डॉ मनीष जैसल
पिछले वर्षों में मतदाताओं ने देश के नाम वोट देने के साथ केंद्र की सत्ता में परिवर्तन किया है। धीरे धीरे उसका प्रतिफल भी दिखने लगा है। बिहार चुनाव को क़रीब से देखें तो पता चलेगा कि अब चुनावी मुद्दे भी बदलने लगे हैं।
शुरुआती दौर में कश्मीर में प्लॉट ख़रीदने जैसे बयान सुनाई दिए उसके बाद की रैलियों में शिक्षा, रोज़गार, खेती किसानी, सिंचाई आदि मूलभूत ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान दिया जाने लगा है।
उम्मीदवारों के समर्थन में तेजस्वी लगातार मज़दूर और किसान एकता के नारों को दोहरा रहे हैं। उम्मीद हैं इस बार का बिहार चुनाव एक नई कहानी लिखेगा, जिसमें शिक्षा और रोज़गार के साथ मज़दूरों गरींबों के हक़ पर कुछ नए और बड़े फ़ैसले लिए जाएँगे।
एक नए बिहार को देखने का सपना करोड़ों बिहारी के साथ अन्य राज्यों के नागरिकों को भी है, चूँकि बढ़ती जनसंख्या के नाते अन्य राज्य अपने आप को यह कहकर किनारे कर लेते हैं कि राज्य की जनसंख्या ज़्यादा है। उम्मीद है बिहार आगामी वर्षों में देश के लिए मिशाल बनेगा।
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रैलियों में आ रही भीड़ इस बात का सबूत बिलकुल नही है कि महागठबँधन जीत रही हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर जिस तरह रैली को कवर करते हुए कंटेंट दिख रहा है वह भविष्य के लिए सुखद ज़रूर है। अजीत अंजुम से लेकर कई छोटे बड़े पत्रकार लगातार फ़्रीलांस रिपोर्टिंग करते हुए बिहार को अन्य राज्यों से जोड़ रहे हैं। सूचनाएँ पहुँचा रहे हैं जो आज के पेड मीडिया वाले समय में सबसे ज़रूरी है।
पिछले कुछ चुनाव को अगर आपने टीवी की नज़र से देखा है तो इस बार आपको सोशल मीडिया पर रहते हुए देखना चाहिए। चूँकि टीवी न्यूज़ चैनलों पर वो कंटेंट नही हैं जो आपको ग्राउंड लेवल पर आपको यहाँ दिखेगा। बिहार के सभी विधानसभा क्षेत्रों में अलग अलग छोटे मीडिया समूह जनता के मन को टटोल कर सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं। द बिहार मेल, अजित अंजुम का यूट्यूब चैनल, वेद प्रकाश का चैनल द एक्टिविस्ट आदि को ग़ौर से देखिए तो बिहार का मिज़ाज आपको ज़रूर दिखेगा।
बिहार चुनाव 2020 कई सत्ता दलों के वास्तविक चरित्र को खोखला करने का काम भी कर रहा है। दलबदलू राजनीति, मिलावटी व खिचड़ी सरकार, और परिवारवाद के लिए अलग पहचान रखने वाले बिहार के लिए यह संभवत: आख़िरी मौक़ा होगा।
अगर जनादेश नही मिलता तब आगे की राजनीति में विपक्ष की भूमिका पूरी तरह ख़त्म खोने के पूर्ण आसार हैं। क्योंकि यूपी में जो गठबंधन विधानसभा चुनावों में देखा उसे ज़मीन पर देखना हो तो उपचुनाव में देख सकते हैं। सपा बसपा दोनों अलग अलग चुनावी मैदान में हैं। ऐसे में बिहार का क्या हाल होगा यह आने वाला वक़्त बताएगा।
बिहार की राजनीति में यह अहम चुनाव इसलिए भी हैं क्योंकि युवाओं को लेकर जिस आक्रामकता से रैलियों में बातचीत हो रही है, रोज़गार की बात हो रही है, व्यावसाय की बात हो रही है वह बिहार के संदर्भ में जेपी के आंदोलन के बाद शायद ही सुनी गई हो। विपक्ष का एकजुट होकर बिहार में चुनावी रण को जीतना विपक्ष होने के मायने को बचाने के लिए भी ज़रूरी मालूम देता है।
नई सदी का नया बिहार बने इसी क्रम में एनडीए और महागठबंधन चुनावी रण में उतरे हैं। जहाँ एक ओर हिंदुत्व वाली सरकार है तो दूसरी ओर लालटेन की रोशनी से प्रदेश को जगमग करने का संकल्प ले चुके तेजस्वी और उनके ख़ुद को ईश्वर के काफ़ी मुरीद मनाने वाले बाद भाई तेज़ प्रताप।
हाल फ़िलहाल की रैलियों में जिस तरह शंख नाद करते हुए तेज़ प्रताप दिख रहे हैं ऐसे में बिहार में ख़ासकर बीजेपी को हिंदुत्व की राजनीति करने में मुश्किलें पैदा कर सकता है। इंतज़ार कीजिए 10 नवम्बर का। चूँकि इस दिवाली बिहार के भविष्य का फ़ैसला होना है। अंधकार रूपी स्थिति से कौन लाएगा बाहर बिहार को, इसका सभी को इंतज़ार है।
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(लेखक मंदसौर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर हैं)