अंकिता माथुर
वॉट्सअप की खबरों से अलग एक खबर, जो विभिन्न चैनलों द्वारा पहले दबाई गई और अब अलग जामे में दिखाई गई है -‘किसानों का दिल्ली कूच’’। किसान सरकार द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों को काला कानून बता रहे है और सरकार किसानों को बहकाया हुआ।
सरकार किसानों की आय दुगनी करने के लिए लगातार ठोस कदम उठाती नजर आती है, पर कौन है वो किसान-खेत में मिट्टी से भरा हुआ या शानदार एयर कण्डीशनर कमरे मे बैठा किसी बड़ी कम्पनी का मालिक?
सवालों के उत्तर हमें वक्त में पीछे झांकने को मजबूर करते हैं। हम नये आजाद हुए भारत को देखते है, जहां तय किया जाना था कि हम कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था को चुनें या औद्योगिकरण की ओर बढ़े। अव्यवस्थित कृषि व्यवस्था, भूमि बंदोबस्त, पुरानी कृषि तकनीकों में सुधार भी औद्योगिकरण के पश्चात् ही संभव प्रतीत हुआ। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ने भी औद्योगिकरण को ही प्रोत्साहित करने का मन बनाया। बंटवारे और युद्ध के बीच के भंवर में फंसे भारत को वर्ल्ड बैंक और आई.एम.एफ. जैसे विश्व बैंकों द्वारा उभरती हुई नयी अर्थव्यवस्थाओं को प्राप्त औद्योगिकरण करने के लिए ऋण उपलब्ध करवाया।
तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भी कृषि घाटे का सौदा ही मानी गई। तमाम योजनाएं इसी ओर रही कि कृषि समुदायों को नष्ट किया जाए और विकास के लिए आवश्यक सस्ता मजदूर नवनिर्मित शहरों को उपलब्ध करवाया जाए।
बड़े स्तर पर गांवों से शहरों की तरफ पलायन शुरू हुआ जो बदस्तूर अब भी जारी है। महामारी के दौर में कितने लोगों की घर वापसी हुई ये आंकड़े सरकार अब तक जुटा नहीं पाई है। हमारी सरकारों ने विश्व बैंक, आई.एम.एफ. जैसी वैश्विक संस्थाओं को शहरीकरण का वादा किया जो लगातार हो रहा है।
1950 की प्रथम पंचवर्षीय योजना में शरणार्थियों का पेट भरने व नवनिर्मित देश को रोटी खिलाने का भार, तमाम अंतर्राष्ट्रीय समीकरणों के बावजूद भी किसानों पर ही डाला गया। चीन से युद्ध हो या गुजरात का अकाल, तब भी किसानों ने भारत को संभाले रखा।
सर्वविदित है कि हरित क्रांति का सर्वाधिक लाभ भी पंजाब-हरियाणा ने अपनी मेहनत के बलबूते पर पाया, पर अब भी खेत या खेती मुनाफे का सौदा नजर नहीं आ रहा है।
चीन ने सर्वप्रथम खेती पर ध्यान दिया और अपने लोगों का पेट भरने के बाद औद्योगिकरण व बाजार की व्यवस्थाओं में पहचान बनाई। उन्होंने भूखमरी व बेरोजगारी के लिए बहानेबाजी की जगह उत्पादन कार्य को विकसित किया और विश्व की ताकत बन बैठा।
सन् 1990 के बाद से वर्ल्ड बैंक और आई.एम.एफ. ने अपने ऋणी देशों को बताया कि किस प्रकार से कृषि को भी मुनाफे का सौदा बनाया जा सकता है। भारत जैसे समाजवादी देश को डब्ल्यू.टी.ओ. एवं डंकल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के पश्चात् अपना रूख बदलना पड़ा।
खाद्य सुरक्षा, गरीबी हटाओ इत्यादि नारे अभी हाल ही की बात है। बड़े-बड़े कृषि विद्वानों ने विचार-विमर्श किया कि किस प्रकार कृषि को लाभकारी व्यवसाय में तब्दील किया जायें। पूंजीवाद ने उत्तर दिया कि मेरी शरण में में आ जाओ। जो नए नौकरशाह आए उन्होंने नये सिरे से अमरीकी खेती का मॉडल हिन्दुस्तान में रौपना शुरू किया और आठ सुझाव दिये..
- ए.पी.एम.सी
- बड़े स्तर पर कॉरपोरेट इन्वेस्टमेंट हेतु भूमि अधिग्रहण
- औद्योगिक कृषि हेतु कृषि सुधार कानून
- आधुनिक खेती के संसाधन
- जैनेटिक बीज
- आपूर्ति व मांग प्रबंधन
- कमोडिटि ट्रेडिंग
- कृषि का यांत्रिकरण
गांव में खेत जोत रहा ‘‘किसान’’ न तो कमोडिटी ट्रेडिंग जानता है न आधुनिक कृषि के संसाधन जुटा पाने की क्षमता रखता है। मौजूदा व्यवस्था में वह अपनी फसल किसी तरह उचित मूल्य पर बेच सके यही संघर्ष चल रहा है।
दसवी पंचवर्षीय योजना ने किसानों की तकदीर लिखनी शुरू की, उसी के साथ-साथ भारतीय राजनीति भी रंग बदलने लगी। पुराने सेवक धीमी गति से नई आर्थिक नीति को लागू कर रहे थे। कॉरपोरेट जगत को तेज गति से नए सुधार चाहिए थे इसलिए उन्होंने एक नया प्रधान सेवक भारत की व्यवस्था में स्थापित किया।
प्रधानसेवक व उसकी मंडली ने चरणबद्ध साजिशें आरंभ की, कभी धर्म का नशा करवाया गया और बाँटा गया, तो कभी अंध राष्ट्रीयता की अफीम सुंघाई गयी। जब सब अफीम के नशे में झूम रहे थे तो इंटरनेट ने लगातार यह नशा वाट्सअप और फेसबुक जैसी ऐप के माध्यम से बरकरार रखा। हम देख ही नए पाये संसद की ओर कि किस तरह से सी.ए.ए. और एन.आर.सी. आ गए और अब तीन फार्म एक्ट किसानो ंको प्रभावित करने के लिए पास किए गए।
हाल ही में जो कुछ हुआ है वो हमारी संघीय लोकतांत्रिक प्रणाली पर भी अनेक प्रश्न खड़े कर देता हैं। संविधान में संघीय स्वरूप है जबकि व्यवहार में केन्द्रीकृत व्यवस्था स्थापित की जा रही है। जो संघीय स्वरूप को बदलने की कोशिश के रूप में सामने आ रही है। लोकतंत्र में जो काम मीडिया को करना चाहिए उसे विद्यार्थियों, महिलाओं, किसानों और आम लोगों ने किया। ‘काम क्या है-शासक वर्ग से सवाल पूछना।’
मानिए एक किसान के तीन बेटे है। किसान की मृत्यु के बाद संयुक्त परिवार खण्डित हो जाता है। सहकारी खेती कोई अपनाना नहीं चाहता, इसलिए कॉरपोरेट ने संविदा खेती का नया फॉर्मूला जमीन पर उतार दिया। संविदा खेती में एक किसान अपनी फसल लेकर किसी कंपनी से कॉन्टेक्ट करता है और कंपनी उसकी फसल को किसी भी बहाने से नहीं खरीदती। वो शासन के दरवाजे खटखटाता है लेकिन उसको न्याय नहीं मिलता और वह बर्बाद हो जाता है। उसकी जमीन जाएगी कहांँ? जाहिर है कंपनी के पास।
किसान क्रेडिट कार्ड ने भी जमीन छीनों का दरवाजा खोल दिया है। अनेकों दलितों व गरीबों की जमीनें किसान क्रेडिट के कर्जे के कारण बैंकों ने बड़े जमीदारों ने अथवा कंपनियों को नामान्तरित कर दिया। प्रत्येक खेल किसान की जमीन छीनने का छद्म षडय़ंत्र है। जिन लोगों ने वर्तमान नव उपनिवेशिक गुलामी और उनके एजेंडों की चाल को समझ लिया, हमारा शासक उन्हें कहीं अर्बन नक्सल कहता है तो कहीं राष्ट्रद्रोही, खालिस्तानी, आंतकवादी कहकर बदनाम करता है। जेल के दरवाजे उनका स्वागत करने के लिए खोल दिए जाते है।
वर्तमान किसान आन्दोलन हमारी राष्ट्रीय शर्म का विषय है। क्यों किसानों को सडक़ों पर उतरना पड़ा, क्यों किसानों और मेहनतकशों, नौजवानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है? उसका बड़ा कारण यह है कि भारत की बहुसंख्यक जनता को हिन्दु-मुसलमान या जातियों में बांट कर आपस में लडऩे के लिए छोड़ दिया जाता है और कॉरपोरेट पूंजीवाद प्राकृतिक साधनों व उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके आम आवाम को बहार खदेड़ रहा है। लाखों लोग बेबसी के शिकार हो रहे है।
ये सारे हालात हमारे खौफनाक भविष्य की तरफ सोचने के लिए क्या मजबूर नहीं करते? राष्ट्रवादियों और धर्मावलम्बियों को भली-भांती समझ लेना चाहिए कि शर्तुमुर्ग की तरह अपनी आँख और गर्दन को मिट्टी में दबा लेने से खतरा खत्म नहीं हो जाता। शासक वर्ग चाहे कितनी भी चालें चले एक दिन ये भूख और परेशानी आम आवाम को एक साथ खड़ा कर देगी और छद्म राष्ट्रवाद और अंध धार्मिकता से शासक वर्ग बच नहीं सकता।
(लेखिका देश के प्रमुख हिन्दी अखबार”लोकमत” की प्रधान संपादक हैं, यह उनके निजी विचार हैं)