केपी सिंह
उत्तर प्रदेश में बेहतर पुलिसिंग के नाम पर महकमें को तुगलकी प्रयोगों का अखाड़ा बना दिया गया है। इसकी नई कड़ी के बतौर प्रदेश के प्रत्येक जिले में एक सीनियर अफसर को नोडल अधिकारी बनाने का आदेश जारी किया गया है। जिला पुलिस प्रमुख के इंस्टीटयूशन को लचर करने के जोखिम से भरी इस व्यवस्था का हश्र भी प्रत्येक थाने में चार निरीक्षकों की पहले बनाई गई व्यवस्था जैसा होने का अंदेशा जाहिर किया जा रहा है।
डीजी सिर पर सवार होने से बौने हो जायेगें पुलिस कप्तान
प्रदेश के प्रयोगधर्मी गृह विभाग ने व्यवस्था सुधारने के नाम पर एक और अजीबो-गरीब प्रयोग की घोषणा की है। इसमें हर जिले में डीजी से डीआईजी स्तर तक के अधिकारी नोडल अधिकारी बनाने का प्रावधान है। नोडल अधिकारियों की जारी की गई सूची में कानपुर में डीजी सीबीसीआईडी वीरेंद्र कुमार और चित्रकूट में डीजी फायर सर्विस विश्वजीत महापात्र नोडल बनाये गये हैं। डीजी स्तर के अधिकारी के सिर पर सवार रहने से जिला पुलिस प्रमुख की हैसियत और मनोबल अदना हो जाने की आशंका को नकारा नही जा सकता।
बिना प्राथमिकता की पुलिस की अंधाधुंध रेस
अभी यह स्पष्ट नही है कि नोडल अधिकारी उन्हें सुपुर्द किये गये जिले में क्या काम करेगें और कैसे करेगें। पुलिसिंग के विभिन्न पहलू हैं जिनमें प्राथमिकताएं भी तय नही की गईं हैं। जबकि ऐसा कर दिया जाता तो शायद यह व्यवस्था फलदाई हो भी सकती थी। अभी पुलिस से अंधाधुंध तरीके से काम लिया जा रहा है। जिससे प्रभावी पुलिसिंग की बजाय पुलिस व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई है।
थानों की नीलामी प्रमुख मुददा
हाल में पुलिस कप्तानों द्वारा थानेदारों की नियुक्ति में मनमानी का मुददा जोरशोर से उठा था जिसके तहत बुलंदशहर के तत्कालीन एसएसपी एन. कोलांची को निलंबित कर दिया गया था। बाद में प्रयागराज सहित कुछ और जिलों के पुलिस प्रमुख भी ऐसे ही आरोप में नाप दिये गये। थानेदारों की तैनाती की व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए इस बारे में पहले से जारी शासनादेश पर कड़ाई से अमल के निर्देश जारी किये गये। इसके तहत डीआईजी स्तर पर मानकों के आधार पर अनुमोदित उपयुक्तता सूची में शामिल इंस्पेक्टर, सब इंस्पेक्टर ही थानेदार नियुक्त किये जाने के लिए कप्तानों को आगाह किया गया। उपयुक्तता सूची में गड़बड़ी न हो पाये इसके लिए हर महीने जोनल एडीजी से प्रमाण पत्र लिया जा रहा है। फिर भी थानेदारों की तैनाती की व्यवस्था दुरुस्त हो गई है यह नही कहा जा सकता। तो क्या नोडल अधिकारी हर महीने समीक्षा बैठक करके थानेदारों की तैनाती के संबंध में निगरानी करेगें।
एफआईआर पर क्या होगा जादुई असर
पुलिस प्रशासन की प्राथमिकता में एक और बिंदु पर चर्चा हो सकती है जो थानों में रिपोर्ट दर्ज होने से संबंधित है। कई वर्षों से गैर जनपद के पुलिस अधिकारी द्वारा दूसरे जनपद में जाकर टेस्ट एफआईआर दर्ज कराई जाती है तांकि इस व्यवस्था को चैक किया जा सके। इसके बावजूद अपराधों को दर्ज न करने या सही समय पर सही तरीके से दर्ज न करने की शिकायतें जारी हैं। क्या नोडल अधिकारी एफआईआर दर्ज होने से संबंधित शिकायतों का निवारण करने की भूमिका निभायेगें।
पौराणिक अवधारणा से प्रेरित है यूपी का पुलिस सिस्टम
उत्तर प्रदेश का पुलिस सिस्टम जब-जब होए धरम की हानि…….. की पौराणिक अवधारणा से प्रेरित है खास तौर से वर्तमान में। यह सिस्टम मानता है कि अभिमानी असुरों के हौसले बढ़ने पर आपराधिक बाढ़ सिर से ऊपर हो जाती है जिसका अंत इन दुष्टों का वध करने से ही संभव है। इस अवधारणा के तहत उत्तर प्रदेश में पुलिस ने ठोक दो का नारा लगाकर अपराध नियंत्रण और न्याय दोनों भूमिकाएं अपने पास हस्तगत कर ली हैं। योगी सरकार आने के बाद जगह-जगह एनकाउंटर कराये गये। इसके बावजूद अपराध थमने की बजाय ‘‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’’ की तर्ज पर स्थिति और ज्यादा खराब होती गई है। जबकि बेहतर पुलिसिंग के लिए होना यह चाहिए था कि विवेचना और अभियोजन के मामले में पुलिस में पेशेवर दक्षता का विकास किया जाये। जिससे अपराधियों की त्वरित गिरफ्तारी और अदालतों से उन्हें जल्द से जल्द सजा दिलाने का काम किया जा सके। नोडल अधिकारी इस मामले में भूमिका निभा सकते हैं बशर्ते उन्हें जिला पुलिस के साथ-साथ पुलिस की अभियोजन आदि शाखाओं को समन्वित करने का अधिकार हासिल कराया जाये।
सफेद हाथी बनकर रह गया है अभिसूचना तंत्र
कानून व्यवस्था के मामले में पहले जिलों के कप्तान एलआईयू व स्पेशल ब्रांच का बेहतर इस्तेमाल करते थे। लेकिन अब इस नाम पर केवल खाना पूरी हो रही है। जबकि विघ्न संतोषी व संगठित अपराधों को संचालित करने वाले सफेदपोशों को सूचीबद्ध करके उनकी निगहबानी करने में अभिसूचना तंत्र काफी कारगर भूमिका निभा सकता है। क्या नोडल अधिकारी की व्यवस्था से इस मामले में नये कोआर्डिनेशन की ईजाद की जायेगी।
दाल-रोटी के नाम पर खाकी पर ये मेहरबानी
शासन में बैठे लोगों और अधिकारियों की सोच ऐसी बन गई है। जैसे वे इस भ्रम में हो कि बेचारे पुलिस वाले बिना पगार के काम करते हैं जिसकी वजह से उन्हें दाना-पानी का मौका दिया जाना चाहिए। इसी के तहत आजकल थानेदारों को जुआ और सटटा का कारोबार चलवाने की अघोषित छूट दे दी गई है। जबकि यह भी शांति व्यवस्था को बिगाड़ने में बड़ा कारक साबित हो रहे हैं। अभिसूचना तंत्र का इस्तेमाल इस मामले में दागी थानेदारों को चिन्हित करने में हो सकता है। क्या नोडल व्यवस्था से यह काम भी किया जायेगा।
मालामाल पुलिस कर्मियों पर कार्रवाई की फर्जी सुर्खियां
हाल में राज्य सरकार ने भ्रष्टाचार के कारण मालामाल हुए पुलिस कर्मियों की बर्खास्तगी की खबरों को लेकर मीडिया में बड़ी सुर्खियां बटोरीं थी। जबकि ये सुर्खिया फर्जी थीं। ऐसे पुलिस कर्मी जिनके खिलाफ वर्षों से चल रही फाइलें अंतिम स्टेज पर थीं उनमें की गई कार्रवाइयों का इकजाई ब्यौरा जारी करके इस प्रचार का प्रपंच रचा गया था। लेकिन ऐसा होना चाहिए।
कई सिपाही स्तर के पुलिस कर्मी ऐसे हैं जिन्होंने दस बारह वर्ष की सेवा में ही अपार वैभव जुटा लिया है। यहां तक कि यह लोग फार्चूनर और जाइलो जैसी लग्जरी गाडि़यों से डयूटी करने थाने जाते हैं। और फिर भी अधिकारी इनकी ओर आंखे मूंदे बैठे रहते हैं। इनकी हैसियत से पुलिस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के स्तर का अनुमान होता है। जिस प्रदेश में पुलिस ही इतनी लुटेरी हो उसमें बदमाशों की जरूरत क्या है। इसलिए अगर सरकार शांति व्यवस्था कायम करने के लिए वास्तव में ईमानदार है तो उसे पुलिस के इस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की तत्परता दिखानी होगी। प्रत्येक मंडल में ईओडब्ल्यू, विजीलेंस और एंटी करप्शन आदि का भी सेटअप है। जिनके बीच कोई समन्वयकारी तंत्र काम नही कर रहा। क्या नोडल व्यवस्था अस्तित्व में आने से इस विसंगति का भी निवारण होगा। बहरहाल पुलिस में नोडल अधिकारी का प्रयोग केवल एक शोशेबाजी है या इसके पीछे कुछ ठोस करने की मंशा है यह जल्द ही उजागर होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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