सुरेन्द्र दुबे
आखिर कल्याण सिंह फिर भाजपा में आ गए। वैसे वो गए ही कब थे। राजस्थान के राज्यपाल इसलिए बनाए गए थे क्योंकि परित्यक्त भाजपाई थे। राज्यपाल का पद अब निठल्ले बैठे नेताओं को एडजस्ट करने या फिर कुछ नेताओं को पार्टी की मुख्य धारा से हटाकर राज्यपाल जैसे निरर्थक पद पर बैठाने के लिए ही रह गया है। वो जमाना गया जब राज्यपाल किसी विद्वान या बड़े राजनेता को बनाया जाता था और उससे उम्मीद की जाती थी कि वह राज्यपाल के पद की गरिमा को बरकरार रखते हुए हेड ऑफ द स्टेट का दायित्व निभाता रहेगा। हाल ही में बिदा हुए उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल राम नाईक को जब तक राज्यपाल पद पर रहे एक सक्रिय भाजपाई की भूमिका का निर्वाह करते रहे। अब उन्हें नेपथ्य में ढकेल दिया गया है।
तो हम कल्याण सिंह की चर्चा कर रहे थे। कभी इस प्रदेश के कद्दावर नेता माने जाते थे और उन्होंने प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए एक कड़क प्रशासक होने का परिचय भी दिया। भाजपा ने जब कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया था, उस समय तक भाजपा व्यापारियों व ब्राह्मणों की पार्टी समझी जाती थी।
ये वह काल था जब उत्तर प्रदेश मुलायम सिंह की पिछड़े वर्ग की राजनीति जोर से पींगे मार रही थी। तो भाजपाइयों को समझ में आया कि अगर सत्ता पर कब्जा करना है तो पिछड़ों की राजनीति करनी पड़ेगी, इसलिए कल्याण सिंह को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया, जो बाद में प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। ब्राह्मण-ठाकुर टुकुर-टुकर देखते रह गए, क्योंकि उनके पास एक ही विकल्प था कि या तो वो भाजपा में रहें या फिर मुलायम सिंह की शरण में चले जाए, जहां यादवों की खेती लहलहा रही थी।
वर्ष 1999 में कल्याण सिंह ने अपनी पार्टी बनाई थी। इसकी वजह थी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी से अनबन हो जाना था। उस समय कल्याण सिंह अपने को भाजपा का शीर्ष नेता समझने लगे थे, जो वाजपेई को रास नहीं आया। कल्याण सिंह ने बाबरी मस्जिद टूटने के बाद देश में हिंदुओं के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे थे परंतु वह अपनी आकांक्षाओं और पार्टी अनुशासन के बीच तालमेल न बैठा पाने के कारण भाजपा के मुख्यधारा की राजनीति से भटक गए और गुस्साकर उन्होंने नई पार्टी बना ली।
वर्ष 2007 का विधान सभा चुनाव बीजेपी कल्याण सिंह के नेतृत्व में लड़ी। फिर उन्होंने मुलायम सिंह से हाथ मिलाया और समाजवादी पार्टी के समर्थन से 2009 में एटा से लोक सभा चुनाव जीत लिया। मुलायम सिंह के साथ भी उनकी ज्यादा नहीं निभी और 2010 में उन्होंने मुलायम का साथ छोड़ खुद की पार्टी जन क्रांति खड़ी की, जिसमें वह अपने परिवार तक सीमित हो गए। उनका बेटा राजबीर सिंह और बहू प्रेमलता ही सर्वेसर्वा रहे। बस यहीं से उनके राजनैतिक पराभव की शुरुआत हुई। पूरे देश में हिंदुओं का और पिछड़ों के ताकतवर नेता का तमगा छोड़कर वह सिर्फ अपने परिवार के नेता रह गए।
राजस्थान के राज्यपाल का कार्यभार छोड़कर कल्याण सिंह फिर भाजपा में इसलिए शामिल हुए हैं, ताकि वह अपनी एक और राजनैतिक पारी की शुरुआत कर सके। परंतु यहां भी उनका ध्यान अपने पुत्र राजबीर और पौत्र संदीप सिंह तक ही उनकी राजनैतिक इच्छाएं सिमट गई हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या तथा प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह इस समय प्रदेश में पिछड़ों के स्थापित नेता हैं। इनको हिला-डुलाकर भाजपा कल्याण को कोई महत्व नहीं देने वाली है। रही बात राम मंदिर की तो अब मंदिर निर्माण के नेता अमित शाह और योगी आदित्यनाथ हैं। कल्याण सिंह का कहीं जिक्र नहीं होता है।
यह बात कल्याण सिंह स्वयं अच्छी तरह समझते हैं कि बीजेपी न तो उन्हें प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाने वाली है और न ही कोई महत्वपूर्ण पद देने वाली है, परंतु राजनीति के माहिर खिलाड़ी कल्याण यह जानते है कि अपनी अहमियत कैसे बनाए रखी जाती है। इसीलिए कल्याण सिंह अब विपक्षी दलों से पूछ रहे हैं कि वे मंदिर मुद्दे पर अपना स्टैंड स्पष्ट करें। पर यह रट तो भाजपा का हर नेता वर्ष 2018 से लगातार लगाए हुए है। कल्याण सिंह इससे कोई ललकार नहीं पैदा कर सकते है।
तो जाहिर है कि कल्याण सिंह इस नई पारी में न तो पिछड़ों के कद्दावर नेता बन सकते हैं और न ही राम मंदिर पर अपनी सरकार कुर्बान करने वाले मसीहा। अब भाजपा के पास इनसे बड़े-बड़े नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। कल्याण सिंह करीबी लोगों का मानना है कि उनकी असली चिंता अब उनका अपना परिवार है। वे इतनी अहमियत बनाए रखना चाहते हैं जिससे पुत्र राजवीर सिंह और पौत्र संदीप सिंह राजनीति की सीढिय़ा चढ़ते रहें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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