Monday - 28 October 2024 - 10:15 AM

एक चुनाव खत्म हुआ, दूसरे की तैयारी शुरू

रतन मणि लाल

उत्तर प्रदेश में एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के समय में की जाने वाली गतिविधि को सरकार चलाना कहा जाता है. यह स्थिति कोई इसी प्रदेश में हो ऐसा भी नहीं है. लगभग सभी राज्य ऐसे ही कैलेंडर से बंधे हुए हैं, लेकिन चुनाव का जितना महत्त्व उत्तर प्रदेश के राजनीतिक व प्रशसनिक वातावरण पर है उतना शायद किसी और प्रदेश में देखने को मिलता होगा.

2012 के मार्च में विधान सभा के चुनाव के बाद अखिलेश यादव के नेतृत्त्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी, और एक साल बाद ही सभी दल 2014 के लोक सभा चुनाव में जुट गए. उन योजनाओं पर काम तेज किया गया जिन्हें चुनाव की आचार संहिता लगने से पहले ही शुरू किया जाना था, और स्वयं सत्ताधारी दल के नेता भी यही कहते पाए जाते थे कि कुछ योजनाएं जल्द से जल्द शुरू कर दी जानी हैं जिससे यह बात प्रचार का हिस्सा बन सकें. लखनऊ की मेट्रो और लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे इसी तरह आधी-अधूरी शुरू कर दी गईं.

फिर मई 2014 में लोक सभा का चुनाव हुआ, नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बने, भारतीय जनता पार्टी का वर्चस्व बढ़ा, और प्रदेश में सपा और बहुजन समाज पार्टी नए जोश से 2017 के विधान सभा चुनाव की तैयारी में जुट गए. प्रदेश में सत्ताधारी सपा और कांग्रेस ने गठबंधन किया, भाजपा और बसपा अलग रहे, और नतीजों में भाजपा को जबरदस्त जीत मिली.

अखिलेश ने यह कहते हुए हार स्वीकारी कि वे लोगों तक अपने काम की चर्चा पहुंचा नहीं पाए. योगी आदित्यनाथ ने मुख्य मंत्री का पद संभाला, काम शुरू किया और फिर एक साल होते होते वे भी 2019 के लोक सभा चुनाव की लय में आ गए. उन्हें पार्टी ने देश में अपना विशिष्ट प्रचारक बनाया और उन्होंने प्रदेश की चिंता छोड़, अपने राष्ट्रीय दायित्व को बखूबी संभाला.

अब लोक सभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं. भाजपा का वर्चस्व और बढ़ा है, सपा और बसपा ने एक साथ मिल कर चुनाव लड़ा और अब पूरी उम्मीद है की आगे के चुनाव अलग अलग लड़ेंगे. और मई में नतीजे निकलने का एक महीना भी न बीता है कि सभी दल आने वाले 2022 के विधान सभा चुनाव के तैयारियां करने में जुटने जा रहे हैं. सपा, बसपा और कांग्रेस ने ऐलान भी कर दिया है कि वे अपने कार्यकर्ताओं को आगामी चुनाव के लिए तन मन से तैयार करने के लिए काम शुरू कर रहे हैं.

वाकई, हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं की क्षमता जबरदस्त है, उनका राजनीति के प्रति लगाव अप्रत्याशित है. ऐसा लगाव किसी वैज्ञानिक का विज्ञान के प्रति या कलाकार का कला के प्रति, या संगीतकार का संगीत के प्रति ही देखने को मिल सकता है.

यह भी पढे : क्यों ऐसी घटनाएं हो जाती हैं मंत्री जी !

जहां वैज्ञानिक, कलाकार या संगीतकार कुछ न कुछ रचनात्मक करने में या प्रयोग करने में लगे रहते हैं, और लोगों को कुछ नया देने में सफल भी होते रहते हैं, वहीँ राजनीतिक लोग बस तैयारी करने में लगे रहते हैं. यदि जीत हुई तो उनकी तो जिंदगी ही बन गई, और फिर उसके बाद उस मुकाम पर बने रहने की मुहीम शुरू हो जाती है. नहीं जीते, तो अगले की तैयारी में लग जाते हैं. उनकी ओर से कुछ रचनात्मक या प्रयोगात्मक उपलब्धि का तो कोई सवाल ही नहीं उठता – उनके लिए राजनीति कुछ बनाने या करने के लिए नहीं, बल्कि अपने को संवारने के लिए की जाती है.

उनकी इस मुहीम में पूरी तरह से साथ देते हैं हमारे प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी, अन्य सरकारी अधिकारी व कर्मचारी. वे पीछे बीते चुनाव के समय से ही माहौल बनाने में लगे रहते हैं कि नेताजी यदि जीत गए तो जय हो, अन्यथा उन्हें अगले चुनाव में सफलता पाने के नए नुस्खे तो बताने के लिए हैं ही.

उत्तर प्रदेश के तमाम दलों के नेता अभी से जिलों में जातिगत समीकरणों को नए सिरे से परिभाषित करने में लग गए हैं. आजकल उनसे मिलिए, तो ज्ञान मिलता है कि कैसे उस जिले में अमुक जाति ने उस दल का साथ दिया, और इस जाति ने अपना वोट ट्रांसफर कर दिया (जैसे वोट ट्रांसफर न हुआ कोई कूरियर सर्विस हो गई.) और इन्ही जानकारियों के आधार पर अगले एक साल में किये जाने वाली गतिविधियों का कैलेंडर बनना शुरू होगा.

सुनने में आया भी है कि दो बड़े दलों के युवा नेता प्रदेश (या देश) की व्यापक यात्रा पर निकल सकते हैं, जिसके दौरान वे लोगों से मिल कर अपनी पार्टी की खूबियों के बारे में बताएँगे, और वर्तमान सत्ताधारी दल की कमियों की ओर ध्यान आकर्षित करेंगे.

याद आता है कि कुछ साल पहले सोशल मीडिया पर एक खबर प्रचलित हुई थी, जिसमे देश के एक बड़े नेता के बारे में कहा गया था कि उन्होंने चार साल देश में काम किया है, और एक साल तक राजनीति करेंगे, जिसके बाद चुनाव होंगे और वे जीतेंगे.

यह भी पढे : यह मौत उस मौत से ज्यादा दर्द देती है मुझे

एक सिद्धांत के तौर पर, चार साल तक काम करके, एक साल आगामी चुनाव की तैयारी करना तो फिर भी ठीक है, लेकिन एक साल काम करके, तीन साल चुनाव की की तैयारी में  राजनीति करना हमारे चुनावी लोकतंत्र का एक नया आयाम है. इससे सरकारी काम हो या न हो, राजनीतिक दलों के नेताओं को व्यस्त रहने का मौका खूब मिल जाता है. उनसे मिलना संभव नहीं होता क्योंकि वे क्षेत्र में या गाँव में या जातीय/सामाजिक संगठनों से मिलने में व्यस्त होते हैं क्योंकि आने वाले चुनाव की तैयारी करनी है.

कोई बड़ा काम जल्दी नहीं हो पाता, क्योंकि उस काम से आगामी चुनाव पर पड़ने वाले असर के बारे में सोचना जरूरी होता है. सरकारी अधिकारी लोगों की मदद करने में असमर्थ होते हैं क्योंकि मंत्री जी या सांसद/विधायक की सम्मति आसानी से नहीं मिलती.

और सरकारें ऐसे ही चलती रहती हैं. बड़ी बात यह है कि चुनावी लोकतंत्र मजबूत बना रहता है, हमारी समझदार जनता अपने मतदान के अधिकार का समझदारी से प्रयोग करती रहती है. लोकतंत्र में हमारी आस्था बनी रहती है. आम लोग भी सरकारों के काम या उपलब्धियों का कुछ ख्याल रखते हैं, और वादे पूरी तरह से पूरे हो या न हों, अगला मौका देने या न देने में कोई कोताही नहीं करते.

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com