राजेन्द्र कुमार
लखनऊ. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजों से राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार बनने का रास्ता साफ हो गया है. विपक्षी पार्टियों के लिए ये नतीजे सदमा पहुंचाने वाले तो हैं ही. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की तो इन नतीजों ने बोलती ही बंद कर दी है, और यह बता दिया है कि यूपी में मोदी योगी की जोड़ी ने राज्य में बसपा के पांव पूरी तरह से उखाड़ दिए हैं. जिसके कारण बसपा की सीटें और वोट बैंक दोनों ही घट गए हैं. यहीं नहीं वर्ष 1989 के बाद इस विधानसभा चुनावों में बसपा की नुमाइंदगी सबसे काम होगी.
हालांकि बसपा मुखिया मायावती लगातार यह दावा कर रही थीं कि राज्य में वह सरकार बनाएंगी. बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा भी इसी तरह के दावे कर रहे थे. बसपा के इन दोनों प्रमुख नेताओं का दावा था कि वह ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित समाज के बल पर भाजपा की बढ़त रोकने में सफल होंगे. अपनी इस मंशा को पूरा करने के मायावती ने 86 मुसलमानों को, 70 ब्राह्मणों को और 65 जाटवों को टिकट दिए थे. इन तीनों सामाजिक समूहों को सबसे ज्यादा टिकट बसपा ने ही दिए. इसके अलावा मायावती ने 114 टिकट ओबीसी को दिए. जिनमें कुर्मियों को 24, यादवों को 18 और मौर्य-कुशवाहा को 17 टिकट मिले. टिकटों का यह बंटवारा बताता है कि पार्टी की विचारधारा, संगठन के ढांचे और राजनीतिक दृष्टि के मुताबिक ही मायावती ने यह कार्य किया, लेकिन पार्टी में लोकप्रिय नेताओं का अभाव और सबसे सुस्त प्रचार अभियान के कारण बसपा पर लोगों ने विश्वास नहीं किया. तमाम चुनावी सर्वे में भी बसपा को सबसे कम सीटें मिलती दिखीं और असली नतीजों ने आज यह बता दिया कि सीटें जीतने के मामले में बसपा अब अपना दल से भी पीछे हो गई है.
खबर लिखे जाने तक बसपा मात्र एक सीट पर ही अभी आगे है और उसे 12.7 फीसदी वोट मिले हैं. जबकि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में बसपा को 19 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और 22 प्रतिशत वोट मिले थे. इसके बाद वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी से अप्रत्याशित गठबंधन किया लेकिन प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा और जल्द ही गठबंधन टूट भी गया. ऐसे में इस बार बसपा ने विधानसभा चुनाव अकेले ही लड़ा, लेकिन मायावती पार्टी के समर्थकों को लुभा नहीं सकीं. ऐसे में जिस तरह से वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव और वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के मतदाताओं का झुकाव भाजपा की तरफ रहा था उसी तरह से इस बार भी बसपा के वोटर भाजपा के साथ खड़े हो गया. परिणाम स्वरूप बसपा के हाथी के पैर जमीन से उखड़ गए.
हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने चुनाव प्रचार के दौरान मायावती को लेकर बयान दिया था कि बसपा प्रमुख मायावती ने अपनी प्रासंगिकता नहीं खोई है, लेकिन उनका यह बयान राजनीतिक था. क्योंकि पूरे चुनाव में यूपी का चुनावी माहौल बीजेपी बनाम सपा ही दिख रहा था. राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति को एक नया मुकाम देने वाली बसपा अपने ही गढ़ यूपी में मुकाबले से बाहर दिखी.
यूपी में चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही यह सवाल उठने शुरू हो गए कि बसपा कहां? इसके बाद भी मायावती ने पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू करने में देर की. राज्य में चुनावों का ऐलान होने के पहले बसपा ने कभी भी ऐसी सुस्ती नहीं दिखाई थी. मायावती बेशक बीच-बीच में चुनावी सभा के जरिए अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहीं लेकिन वह अपने पुराने तेवर में नहीं दिखीं. मात्र 18 चुनावी जनसभाओं को उन्होंने संबोधित किया. ऐसे में यह सोचने की बात है कि क्या इतनी कम चुनावी सभाएं कर कोई अपने प्रत्याशी की जीत को सुनिश्चित कर सकता है. जबकि भाजपा के प्रत्याशियों को जिताने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 रैलियां और रोडशो किये, मुख्यमंत्री ने दो सौ से अधिक जनसभाएं और रोड शो किया और अमित शाह ने 61 चुनावी रैली की. भाजपा के ऐसे प्रयास से यूपी में हाथी की चिहाड़ कमजोर पड़ गई. भाजपा ने बसपा के वोट बैंक को अपनी तरफ कर लिया. ऐसे में अब कहा जा रहा है कि वर्ष 1984 में सूबे की राजनीति में धीरे से कदम रखने वाले हाथी के लिए निश्चित ही यह रणनीति की मीमांसा का समय है.
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