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किसान के सामने आपूर्ति नहीं मांग का है संकट

धर्मेन्द्र मलिक

हाल में ही देश के प्रधानमंत्री मोदी जी ने मन की बात कार्यक्रम में कहा कि ‘‘इस समय हर कोई अपना योगदान देने के लिए आतुर हैं। हमारे किसान भाई-बहनों को ही देखिये एक तरफ इस महामारी के बीच खेतों में दिन-रात मेहनत कर रहे हैं और इस बात की भी चिन्ता कर रहे हैं कि देश में कोई भी भूखा न सोये। खेत की सब्जियाँ दान दे रहे हैं।’’

माननीय प्रधानमंत्री जी ने किसान के देश में योगदान का उल्लेख तो किया लेकिन इस संकट के समय में किसानों के सामने खड़े आर्थिक संकट व नुकसान की भरपाई हेतु कोई योजना नहीं बताई। जिससे देश के करोड़ों किसान मायूसी व निराशा में हैं।

जिस किसान ने धरती माता का सीना चीरकर देश के भण्डारण अन्न के उत्पादन से भर दिए आज उस किसान को समय और बाजार की मर्जी पर छोड दिया गया है। इस समय देश में अन्न की आपूर्ति का नहीं बल्कि मांग का संकट है।

किसान की फसलों की कटाई और साल भर की उम्मीदों का त्यौहार बैशाखी इस बार हर बार से कुछ महत्वपूर्ण था। इसका कारण था कि कोविड-19 के चलते देश भर में लाॅकडाउन के कारण कारोबार और अन्य गतिविधियाँ पूर्णतः रूक गई थी। लाॅकडाउन के कारण देश और देश की आर्थिक गतिविविधयों पर ताला पड़ चुका था। इस वर्ष बैशाखी इसलिए महत्वपूर्ण थी कि अगले दिन देश के प्रधानमंत्री जी लाॅकडाउन खोलने की घोषणा करने वाले थे।

किसानों का यह हर्ष का त्यौहार उस समय मातम में बदल गया जब प्रधानमंत्री जी द्वारा यह कहा गया कि 21 दिनों से चले आ रहे लाॅकडाउन को 19 दिन के और बढ़ाया जाता है। इस घोषणा के बाद देश के नीति निर्धारकों को अचानक खेती का याद आई और कहा जाने लगा कि अब कृषि ही एक ऐसी उम्मीद है जो अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने का कार्य करेगी।

देश का किसान लम्बे समय से इस वर्ष किसान प्राकृतिक आपदा जैसे- असमय बारिश, ओलावृष्टि, तेज तूफान से काफी संकट का सामना कर रहा था। ऐसे समय में कोरोना वायरस के कारण लाॅकडाउन से देश के सब्जी, फल, दूध, मुर्गीपालक, मत्स्य पालक, मधुमक्खी किसान भयानक आर्थिक चुनौतियों से लड़ रहें है।

किसानों के पास न तो रबी की कटाई की मजदूरी की समुचित व्यवस्था है और न ही खरीफ की फसल की बुवाई हेतु नकदी है। लाॅकडाउन भारत में ऐसे समय शुरू हुआ जब रबी की फसल कटाई के लिए तैयार थी और खरीफ का भी कार्य धीरे-धीरे शुरू हो चुका था।

देश के तमाम हिस्सों से तस्वीरें आईं कि किसानों ने सड़ने वाली फसलों विशेष रूप से फल और सब्जियों को जनता में बाँट दिया या फिर उसकी जुताई कर दी। इसका मुख्य कारण था कि फल और सब्जियाँ खेत से निकल नहीं पा रहीं थी। ग्रामीण क्षेत्रों में इनके भंडारण के लिए भी कोई इन्तजाम नहीं था।

लाकडाउन 2 ने बढ़ा दिया संकट 

बची-खुची आस लाॅकडाउन 2 में समाप्त हो गई थी। जिसका मुख्य कारण था मांग में कमी और खरीददार का न होना। परिवहन बन्द होने से भी फल व सब्जियों के दाम गिरे हैं। हालांकि भारत सरकार को गृह मंत्रालय द्वारा कृषि से जुड़ी गतिविधियों पर छूट दी गई थी, लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि यह छूट आज भी धरातल पर पूरी तरह से लागू नहीं है। ऐसे में किसानों की तमाम उम्मीदें फसल कटाई पर लगी थी।

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कोरोना वायरस के चलते पश्चिमी और मध्य राज्यों में फसलों के कटाई में तमाम दिक्कत आई और खेतीहर मजदूर पूरी तरह से गायब हो गया। बाजारों से जोड़ने वाली कड़ियाँ टूट गई। फल व सब्जियाँ खेत में सड़ गए।

क्रेडिट सुईस की रिपोर्ट के अनुसार किसानों को फल और सब्जियों में दाम गिरने व सड़ने के कारण लगभग 20 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ। ऐसे में किसानों ने खड़ी फसलों को नष्ट कर दिया। दूध की मांग में अचानक व्यावसायिक गतिविधियाँ जैसे- चाय, हलवाई की दुकान, शादी समारोह व अन्य आयोजनों के रूक जाने के कारण भारी कमी आयी।

मांग के न चलते दूध के दाम 20 रुपये प्रति लीटर तक गिर गए। जिससे दूध डेयरी व घरेलू दुग्ध उत्पादक 10 राज्य के किसान को लगभग 12 हजार करोड़ रुपये प्रतिमाह का नुकसान हो रहा है।

मुर्गीपालन में लगभग 1 किलों चिकन पैदा करने में 80 रुपये का खर्चा आता है। कोरोना वायरस की अफवाहों के चलते इनकी मांग समाप्त हो गयी है। जिससे मुर्गीपालक किसान कर्ज में दब चुके। किसानों को जो उम्मीद रबी की फसल से थी उसके भी दाम बाजार में नहीं मिल पा रहे हैं। चना, गेंहू, सरसों तमाम फसलें समर्थन मूल्य से नीचे बिक रही हैं।

चाय, काॅफी, कपास, चावल का निर्यात रूकने से किसान को दाम नहीं मिल पा रहे हैं। भविष्य में इनके नतीजे और गम्भीर हो सकते हैं। कृषि गतिविधियों में छूट के बावजूद भी जिस तरह से छन-छनकर खबरें आ रही है कि ट्रांसपोर्टर और किसानों को पुलिस की हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है।

सरकारी तंत्र कर रहा है दमन 

मध्यप्रदेश में पुलिस की पिटाई से एक किसान की मृत्यु हो गयी और दूसरे किसान के हाथ की हड्डी टूट गयी। मध्यप्रदेश की एक मंडी में गंेहू बेचने गये किसानों पर पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। देश की आजादपुर दिल्ली की सब्से बडी सब्जी मंडी में कूपन व्यवस्था के कारण किसानों की सब्जियाँ मंडी के बाहर सड़ रही हैं। रास्ते में किसानों को पुलिस द्वारा मारा पीटा जा रहा है।

गृह मंत्रालय के आदेश के बावजूद भी किसानों को पास के नाम पर जुर्माना लगाया जा रहा है। इस समय देश में आपूर्ति का नहीं मांग का संकट खड़ा हो गया है। भारत सरकार द्वारा 26 मार्च 2020 को निर्मला सीतारमण द्वारा 1.7 लाख करोड़ रुपये का पैकेज घोषित किया गया, लेकिन इसमें भी किसान को दरकिनार कर दिया गया। किसान के लिए कहा गया कि पीएम किसान सम्मान निधि योजना के तहत किसानों को 15,841 करोड़ रुपये अप्रैल की किस्त के लिए जारी कर दिए गए है। इससे 12 करोड़ किसान परिवारों को लाभ मिलने की बात कही गयी, लेकिन विडम्बना है कि इसकी पहुंच अब तक 6 करोड़ परिवारों तक भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के 50 लाख से अधिक किसान इसके इंतजार में है। वहीं यही हाल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार सहित अन्य राज्यों का है।

किसान को उसके हाल पर छोडकर सरकार ने आज तक इस कर्मयोद्धा की कोई खबर नहीं ली है। देश के खाद्य मंत्री सीना ठोककर कहते है कि महामारी के चलते घबराने की जरूरत नहीं है। देश के पास एक साल तक का अग्रिम भंडारण लगभग 64.6 मीलियन टन अनाज के रूप में जमा है। खाद्य मंत्री की जिन किसानों के दम पर इस खाद्य सुरक्षा को हासिल करने का दम भरते हैं वह उन किसानों का जिक्र तक नहीं करते।

किसान एक ऐसा कर्मयोद्धा है जिसके दम पर आज भारत कोरोना जैसी महामारी से लड़ रहा है। देश में अगर अन्न के भंडारण न होते तो कोरोना वायरस से ज्यादा भूख से मौतें होती। इस देश की यही विडम्बना है कि नीति निर्धारक खेती किसानी के एजेन्डे से हटकर अन्तर्राष्ट्रीय खाद्य श्रंृखला के एजेन्डे को आगे बढा रहे हैं।

कई दशक से सरकारों ने छोटे खेत, किसान और खाद्य उत्पादकों की रक्षा के लिए कोई काम नहीं किया है। इन्हें कोरपोरेट कृषि उद्योगों ने बाहर कर दिया है। सुपर मार्किट ने स्थानीय किसानों का बाजार समाप्त कर दिया है। खेती में कमोडिटी ट्रेडिंग ने खाद्य सम्प्रभुता के सिद्धान्त की अवहेलना करते हुए वैश्विक खाद्य प्रणाली पर अधिकार जमा लिया है।

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कोविड-19 महामारी भारत की ऐसी पहली प्राकृतिक आपदा के रूप में दर्ज की जाएगी जो खाद्य उपभोग के स्तर में गिरावट के बावजूद देश में भुखमरी को दर्ज नहीं करा पा रही है। 1943 के बंगाल के अकाल के समय लगभग 30 लाख लोग मारे गये थे। 1966-67 बिहार अकाल के कारण राज्य के प्रति व्यक्ति के कैलोरी उपभोग की मात्रा 2200 से घटकर कई इलाकों में 1200 तक सिमट गयी थी। वर्ष 1972-73 में महाराष्ट सूखे के कारण अनुमानित 1 लाख 33 हजार से भी अधिक मौतें हुई थी।

इस महामारी और लाॅकडाउन का देशव्यापी प्रभाव पड़ा है। देश में इस बार खाद्य संकट नहीं है। समस्या आपूर्ति की तुलना में मांग की कमी है। जिसके कारण फल, दूध, सब्जी का किसान संकट में है। प्रशासनिक अपेक्षा के कारण लोग भूखे हो सकते हैं, लेकिन भूख से मरेंगे नहीं। ऐसे समय में उन नीति निर्धारकों पर भी सवाल उठना जायज है जो भारतीय खाद्य निगम की अनाज की खरीद को समाप्त करने की वकालत करते थे।

किसान है इस वक्त असली हीरो 

इस आपदा के असली अदृश्य हीरो किसान ही हैं। जिनके बिना आज जो वितरण सार्वजनिक वितरण प्रणाली डिटेंशन सैंटर, सामुदायिक रसोई में भोजन वितरण या पकाया जा रहा है यह सब बिना किसान के सम्भव नहीं है। आज भी देश के किसान महिलाओं और पुरूषों ने अग्रिम पंक्ति कोरोना योद्धा नामित किए बिना भी खाद्य की अबाधित आपूर्ति कर रहे हैं। किसान सच्चे कर्मयोद्धा हैं जो उत्पादन को बारिश, सूखा, बाढ़ तमाम विपरित परिस्थितियों में भी उत्पादन को जारी रखते हैं।

पिछले वर्ष जब आॅटो कम्पनियाँ इन्वेंटरी के ढेर के बीच फैट्रियां बन्द करने की घोषणा कर रही थी तब व्हाट्सअप्प ग्रुप में एक मैसेज चल रहा था ‘‘ अगर हम अपने उत्पाद 20 रुपये किलो की जगह 2 रुपये किलो बेच सकते हैं तो आॅटो कम्पनियाँ 10 लाख रुपये कीमत की कार 2 लाख रुपये में क्यों नहीं बेच सकती? अगर हम नुकसान उठा सकते हैं तो उद्योगपतियों को अपने कारखाने चलाने से कौन रोकता है। अगर हम लम्बे समय से घाटे की खेती नुकसान उठाकर जारी रख सकते हैं तो उद्योगपति एक साल घाटे में कारखाना क्यों नहीं चला सकते?’’

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इसका बड़ा स्पष्ट कारण है कि सभी बाधाओं के बीच जीवन जीना किसानों के खून में हैं। कुछ शहरी लोग सवाल करते हैं कि अगर खेती घाटे का सौदा है तो किसान छोड क्यों नहीं देते। इसका उत्तर भी बड़ा ही स्पष्ट है कि किसान मुनाफे जैसी छोटी सोच न रखकर खेती को जीवन जीने की कला मानते हुए विपरित परिस्थितियों में भी खेती जारी रखे हैं। लागत, आय, पूँजी निवेश पर मुनाफा या प्रति व्यक्ति आय सब विदेशी अवधारणा है। किसानों को जब तक लागत और परिश्रम के बराबर भी नकदी मिलती रहेगी तब तक किसान खेती करता रहेगा।

देश के प्रधानमंत्री जी के आह्वान पर किसानों ने भी खूब ताली-थाली बजायी, लेकिन किसानों को सरकार ने तत्कालिक तौर पर कोई राहत नहीं दी है। देश को इन किसानों कोरोना योद्धाओं का आभार व्यक्त करना चाहिए कि किसानों के उत्पादन में देश की इतनी बड़ी जनसंख्या का संकट की घड़ी में भी पेट भरा है। किसानों को तालियों व थालियों की जरूरत नहीं है। इस समय समस्या मांग की है। ऐसे में खेत की उपज को बाजार की गारंटी देना देश व राज्य की सरकारों पर उत्तरदायित्व है।

दुनिया की कृषि का उदाहरण है कि सरकारी खजानें के बिना इसको जिन्दा नहीं रखा जा सकता। देश की सरकार को तत्कालिक रूप से देश की अर्थव्यवस्था का कुल 5 प्रतिशत के बराबर 1.5 लाख करोड का आर्थिक पैकेट किसानों के लिए घोषित करना चाहिए।

दूसरे उपाय के रूप में किसानों के एक वर्ष के बिजली के बिल, ऋण पर ब्याज व अगली फसल के लिए खाद, बीज की व्यवस्था करनी चाहिए। किसान सम्मान निधि की राशि को 24 हजार रुपये वार्षिक किया जाए। किसानों को खरीफ की बुवाई के लिए साहुकारों से 3 रुपये सैंकड़ा की दर से कर्ज लेना पड़ रहा है। जो सालाना दर 36 प्रतिशत के बराबर है।

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उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का लगभग 12 हजार करोड़ रूपये का भुगतान रूका हुआ है। जिसे महामारी को देखते हुए तुरन्त दिया जाना आवश्यक है। इस परिस्थिति में भी किसान आपूर्ति श्रंृखला को जारी रखने के लिए पुलिस की लाठी झेल रहे हैं। अगर सरकार द्वारा तत्कालिक कोई राहत नहीं दी जाती है तो फसलों की बर्बादी और सही मूल्य न मिल पाने के कारण किसानों की आत्महत्या में भारी वृद्धि हो सकती है।

कोरोना महामारी के वर्तमान काल में जब निर्माण से लेकर सर्विस तक सब बन्द है तब भारत की अर्थव्यवस्था का एक ही स्तम्भ है जो इस देश को स्थिरता और लड़ने की शक्ति प्रदान करता है, वह खेत में खड़ा किसान है।

(लेखक भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता और उत्तर प्रदेश सरकार कृषक समृद्धि आयोग के सदस्य हैं)

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