के पी सिंह
उत्तर प्रदेश में पुलिस का ढांचा किस कदर सड़गल चुका है इसकी मिसाल है महोबा के निलंबित एसपी मणिलाल पाटीदार के सामने आ रहे कारनामे। उन्होंने अपनी जुर्रत में रंगदारी वसूल करने वाले गली के गुण्डों को भी पीछे छोड़ दिया था। तभी इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने पुलिस तंत्र को लेकर जो टिप्पणी की थी लगता है कि इसकी वास्तविकता उससे ज्यादा भयानक है।
मणिलाल पाटीदार ने क्रशर व्यापारियों और विस्फोटक कारोबारियों का जीना हराम कर रखा था। मनमानी वसूली के लिए वे न केवल उन्हें धमकाते थे बल्कि झूठे मुकदमें लगवाने में भी संकोच नही करते थे। महोबा प्रदेश के मुख्य सचिव राजेंद्र तिवारी का गृह जनपद है जिससे लगता है कि पानी सिर के ऊपर चला जाने पर उनके रिश्तेदारों तक ने उन्हें सीधे पाटीदार की कारगुजारियों से अवगत करा दिया।
इस बीच क्रशर व्यापारी इंद्रकांत त्रिपाठी को जिन्होंने एसपी द्वारा उन्हें मरवाने की धमकी का वीडियो वायरल किया था इसके अगले ही दिन गोली मार दी गई। यह न होता तो महोबा के लोग शायद पाटीदार को लगातार झेलते रहने के लिए मजबूर रहते और अभी तक उनका कुछ नही बिगड़ता।
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अब मणिलाल पाटीदार आईपीएस का रुआब भूलकर फरार घूम रहे हैं। इंद्रकांत त्रिपाठी की हत्या में उनका कितना हाथ है यह तो जांच का विषय है। पर इसके मुकदमें में उनको भी नामजद कर लिया गया है। वाराणसी रेंज के आईजी विजय सिंह मीणा की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय एसआईटी भी मामले के सभी पहलुओं की जांच कर रही है। मणिलाल पाटीदार बुलाये जाने के बावजूद बयान देने के लिए सामने नही आ रहे। उनके कई चहेते थानेदार भी फंस चुके हैं।
जैसे-जैसे एसआईटी की जांच आगे बढ़ रही है पीड़ितों के बयानों से मामले की तमाम संगीन परतें उघड़ती जा रही हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सदिच्छा पर संदेह नही किया जा सकता। वे साफ-सुथरा पुलिस सिस्टम चाहते हैं। मौजूदा डीजीपी हितेश चंद्र अवस्थी की छवि खाटी ईमानदार की है। इसी वजह से मुख्यमंत्री ने उन्हें प्रदेश पुलिस का मुखिया बनाया है।
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फिर भी स्थितियां ठीक नही हो पा रही हैं। मणिलाल पाटीदार जैसे अफसरों को जिले की कमान मिल जाना इसे उजागर करता है। वे जो कर रहे थे उसके मददेनजर उन्हें एक दिन भी जिले की कुर्सी पर नही रहने देना चाहिए था पर वे महीनों जमे रहे। सरकार को ऐसे अफसरों के बारे में समय रहते फीडबैक नही मिल पा रहा है। तैनाती के मामले में अधिकारी की पहले पूरी स्क्रीनिंग होनी चाहिए जिसमें कहीं न कही झोल है। प्रयागराज के एसएसपी अभिषेक दीक्षित भी निलंबित किये गये हैं।
अभिषेक दीक्षित तमिलनाडु कैडर के आईपीएस हैं। एक बार पहले भी उनके आवास पर पड़े छापे के कारण वे चर्चित रह चुके हैं। जिसमें उनके घर से दो किलो सोना और 14 किलो चांदी बरामद हुई थी। इसके बावजूद उन्हें प्रयागराज जैसे बड़े और महत्वपूर्ण जिले की कमान मिल गई। ऐसी चूंक कैसे हुई। जिसकी मानसिकता दूषित है वह तो हमेशा गंदगी फैलायेगा ही। कहा जाता है कि अभिषेक दीक्षित थानेदार तय करने के लिए प्रयागराज में बोली लगवाते थे।
योगी राज में प्रयागराज में वे दूसरे एसएसपी हैं जिन्हें थाने बेचने की शौहरत की वजह से निलंबित किया गया है। इसके पहले ऐसे ही कारणों से पूर्व एसएसपी अजय शर्मा निलंबित किये गये थे। जबकि अतुल शर्मा भी पहले से ही बदनाम थे। औरैया से लेकर बिजनौर तक अपनी पोस्टिंग के दौरान उन्होंने नरक मचा दिया था। स्थिति सुधारने के लिए जिलों में पदस्थ करने हेतु मुख्यमंत्री को विकल्प बढ़ाने चाहिए।
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डायरेक्ट आईपीएस ज्यादा साफ-सुथरे और कार्यकुशल होते हैं यह मिथक ध्वस्त हो चुका है। प्रदेश में एक दर्जन से ज्यादा आईपीएस योगी राज में भ्रष्टाचार के मामलों में निलंबित किये जा चुके हैं। इनमें ज्यादातर डायरेक्ट आईपीएस हैं। इनमें से कई कुछ ही महीनों में बहाल होकर फिर नई पोस्टिंग पा गये हैं।
संघीय सेवा के अधिकारियों का ज्यादा कुछ नही बिगड़ पाता वे इसका लाभ उठाते हैं। पर सरकार को वर्तमान स्थितियों से सबक लेकर डायरेक्ट आईपीएस अधिकारियों के प्रति अनावश्यक मोह छोड़ना पड़ेगा। एक नीति बनानी पड़ेगी कि इतने प्रतिशत जिलों में रेंकर और इतने प्रतिशत में डायरेक्ट आईपीएस को चार्ज दिया जायेगा। इससे विकल्प बढ़ेगें।
अभी तो हाल यह है कि कई पीसीएस हफ्तों पहले आईपीएस कैडर पा चुके हैं फिर भी उन्हें पुरानी पोस्टिंग पर ही बरकरार रखा गया है। डायरेक्ट आईपीएस को वरीयता के नाम पर यह तो न हो कि मणिलाल पाटीदार जैसे लोग जिला पुलिस प्रमुख बन जायें।
जिला पुलिस प्रमुख पद की अपनी गरिमा होती है उसे लोकलाज का ध्यान होना चाहिए। ऐसे डायरेक्ट आईपीएस अफसरों से तो वे अफसर बेहतर हैं जो भले ही रेंकर हो लेकिन व्यवहारिक निपुणता के धनी होते हैं।
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राजीबाजी से जितना मिल जाये उतना ही ले लेते हैं लेकिन गुण्डागर्दी और विवाद नही करते। डायरेक्ट आईपीएस अफसरों से लोगों की यह भी शिकायत रही है कि आम लोगों से मिलने में अपनी तौहीन समझते हैं। अहम के कारण जनप्रतिनिधियों से भी उनका अनावश्यक टकराव होता है। जबकि क्राइम कंट्रोल के साथ-साथ पीडितों की समस्याओं का निदान करने में भी अधिकारी को खुद आगे आने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
क्राइम कंट्रोल का मतलब अपराध दर्ज ही न होने देना नही है। जिला पुलिस प्रमुख अगर पीड़ितों से गंभीरता से नही मिलता तो थानेदारों की मनमानी को बढ़ावा मिलता है। क्राइम दर्ज नही होते जिससे बड़े माफियाओं के खिलाफ प्रदेश भर में अभियान चलने के बावजूद लोगों में असंतोष बना रहता है। कायदे से छोटे से छोटा अपराध दर्ज होना चाहिए और उस पर एक्शन किया जाना चाहिए। कानून व्यवस्था में परफैक्शन के लिए यह नितांत आवश्यक है।
पुलिस की तमाम विंग हैं। जिनकी उपयोगिता कम नही है। लेकिन वे सजा के केंद्र बना दिये गये हैं। अभिसूचना विंग का इस्तेमाल किया जाये और उनकी सूचनाओं का जन प्रतिनिधियों व अन्य लोगों से क्रास वैरीफिकेशन कराने का एक सिलसिला बना लिया जाये तो सरकार समय पर मणिलाल पाटीदार जैसे भ्रष्ट अफसरों के प्रति सतर्क हो सकती है। विजीलेंस और ईओडब्ल्यू का भी इस्तेमाल नही हो पा रहा। भारतीय संस्कृति में अर्थ को भी पुरुषार्थ माना गया है। लेकिन कब – तब जिस समय धन सुपात्र के हाथ में पहुंचे।
व्यापारी के पास अर्थ होगा तो समाज का भला होगा क्योंकि वे कारोबार बढ़ायेगें जिससे लोगों को रोजगार मिलेगा और जरूरी सामान की तीव्र आपूर्ति में भी सहूलियत होगी। अफसरों के पास बेशुमार अर्थ बढ़ेगा तो जाम होगा। वे सोना और जमीन में निवेश करके उसकी गतिशीलता अवरुद्ध कर देते हैं। विजीलेंस और ईओडब्ल्यू अगर सक्रिय कर दिये जायें तो सरकार के सामने बड़ी संख्या में ऐसे अफसर बेनकाब हो सकते हैं जिन्होंने अरबों की संपत्ति बना ली है।
आज भ्रष्ट अधिकारी जमीनों की कालाबाजारी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। जिससे जरूरतमंद को एक अदद प्लाट तक हासिल करना मनमानी कीमत के कारण दुश्वार हो रहा है। योगी जी ईमानदार हैं और बेईमानों के प्रति उन्हें घृणा भी है। तो उन्हें अंततोगत्वा ऐसे वर्ग शत्रुओं पर रहम क्यों आ जाता है। भ्रष्ट अफसरों के लिए उनके पसीजने का कोई औचित्य नही है। ऐसे अफसर जेल में जायें, प्रताड़ित हों, जलील हों तो उनका वोट बैंक घटेगा नही बल्कि बढ़ेगा। योगी जी इस पर विचार करें।