंदों को आक्सीजन नहीं मिल पा रही है. जो रसूखदार लोग हैं, जिनके एक इशारे पर तमाम काम यूं ही हो जाते हैं, वह खुद आक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं. एक पूर्व आईएएस अपनी माँ को आक्सीजन दिलाने के लिए बड़े-बड़े अधिकारियों को दिन भर फोन करते रहे मगर कहीं सुनवाई नहीं हुई. आक्सीजन बेचने वाले किसी शख्स से उनकी बात हुई उसने पैंतीस हज़ार रुपये मांगे. पूर्व आईएएस ने अपने बेटे को पैंतीस हज़ार लेकर भेजा मगर तब तक कोई पचास हज़ार देकर वह सिलेंडर ले जा चुका था. उनकी माँ की साँसें उखड़ गईं. एक आदमी की पैसे की हवस उनके घर में अँधेरा कर गई.

मेरे खालाजात भाई नुज़हत हुसैन बीएसएनएल में इंजीनियर थे. हाल ही में रिटायर हुए. उन्हें बुखार आया. कोरोना की जांच कराई गई. रिपोर्ट आने से पहले ही उनकी साँसें थम गईं. यह बात 12 अप्रैल की है. नुज़हत भाई की मौत के बाद उनकी पत्नी और बेटे की जांच कराई गई, दोनों पॉजिटिव निकले. लखनऊ में कहीं भर्ती के लिए जगह नहीं थी. उनका बेटा जयपुर में रहता है. वहां से एम्बुलेंस लेकर आया. दोनों को जयपुर में एडमिट करवाया. कल उसकी माँ ने भी दम तोड़ दिया. एक हफ्ते में माँ-बाप दोनों चले गए.

यह ऐसा दौर है जिसमें बूढों से ज्यादा जवानों पर मुसीबत आई है. लगता है जैसे मौत सड़कों पर टहल रही है. इसके बावजूद लोग हैं कि मानते नहीं. सड़कों पर खरीददारों की भीड़ जमा है.

यह भी पढ़ें : लखनऊ का इनसाइक्लोपीडिया थे योगेश प्रवीन

यह भी पढ़ें : डंके की चोट पर : हर तरह मौत है, हर तरफ तबाही है

यह भी पढ़ें : डंके की चोट पर : पहले लोग गिद्ध कहते थे तो शर्मिंदगी लगती थी

यह भी पढ़ें : डंके की चोट पर : क्या काशी मथुरा के लिए फिर क़ानून के कत्ल की तैयारी है

सरकार लॉकडाउन नहीं कर रही तो क्या सेल्फ लॉकडाउन नहीं हो सकता. आखिर लोग घरों में क्यों नहीं रुक रहे. ई-रिक्शा और बसों में सफ़र कौन से रास्ते पर ले जा रहा है इस पर भी सोचने की ज़रूरत है. यह ऐसा दौर है जिसमें दवाएं नहीं हैं. अस्पतालों में जगह नहीं है. मर जाने पर श्मशान और कब्रिस्तान भी फुल हैं. जो चले गए वो लौट नहीं सकते, जो जिन्दा हैं वो घरों में कैद होकर खुद को बचा लें. ज़िन्दगी रहेगी तो बाज़ार भी रहेगा और त्यौहार भी रहेगा.

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com