शबाहत हुसैन विजेता
सुबह 4 बजे आँख खुली. कमरा थोड़ा ज्यादा ठंडा हो गया था. चादर लेकर लेटा नहीं था इसलिये उठना पड़ा. मुंह धोया, पानी पिया, फिर से सोने की कोशिश करने के लिए लेटा तो आदत के मुताबिक़ हाथ मोबाइल फोन तक पहुँच गया. फेसबुक पर दिल्ली में रहने वाले लखनऊ के पत्रकार दोस्त बिलाल एम जाफ़री की टिप्पणी थी. उसे पढ़ने के बाद नींद आँखों से गायब हो गई.
बिलाल ने लिखा था, 4 बजने वाला है. नींद नहीं आ रही है. बालकनी में हवा तो चल रही है मगर कान के पास पसीना आ रहा है. बहरहाल दिल्ली में कोरोना के मामले किसी से छुपे नहीं हैं. कोई माने न माने मगर कम्युनिटी स्प्रेड तो हो चुका है. लोग अस्पताल जा रहे हैं मगर जानते हैं कि अब शायद ही बच पाएं और घर लौट पाएं.
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बात साफ़ है. पहले इसको इतनी गंभीरता से नहीं ले रहा था मगर अब वाकई डर लग रहा है. डर जान जाने का नहीं है. डर इस बात का है कि गर जो कुछ हुआ तो उसके बाद की स्थिति क्या होगी? सवाल कई हैं मगर जवाब नहीं मिल रहा. बस इतना समझ आ रहा है कि अब तिरवेदी भी नहीं बचेगा. ( ये ह्यूमर खुद को बहलाने और अपना डर छुपाने के लिए है.)
आगे स्थिति क्या होगी मैं नहीं जानता. हां मगर इतना लिखते हुए दिल धुक धाएं कर रहा है. इसलिए विराम देता हूँ… (अगर कल फिर बालकनी से आती इस हवा और कान के पास के इस पसीने को महसूस किया तो फिर कल इसी टाइम कुछ आगे लिखा जायेगा वर्ना… जानते तो आप भी हैं जैसे हालात हैं दिल्ली में बचेगा तो तिरवेदी भी नहीं…)
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बिलाल जाफ़री की यह पोस्ट इसलिए परेशान कर देती है क्योंकि यह वह हंसमुख शख्स है जिसकी वाल पर सिर्फ मुस्कान ही मिलती है. वह दो लाइन भी लिखता है तो ठहाके बिखेर देता है. ऐसा जिन्दादिल इंसान जो अपनी वाल पर सिर्फ खुशियाँ बिखेरने का काम करता है, उसकी वाल पर आंसुओं की बूँदें मिलें तो ताज्जुब भी होता है औत तकलीफ भी होती है.
कोरोना से राजधानी दिल्ली के जो हालात हैं वह किसी से छुपे नहीं हैं. बीमारी के बम पर बैठी है दिल्ली. इस बात से इनकार नहीं है कि दिल्ली में टेस्ट भी बहुत ज्यादा हो रहे हैं. टेस्ट ज्यादा होंगे तो मरीज़ भी ज्यादा ही मिलेंगे. मरीजों की रफ़्तार दिल्ली में जिस अंदाज़ में बढ़ रही है वह दिल की धड़कन को बढ़ा देंने वाली है.
बिलाल दिल्ली में रहते हैं. पत्रकार हैं तो ज़ाहिर है कि कोरोना की वजह से बने हालात पर उनकी पैनी निगाह भी होगी. वक्त के साथ बदलती दिल्ली का कैलकुलेशन भी अच्छे से कर पा रहे होंगे. इस कैलकुलेशन के बाद अपने घर की बालकनी में सुबह चार बजे की हवा में भी उन्हें पसीना आ रहा है तो ज़ाहिर है कि हालात डराने वाले हैं.
इस पोस्ट पर लोगों की प्रतिक्रियाएं आईं, दोस्तों ने लखनऊ लौट जाने की सलाह दी. हालात ठीक हो जाने की सांत्वना भी दी लेकिन जो महामारी के वायरस को लोगों पर हमला करते हुए देख रहा है उसे कोई कैसे समझा सकता है. एक प्रतिक्रिया के जवाब में वह कुरआन की आयत कोट करता है :- कुल्लो नफ्सिन ज़ायकतुल मौत. यानी हर शख्स को मौत का मज़ा चखना है.
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इस जवाब के बाद उसकी वाल को स्क्रोल किया. बिलाल ने 9 जून को सलीम कौसर का शेर लिखा :- कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए, वो सो गया है मुझे ख़्वाब से जगाते हुए. इसी दिन कतील शिफाई का शेर :- बहुत ज़ोरों पे है दोनों तरफ शौक-ए-शहादत, जिसे देखो वही जन्नत में जाना चाहता है. 10 जून को अहमद फ़राज़ का शेर जो कुर्बतों के नशे में थे वो अब उतरने लगे, हवा चली है तो झोंके उदास करने लगे. 11 जून को लिखा कि चराग सबके बुझेंगे, हवा किसी की नहीं.
कोरोना के बढ़ते मामले परेशान करने वाले हैं क्योंकि इसका हंटर सिर्फ गरीबों और कमजोरों पर नहीं पड़ रहा है. इसके शिकार मंत्री भी हो रहे हैं. डॉक्टर भी इससे बच नहीं पा रहे हैं. मुख्य चिकित्सा अधीक्षक और चिकित्सा अधिकारी भी कोरोना से बचाए नहीं जा पा रहे हैं.
कोरोना से डर मौत की वजह से नहीं है. यह डर इसलिए है कि कोरोना हो जाने के बाद दोस्त और रिश्तेदार भी मिल नहीं पाते हैं. घर से अस्पताल जाते वक्त मरीज़ को पता नहीं होता है कि घर वाले दोबारा देख पाएंगे या नहीं.
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कोरोना से बचने का सिर्फ एक तरीका है फिजीकल डिस्टेंसिंग. घोसले में पक्षी जिस तरह अपने डैने समेट लेता है वैसे ही सिमट जाने की ज़रूरत है. ज्यादा हासिल कर लेने का लालच छोड़ना होगा. अपना मूवमेंट कम करना होगा. खुद को बचा ले जाना ही कामयाबी होगी. एक बार खुद को बचा लिया तो नई उड़ान के लिए फिर नया आसमान होगा.
इंसान के पास यह ताकत है कि वह अपने बचाव की तैयारी कर सकता है. बचाव के तरीके भी बहुत आसान हैं. डर तो तब लगता जब वह उस फसल की तरह होता जिस पर टिड्डियों का दल हमलावर हो गया हो और फसल खुद को बचाने के लिए न कहीं जा सकती है और न ही टिड्डियों से मुकाबला ही कर सकती है.
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