श्रीश पाठक
देश के किसान दिल्ली जाना चाहते हैं। सभी को दिल्ली जाना चाहिए। व्यापारी, दुकानदार, अध्यापक, विद्यार्थी, सैनिक, पुलिस, डॉक्टर, इंजीनियर, अरे सभी को दिल्ली जाना चाहिए। दिल्ली में देश का प्रधान सेवक बैठता है।
यों तो दिल्ली को सबके पास स्वयम ही पहुँचना चाहिए, लेकिन अगर शक्ति के नशे में अगर बिना दिल वाली दिल्ली सबके पास नहीं जाना चाह रही या यों कहें मुट्ठीभर बड़े उद्योगपतियों के डेरे से उतर नहीं पा रही, तो देश के सच्चे मालिकों को ही दिल्ली जाना चाहिए।
दिल्ली जाकर बिल्कुल ही चिल्लाना चाहिए। आवाज इतनी तेज हो कि दिल्ली का नशा उतरे और अपने मालिकों के पास फौरन पहुँच दिल्ली बोले – बताएं मालिक कैसे आना हुआ, हमें बुला लेते।
एक-एक करके सभी को दिल्ली जाते रहना चाहिए। दिल्ली जाकर किसी चीज को नुकसान नहीं पहुँचाना है, क्योंकि अपना ही है सब समान, किसी के काम में खलल नहीं डालना है क्योंकि देश सबका है और सबके हित में ही अपना हित है लेकिन दिल्ली जाकर आवाज जरूर करना चाहिए।
वो क्या है कि हम सभी अपने-अपने दड़बों में बैठे बैठे बस नून तेल रोटी की चिंता में इधर घुले जा रहे हैं उधर जनता के ही पैसों की बंदर बाँट करके तोंदीले हुए दिल्लीदार हमें कह रहे हैं कि हमें राष्ट्रवादी बनकर प्याज, मटर, आलू, टमाटर सब छोड़ देना चाहिए।
इन घाघों को पता है कि हम अपने दड़बों से निकलेंगे नहीं तो जहाँ दुनिया भर की सरकारों ने अपने मजदूरों को कोविड में कुछ राहत पहुँचाई है, वही इन्होंने श्रम कानूनों में ऐसे बदलाव उसी वक़्त में किए हैं जैसी ईस्ट इन्डिया कम्पनी अपने उद्योगपतियों के हित में करती।
उद्योगपतियों की मीडिया सब देखते सुनते भी कुछ ज्यादा कह नहीं पायी। इसलिए कहता हूँ कि हम सभी को अपने अपने दड़बों से दिल्ली जाते रहना चाहिए।
अब तक टुकड़ों में जाते रहे हम दिल्ली। टुकड़ों में जाएंगे हम दिल्ली तो आवाज हमारी तो नक्कारखाने में तूती की आवाज ही तो बनकर रहेगी।
कुछ सालों से देश के जवान भी दिल्ली आ रहे हैं, उन्हें भी दिल्ली के बहरे कानों में कुछ कहना है। जवानों की लाशों पर ये जनता में राष्ट्रवाद का ज्वार भरते हैं, और उस ज्वार में भूख, बीमारी, गंदगी सब छिप जाते हैं।
वे जवान जो दिल्ली की कूटनीतिक विफलता की कीमत अपनी जान देकर चुकाते हैं लगातार, कोई दिल्ली से नहीं पूछता कि कूटनीति में चूक कैसे हुई कि एक भी जवान हमारा कैसे मरा? उन स्वाभिमानियों को अपनी पेंशन के लिए गिड़गिड़ाना होता है क्योंकि टुकड़ों में पहुँचते हैं हम दिल्ली में।
लोकतंत्र में सीधा हिसाब है। या तो दिल्ली हमारे दरवाजे पर आती रहे या फिर हम दिल्ली में दस्तक देते रहें। जो यह नहीं हो पा रहा तो लोकतंत्र, लॉकतंत्र में बदल जाता है। अखबार, चैनल सब मजबूर हैं, सब उद्योगपतियों और सरकारों के विज्ञापन पर चल रहे इसलिए दिल्ली जाना हमारा आपका जरूरी है।
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मुट्ठीभर अघाये लोगों ने सब खरीद लिया है, वे सरकारों को नचा रहे, मीडिया को घुमा रहे और जनता पर हुकुमत कर रहे। छोटी-छोटी पहचानों को उभाड़ ये लोक को टुकड़ों में बाँट देते हैं और फिर मजे से सत्ता का ब्रेड सेंकते हैं। अखबार, न्यूज चैनल मजबूरी में उन्हीं ख़बरों को हाईलाइट करते हैं जिनसे हम छिन्न-भिन्न हों।
कहाँ तो हम सभी को अपनी विभिन्नताओं को विविधता समझ उसे पोषित करना था ताकि देश अखंड रहे और कहाँ तो हम अपनी-अपनी भिन्नताओं को लेकर बैठ गए, टुकड़ों में हो गए। एकबार हम दिल्ली जाने को तैयार होंगे तो उम्मीद में अख़बार और न्यूज चैनल हमारा साथ देने लग जाएंगे। हमें अखबार, न्यूज चैनल से उम्मीद थी, इन्हें अब हमसे उम्मीद है कि शायद हम समय निकाल सकें, शायद हम टुकड़ों में नहीं सबका हाथ पकड़ दिल्ली चल सकें।
जब समाजवाद एक लक्ष्य के रूप में और पूंजीवाद एक माध्यम के रूप में देश में विराजता था तो देश के प्रधानसेवक के मुँह से जय जवान जय किसान का बोल फूटता था। अब जबकि हमने पूँजी को ही सब निर्धारित करने दिया है तो आज का प्रधानसेवक यह नारा चुनावी रैलियों में दुहरा तो सकता है लेकिन ऐसा कोई दूसरा नारा गढ़ने की उसके पास कोई सोच नहीं हो सकती।
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आखिर क्या है कि सरकार किसी की हो, किसान को दिल्ली आना पड़ता है और दिल्ली किसानों को रोकती जरूर है। आखिर देश का प्रधानसेवक, उन किसानों के बीच जाकर स्वयं क्यों नहीं बैठ जाता? कायदे से तो उसे माफी माँगते हुए बैठ जाना था, लेकिन हिम्मत देखो दिल्ली की -खुरपियां- फावड़े चलाते किसानों के चमकते माथों पर वाटर कैनन चला दिया!
नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था जालिम अंग्रेजो के समय – दिल्ली चलो। गाँधी ने कहा था कि वे ही उपाय आजादी को बचाने में भी कारगर होंगे जो उसे पाने में इस्तेमाल किए गए तो दिल्ली जाना होगा। दिल्ली की आँख में आँख डालकर लोकतन्त्र के मालिकों को डाँट कर कहना होगा – तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई किसानो को बॉर्डर पर ही रोकने की, उनपर पानी फेंकने भर का सीना कैसे हो गया?