देवेंद्र आर्य
कल देश के पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ने कुछ बातें दीवार पर लिखी हैं। क्या हम अपने व्यक्तिगत , मनोगत और विचारधारात्मक आग्रहों , दुराग्रहों और दुनिया के मजदूरों एक हो अथवा हिन्दू पाकिस्तान नीत विश्व गुरु वाले हसीन काल्पनिक सपनों से उबर कर मतदाताओं के निर्णय-रुझान को समझने की कोशिश करेंगे ?
वाम का सूपड़ा बंगाल में साफ़ हो गया मगर उसने लाल बंगाल को नारंगी बनाने के अभियान को शिकस्त दी है, यह कह कर वाम नेतृत्व अपना घाव भले सहलाले पर हक़ीक़त यह है कि उनकी भारतीय प्रासंगिकता लगतार गहरे प्रश्नांकित हो रही है।
एक ही लाल के तीन तीसमार झंड़ों की जे एन यू वादी बौद्धिक बयान आधारित राजनीति का अब कोई सर्वसुलभ भाष्य सामने आना चाहिए या फिर वाम को स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसके अपने बूते कुछ नहीं होने वाला।
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उसकी हैसियत शामिल बाजा से अधिक की नहीं है । आप कामरेड विजयन का नाम लेकर मुझे ग़लत ठहराने की जगह उनको फालो करिए तो अपनी स्थिति में कुछ सुधार ला सकते हैं । याद करिए वहां की महिला स्वास्थ्य मंत्री को जो राह चलते इलाज करवाती थी ।
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यही हाल कांग्रेस का है । वाम और कांग्रेस ने बंगाल के चुनाव को त्रिकोणीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । वह तो बंगाल की जनता ने इन दोनों को ओवैसी की औकात पर रखते हुए ममता का खेला बिगाड़ने की सारी चालें परास्त करके कड़ा सबक़ सिखाया कि मतदाता ज़रूरत पड़ने पर सबसे बड़ा रणनीतिकार होता है ।
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असम का संदेश साफ़ है कि वहां विदेशी घुसपैठियों का मामला पार्टियों के चुनावी हितों से कहीं बड़ा और महत्वपूर्ण है । एन आर सी और एन सी सी जैसी शब्दावलियों का जो भी भाष्य सरकार और विपक्ष प्रस्तुत करता रहा है और उसके पीछे राजनीतिक दलों की जो भी मंशा मीडिया माध्यमों द्वारा हम तक पहुंचाई जा रही है, स्थिति की सच्चाई उतनी ही नहीं है।
असम की स्थानीय जनता ने यह रेफरेंडम ज़रूर दे दिया है कि राजनीति को छोड़कर हम प्रदेश और देश के हित में विदेशी घुसपैठ से उत्पन्न गम्भीर समस्या को समझें और सुलझाएं । विदेश नीति, मानवता, वर्तमान क़ानून और संसाधनों की उपलब्धता , इसको ध्यान में रखकर ही कोई नीति बने, भले वह लोकलुभावन न हो ।
इस चुनाव के बाद असफलता का ठीकरा ई वी एम पर फूटता नहीं दिखा । मतलब ? चुनाव सुधार की बुनियादी शुरुआत के लिए यह शुभ संकेत हो सकता है ।
भाषा की नहीं भंगिमा की शुचिता के संदर्भ में भी बंगाल के मतदाताओं ने अपना निर्णय स्पष्ट कर दिया है । ‘दीदी’ और ‘ओ दीदी’ के पीछे छिपी मंशा का फ़र्क उतना ही साफ़ है जितना ‘राम राम’ और ‘जय श्रीराम’ के सम्बोधन के पीछे रहा है । याद रखिए , 2014 के बाद चुनाव में भाषा और भंगिमा के राजनीतिक प्रयोग अब तक भाजपा के ही पक्ष में जाते रहे हैं । परन्तु अबकी ?
कांग्रेस और सीधे कहिए राहुल ने फिर एकबार साबित किया कि वह बकलोल रणनीतिकार हैं । 2024 के लिए उनसे जुड़ी जनाकांछा को जबरदस्त धक्का पहुंचा है । पढ़ा लिखा, अंग्रेजी बूकने वाला, समझदार और ईमानदार होना आपके बड़े सियासतदां होने की गारंटी नहीं हो सकता ।
याद कीजिए चुप्पा मनमोहन का एक वाक्य जो राहुल ही नहीं पूरी कांग्रेस के 6 सालों के सारे बयानों को पसंगे पर रखकर सही साबित हो रहा है – मोदी की जीत एक डिजास्टर होगा।
लम्पटी भाव मुद्राओं से बाहर निकलते राहुल ने अपना सियासी अज्ञान और रणनीतिक अक्षमता को फिर दुहराया है। अब विपक्ष को अपना कैमरा किसी और ऐंगल पर सेट करना होगा। फिलहाल इतना ही । पांचों राज्यों के साथ देश की जनता को कोरोना से शीघ्र मुक्ति मिले .