वरुण चौधरी 'अंतरिक्ष'
बारिश की हर बूंद एक कहानी बयां करती है
हर बार वो बेफ्रिक खुद ही में डूब कर मरती है
दफ्र हो जाती है मिट्टïी से सराबोर करने को
घटाओं की तलाश दरिया बनकर बहती है
हर बार वो बेफ्रिक खुद ही में डूब कर मरती है
गेसुओं के झटके से रूखसार भिगोने वाली
रिमक्षिम फुहार में अल्हड़ नाचती हुई डाली
इंद्रधनुष की छटा क्यारी में बिखरती है
बेरंग सी बूे कलियों में सतरंगी भारती है
हर बार वो बेफिक्र खुद में डूब कर मरती है
आंसुओ में टूटी छत से टपकती हुआ पानी
मदमस्त झूमती कागज की कश्ती निराली
सूखे खेत में गिरी बूंद आंखों में चमकती है
बीजे के आगोश में नयी जिंदगी लिखती है
आंगन में मधुर संगीत की तरह बरसती है
भीगी हुई रूह से पहलको पर ढुलकी है
धुंध धुल देती है पर साथ नहीं रुकती है
वो बूं किसी तन्हाई का अहसास लिखती है
हर बार वो बेफिक्र खुद ही में डूबकर मरती है