शबाहत हुसैन विजेता
पूस के महीने की ठंडी रातों में भी दिल्ली के चारों तरफ किसान आंदोलन की गर्मी सभी को महसूस हो रही है। दिल्ली जाने वाली हर सड़क पर किसानों का डेरा है। जब सत्ता इस आंदोलन को सियासी कुचक्रों में फँसाने के लिए पैंतरे चल रही है उस वक्त देश के संवेदनशील शायर, लेखक और कवि अपनी कविताओं, गज़लों और गीतों के जरिए किसानों को अपना समर्थन दे रहे हैं।
साहित्य को समाज का दर्पण कहने वालों ने ये बात अनायास नहीं कही थी। वैसे भी माना जाता है कि संकट काल साहित्य सृजन के लिए सबसे ज्यादा मुफीद होता है , संवेदना के स्वर शब्दों में बांधते हैं तो संघर्ष की धार और तेज होने लगती है।
किसान अन्नदाता कहलाता है क्योंकि वह देश का पेट भरता है. जिस तरह से सीमा पर सैनिक मुस्तैद रहता है तो हम चैन की नींद सोते हैं ठीक उसी तरह से किसान खेतों में मुस्तैद रहता है तो हमें दोनों वक्त का खाना मिलता है. मगर जय जवान-जय किसान किसान के नारे के बावजूद किसान आत्महत्याओं के चक्र में फंसा हुआ हो तो साहित्य जगह भला कैसे चुप रहे ? .
कड़ाके की ठंड झेलता किसान इन्साफ के इंतज़ार में सड़कों पर है. व्यवस्था पर इसका असर होता दिखे या न दिखे लेकिन कवियों ने किसानों के तेवर को बहुत अच्छे से महसूस किया है. कवि देवेन्द्र आर्य ने लिखा है :-
दिल्ली में हो रही मुनादी
फसलें मांग रही आज़ादी
अन्नकोष के सिरहाने
खेतिहर आज हुए फरियादी.पूस की रात में हल्कू के संग
कउड़ा ताप रही हैं दादी
खेती खुद्दारी होती है
जैसे देशप्रेम थी खादीहमां शुमां को बेच के कालिख
चिक्कन भये करोनावादी
सड़कों पर बैठी संसद ने
लोकतंत्र की मेल छुड़ा दी
होके रहेगी होके रहेगी
तानाशाही की बर्बादी
किसानों के हालात की तस्वीर खींचते हुए कवि संजय सिंह मस्त लिखते हैं :-
माहौल है तनाव में सब आसपास का
कितना है बेमिसाल ये माडल विकास का
डंडे बरस रहे हैं किसानों की पीठ पर
जैसे धुनाई करता है धुनिया कपास का
दिखती नहीं है नग्न पीठ कौम की उसे
इस कद्र शौक है उसे महंगे लिबास का.
दीवारे कहकहा में फंसे जा रहे हैं लोग
रस्ता नहीं बचा है कोई भी विकास का
एक अर्सा पहले बेकल उत्साही ने जो लिखा था किसान तो आज भी उसी मुहाने पर खड़ा है :-
अब तो गेंहूँ न धान बोते हैं।
अपनी किस्मत किसान बोते हैं।
फसल तहसील काट लेते हैं।
हम मुसलसल लगान बोते हैं।।
अपनी खेतियां उजाड़कर हम।
शहर जाकर मकान बोते हैं।।
वरिष्ठ पत्रकार और कवि राजकुमार सिंह भी किसानों के बारे में बड़ी शिद्दत से सोचते हैं. उन्होंने लिखा है :-
गर्मी की चिलचिलाती दोपहर
या जाड़े की ठिठुरती रात
जब खेतों में उन्होंने अपने हाड़ गलाए
तब शहरों में हमारे तन बड़े हुए
जब-जब
कोई किसान अपना प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट गलाता है
तब-तब
हमारी थाली में रोटी, दाल और चावल आता है
हाँ, मैं किसानों के साथ खड़ा हूँ
मैंने उनका अन्न खाया है.
राजकुमार की ये बानगी भी देखने के लायक है :-
सबसे सुंदर कविताएं
खेतों में उगती हैं
हाँ
कविता से पेट भरता है.
कवियत्री डॉ. मालविका हरिओम ने पैदल घर लौटते मजदूरों की बात भी बहुत अच्छी तरह से की थी और धरने पर अन्नदाता हैं तो उनकी अर्जी भी सरकार तक इस अंदाज़ में पहुंचा रही हैं :-
खड़े हैं कब से सड़कों पर हमारी बात तो सुन लो
हमीं जनता, हमीं वोटर हमारी बात तो सुन लो
हमीं खेतों में जुटते हैं तो मिलता है तुम्हें भोजन
हमीं भूखे, हमीं बेघर हमारी बात तो सुन लो
हिन्दी कविता को देश दुनिया में नई ऊंचाइयां देने वाले डॉ. कुमार विश्वास ने किसान आन्दोलन पर तथ्यहीन बातें करने वालों को लताड़ते हुए ट्वीट किया कि अपने बंगलों व अपार्टमेंटों की बालकनियों में बैठकर बौध्दिक जुगाली कर रहे अभिनेताओं और ज्ञानियों से सादर अनुरोध है कि वे farmers agitation का समर्थन करें न करें पर कम से कम किसानों की वास्तविक समस्याओं पर अपना अधकचरा तप्सरा तो बंद करें. किसान धान उगाता है तो समाधान भी उगा ही लेगा.
कुमार विश्वास ने अपने ही अंदाज़ में दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार को किसानों के मुद्दे पर घेरते हुए जो कुछ भी लिखा है उसे ज्यों का त्यों यहाँ दिया जा रहा है.
डॉ. कुमार विश्वास ने लिखा :-
मैं चूँकि भोग चुका हूँ इसलिए आपसे कह रहा हूँ.
भीषण जाड़े की असुविधा-जनक आहटों के बीच किसानों का बड़ा आंदोलन दिल्ली की चौखट पर बेचैनी पैदा कर रहा है ! आशा करता हूँ कि दिल्ली दरबार अपने द्वार पर आए इन चिंतित भूमिपुत्रों को उसी सम्मान और समाधान के साथ विदा करेगा जैसे एक साधुता भरे कृषक सुदामा को हर द्वारिकाधीश विदा करता रहा है! जगत को अमृत मिल सके इस सदिच्छा के लिए ज़हर पी जाने वाले देवाधिदेव हर-हर शंकर के पुण्यधाम से सांसद प्रधानमंत्री Narendra Modi से प्रार्थना है कि आप तो पराए दलों के उन नेताओं तक को गले लगाने की कला में निष्णात हैं जिन्होंने दो पीढ़ियों तक कभी आपको भर-भर कर गालियाँ दी है तो फिर ये किसान तो आपकी हमारी भारतमाता के वो बेटे हैं जिनके पसीने की महक पर मुग्ध होकर हमारी-आपकी धरती माँ खलिहान-खलिहान भर अन्न न्योछावर करती रही है ! आप बुलाकर ज़रा गले तो लगाइए अपने घर के इन बड़ों को, पैर छू लीजिए इन माँओ के, कंधे पर बड़े भाई जैसा हाथ रखिए दशमेश पिता के इन बेलौस-बेमिसाल वंशजों के ! मुझे पूरा भरोसा है कि आप हर चुनौती की तरह यह संवाद भी साध ही लेंगे!
अब हाथ जोड़कर एक प्रार्थना आप सबसे भी ! हर आंदोलन के हर तरह के पक्ष होते ही हैं ! अपनी परेशानियों का हल ढूँढते सच्चे लोगों से लेकर उनके अंदर की सच्ची आग में अपनी कच्ची पक्की सियासी रोटियाँ सेंकने वाले आत्माहीन बौनों तक, घाघों तक ! उस आंदोलन की बेबस गहमागहमी को खबरिया नमक-मिर्ची लगाकर टीआरपी बटोरने की कोशिश में जुटे दिल्ली दरबारों के बँधुआ पक्षकारों-पत्रकारों से लेकर, हाशिए पर पड़े राजनैतिक आकाओं के अनुरूप-अनुकूल निर्मम प्रहार करते सोशल-मीडिया के ट्रोल-गिद्धों तक ! पर हमारे टीवी व सोशल-मीडिया पर उस आंदोलन के पक्ष-विपक्ष को लेकर उतरती आरोपित और पूर्वनियोजित सूचनाओं के बीच हम सब की ज़िम्मेदारी है कि इन पेड-ट्रोल्स व पद्मश्रियों के लिए अपनी चेतना का बधियाकरण करा चुके इन स्वयंभू सेलिब्रिटीज़ से प्रभावित हुए बिना अपनी राय खुद निर्धारित करें ! दोनों पक्षों की ग़लतियाँ, हठधर्मिताएँ और मजबूरियाँ हो सकती हैं पर आंदोलनों को महज़ इसलिए ख़ारिज करना क्यूँकि वो आपकी मनभावनी सरकारों-सत्ताओं या दलों के ख़िलाफ़ जा रहे हैं, ठीक नहीं है ! या इन आंदोलनों की आड़ में होने वाली किसी भी देश विरोधी हरकत को इसलिए ढँक देना क्यूँकि इस आंदोलन से आपकी विरोधी पार्टी को छवि का नुक़सान होगा भी, ठीक नहीं है !
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याद रखिए सत्ता तो परिवर्तनशील है ! कल किसी अनाचार या दुश्चिंता के ख़िलाफ़ हमें-आपको भी ऐसी ही कोई आवाज़ उठानी पड़ सकती है तब हमारी किसी सच्ची कोशिश पर ऐसा ही कोई बेशर्म आक्रमण हमें कितना व्यथित करेगा ? देश हमारा है, सरकार हमारी है, सड़कों पर उतरे हिंद के बेटे हमारे हैं, लाठी टेककर खेत छोड़ सड़क पर उतरी माँएं हमारी हैं तो इस समस्या के समाधान तक ले जाने की ज़िम्मेदारी भी तो हमारी ही है ना? थोड़ी संजीदगी दिखाओ यारो
स्वर्गीय कवि माधव मधुकर ने कभी लिखा था
“कैसा हुआ विकास कि जब आज भी किसान,
तकता है आसमान ही , खेतों को जोत कर ।”
किसान आंदोलन ने जब देश के नौजवान कवियों और शायरों के भीतर एक नई चिंगारी भर दी है, तब लाजिम है कि इस आंदोलन से न सिर्फ समाज जागेगा बल्कि जन साहित्य और भी मजबूत होगा।