के.पी सिंह
आरक्षण पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के 19 अगस्त को नई दिल्ली में ज्ञान महोत्सव के समापन सत्र को सम्बोधित करते हुए दिये गये भाषण में व्यक्त विचारों पर माहौल गरमा गया था। सामाजिक न्याय के समर्थकों ने जहां इसे आरएसएस में समता की व्यवस्था को लेकर संचित दुराग्रह को जिम्मेदार ठहराते हुए भागवत को आड़े हाथ लिया था वहीं भाजपा की सरकार में आरक्षण की व्यवस्था खत्म होने की उम्मीद पाले लोगों में इससे जोश आ गया था और वे संघ प्रमुख से इसके लिए त्रिवाचा मांगने जैसा उपक्रम करने लगे थे।
इसी के तहत 04 सितम्बर को जब संघ प्रमुख पुष्कर के निम्बार्क पीठ में परशुराम मंदिर के दर्शन करने पहुंचे तो पुरोहितों ने उनसे दक्षिणा में आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने की मांग कर डाली। लेकिन अच्छा हुआ कि इस उठापटक से पैदा हो रही गलत फहमी को संघ ने संज्ञान में लिया और नतीजतन पुष्कर में संघ की वार्षिक समन्वय समिति की बैठक के समापन के दिन सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने स्पष्ट किया कि जब तक समाज में भेदभाव और छुआछूत का पूरी तरह उन्मूलन नहीं हो जाता, संघ की राय में तब तक आरक्षण को जारी रखना अपरिहार्य है।
हालांकि इस दौरान उन्होंने संघ प्रमुख की लाइन को सांकेतिक तौर पर फिर बल दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों में आमने सामने सौहार्दपूर्ण माहौल में इस विषय पर शास्त्रार्थ होना चाहिए। सह सरकार्यवाह ने इसी के अनुरूप आरक्षण को बनाये रखने का समर्थन करने के साथ सामाजिक स्थितियों को भी ध्यान में रखने की वकालत की।
यह युग समाज के अंर्तविरोधों के समन्वय और प्रबंधन का युग है जिसमें जिहाद व वर्ग शत्रुता जैसी अवधारणायें आप्रासंगिक होकर हाशिये पर जा रही हैं। भारतीय समाज में जातिगत अन्याय के खिलाफ पहले जो आक्रामकता रहती थी उस पर भी इसका असर पड़ा है। संघ सामाजिक विकास के नये चरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
इसलिए सार्वभौम और प्राकृतिक न्याय के अनुरूप समाज व्यवस्था के समायोजन के लिए उससे अब ज्यादा बड़ी उम्मीदें की जाने लगी हैं। बिना टकराव के समाज की तमाम कुरीतियों को विलोपित करने में संघ की लाइन को इस दौर में नई प्रतिष्ठा मिल रही है। इसीलिए संघ पर वर्ण व्यवस्था के समर्थन का आरोप लगने की वजह से पहले भले ही अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़ी जातियों के लोग छिटके रहते हो लेकिन इन वर्गो में भी अचानक संघ को व्यापक स्वीकृति मिली है जिसके कारण भाजपा देखते ही देखते राजनीतिक सफलता के शिखर पर पहुंच गई है।
इसी का नतीजा है कि जहां संघ की सवर्णो में पहले से ही पैठ है वहीं समाज के छिटके हुए वर्गो में उसके प्रति विश्वसनीयता का जो नव अंकुरण हुआ है उस पर कोई पाला न पड़ जाये इसकी भी पर्याप्त चिंता संघ कर रहा है और आरक्षण जैसे नाजुक मुद्दे पर बहुत ही सधे ढ़ंग से समन्वय की लाइन पर उसे चलते देखा जा रहा है।
हालांकि भले ही संघ की मंशा न हो लेकिन उसका प्रभुत्व बढ़ने के साथ ही कमजोर वर्गो के प्रति हेय भावना को जन्म सिद्ध अधिकार समझने वालों का अहंकार यकायक बहुत बुलंद होने लगा है। खासतौर से आरक्षण के विरोध में सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की जो प्रतिक्रियायें सामने आ रही हैं वे इस मुद्दे पर सौहार्दपूर्ण माहौल में विमर्श के तकाजे के अनुरूप नहीं हैं।
संघ को यह चुनौती स्वीकार करनी पड़ेगी कि विशेष अवसर का सिद्धांत अतर्राष्ट्रीय है और भारत से पहले कई देशों ने इसे अपनाया है। यह सिद्धांत मानवीय मूल्यों में भारत की प्रखर आस्था को उजागर करने के कारण देश के सम्मान और गौरव मे वृद्धि करने वाला है। आरक्षण के कारण देश की क्षमताओं के हृास का आकलन एकदम गलत है। आरक्षित वर्ग से विभिन्न पदों पर पहुंचे लोगों ने भी बेहतर क्षमता का प्रदर्शन किया है।
इस व्यवस्था के लागू होने के बाद से देश ने विश्व बिरादरी में ऊंचा स्थान बनाने की जो अग्रसरता दिखाई है वह नायाब है। आज संसार में कई मामलों में भारतीय प्रथम दर्जे के विश्व नागरिक का अघोषित दर्जा हासिल करने में सफल हो चुके हैं जबकि इसके पहले पदों आदि में संकुचित व्यवस्थायें थी तो भरपूर साधन संपन्न होते हुए भी देश लगातार पतन का शिकार होता रहा था। अतीत में भारत की सर्वोच्चता का बखान मिथकीय है जबकि आज देश का संसार में उच्च स्थान एक हकीकत है।
आरक्षण के मुद्दे पर शास्त्रार्थ की आयोजना का सुझाव प्रसारित करने के पीछे संघ की कोई दूरगामी मंशा हो सकती है। धीरे-धीरे यह चर्चा बल पकड़ती जा रही है कि जिस परिवार को किसी उच्च पद पर एक बार आरक्षण का लाभ मिल चुका है उसे आगे के लिए आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया जाना चाहिए।
अगर सहानुभूति के साथ इस तरह के सुझावों को आगे लाया जाता है तो आरक्षित वर्ग के आम लोगों का व्यापक समर्थन मिल सकता है क्योंकि यह उनके हित में है लेकिन आरक्षित वर्ग के अधिकारियों, कर्मचारियों को सिरे से नीचा दिखाने वाले विष वमन से तो बात नहीं बनेगी। संघ को इस मामले में अनुशासनात्मक इंतजाम बनाने होंगे। साथ ही नस्लगत श्रेष्ठता का ढ़िढ़ोंरा पीटने के लिए बनाये जाने वाले जातिगत संगठनों से जुड़े लोगों के बहिष्कार की दृढ़ता भी दिखानी होगी।
आरक्षण पर शास्त्रार्थ होता है तो आरक्षित वर्ग को भी कई मामलों में नई दिशा मिलेगी। आरक्षित अफसरों को पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ मिलना सुनिश्चित होना इस वर्ग के आम लोगों के खिलाफ है फिर भी अगर इस तरह के सुधार का प्रयास पहले होता था तो आम लोग भी उद्वेलित होने लगते थे। वजह यह थी कि कमजोर वर्ग का बौद्धिक नेतृत्व इसमें से आने वाले नौकरशाहों ने हाईजैक कर लिया था जिनके अपने निहित स्वार्थ हैं।
सही बात तो यह है कि इन अफसरों ने कुर्सी मिलने के बाद अपने समाज की बिल्कुल भी चिंता नहीं की। सबसे पहले तो यह देखना होगा कि वर्ण व्यवस्था में तमाम अन्याय और उत्पीड़न होने के बावजूद इसके खिलाफ व्यापक बगावत क्यों नहीं हुई। आज के ब्राह्मणों के पूर्वजों ने त्याग और संयम के मामले में जैसे कठिन व्रत अपने जीवन में अपनाये थे उनके पुण्य प्रताप का नैतिक धरातल वर्ण व्यवस्था की मजबूती को बनाये हुए था।
किसी भी युद्ध को जीतने के लिए धनबल और पशुबल से अधिक नैतिक बल महत्वपूर्ण होता है। दलित अफसरों को मौका मिला था कि वे साबित करते कि सवर्णो की तुलना में वे नैतिक रूप से कितने आगे हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर ने पद मिलने के बाद जिस तरह से भ्रष्टाचार की इंतहा की उससे सामाजिक न्याय के आंदोलन की धार कुंद होती चली गई।
यही कार्य आरक्षित वर्ग के राजनैतिक नेतृत्व ने किया। इस मामले में बाबा साहब अम्बेडकर और कांशीराम जैसे महापुरूष ही अपवाद रहे। और यह भी कि इन कुछ नामों के प्रताप से ही समाज व्यवस्था बदलने की जद्दोजहद को वह तेज और ताकत मिली जिसके आगे काफी हद तक आततायियों को झुकना पड़ा।
आरक्षित वर्ग के तमाम अफसर भ्रष्टाचार की नीयत के कारण ही अपने समाज के लोगों के साथ अन्याय में हाथ बंटाते देखे जाते थे क्योंकि वे लोग पैसा नहीं दे सकते थे। पैसा तो उन्हीं से मिलता था जो परंपरागत रूप से समृद्ध थे जिसके कारण उनके सामने अपने जमीर को बेचना उनके लिए लाजिमी था। इन अफसरों के पैसे से बनी राजनीतिक पार्टियां भी पथभ्रष्ट होने के लिए अभिशप्त रहीं।
सही बात यह है कि आरक्षित वर्ग के अफसर अपने समाज के सरोकारों की बजाय राजनीति में दबदबा बनाकर अपने लिए बेहतर ट्रांसफर पोस्टिंग का सौदा करते हैं। अगर आरक्षण पर निष्कलुष संवाद की आयोजना होती है तो आरक्षित वर्ग अफसरों के चश्में से मुक्त होकर अपने चश्में से स्थितियों को देखने में सफल होने लगेगा जो एक बड़ा बदलाव होगा।
आरक्षित वर्ग को बौद्धिक और राजनीतिक कार्यक्षेत्र में अलगाववादी मानसिकता से उबरने की जरूरत नये वैचारिक आलोड़न से महसूस हो सकती है। आज वैकल्पिक सांस्कृतिक विमर्श के नाम पर वे हीनभावना को प्रकट कर रहे हैं जबकि उन्हें समूचे समाज के नेतृत्व की क्षमता रखने का आत्मविश्वास दिखाना चाहिए।
दलित समाज जिन महापुरूषों को अपना आराध्य मानता है वे मानवता के उच्च और उदात्त आदर्शो के प्रस्तोता होने के कारण सभी के लिए ग्राह्य हैं अगर ऐसा नहीं होता तो संत रविदास को मीरा बाई अपना गुरू कैसे बनाती। इसलिए अपने वैचारिक कार्यक्रमों में उन्हें व्यापकता लानी होगी जिसमें किसी अनिष्ट की आशंका उन्हें नहीं होनी चाहिए।
संत रविदास हो, ज्योतिबा फुले हो या बाबा साहब अम्बेडकर समग्र समाज में उनकी स्वीकृति है और हो सकती है इसका भरोसा उन्हें रखना चाहिए। यह बिडम्वना का विषय है कि चर्चा के बाहर रखे गये ऐसे महापुरूषों के बैनर लगवाकर उन्हें केन्द्र में लाने की कोशिश तो बसपा की सरकार में की गई थी लेकिन ज्योतिबा फुले और नारायण गुरू का योगदान क्या है इससे लोगों को परिचित कराने की जिम्मेदारी को सुनियोजित ढ़ंग से भुलाया गया।
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दरअसल जब कोई राजनीतिक शक्ति सामाजिक अलगाव की ही रोटी खाती हो तो वह ऐसा क्यों करेगी। कमजोर जातियों को राजनीति में भी एकांगीपन से छुटकारा प्राप्त करना पड़ेगा। उन्हें यह विश्वास सजोंना होगा कि उनकी नियति प्रेशर गुट तक अपने सियासी अस्तित्व को सीमित रखना नहीं है। वे व्यापक नेतृत्व में सक्षम हैं जिसके लिए सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ आर्थिक और वैदेशिक मामलों में भी उनका दृष्टिकोण और संघर्ष सामने आना चाहिए।
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नरेन्द्र मोदी असली पिछड़े हैं या प्रायोजित तकनीकी आधार पर इस पर नुक्ताचीनी हो सकती है लेकिन व्यवहारिक तौर पर यह सत्य है कि वे ऐसी सामाजिक पृष्ठभूमि से नहीं है वर्ण व्यवस्था जिनको उच्च पदों के लिए मान्य करती है। संघ ने उन्हें न केवल प्रधानमंत्री पद के लिए मनोनीत किया बल्कि अपने तमाम पुरातन विचारों के बावजूद उन्हें आज तक के नेताओं में उसी वर्ण व्यवस्था वाले समाज से सबसे बड़ी स्वीकृति दिलाई।
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संघ ने इस मामले में जो साख बनाई है वह उसकी बहुत ही वृहत्तर पूंजी है जिसकी बदौलत भारतीय समाज के पूरी तरह मानवीय व न्यायपूर्ण समायोजन के मामले में वह सार्थक पहल कर सकता है। इसमें कामयाबी मिले इसकी शुभाशा की जानी चाहिए।