अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले इतवार की बात है। घाट से लौटकर होटल में घुसा तो रिसेप्शन पर भारी भीड़ लगी हुई थी। चेन्नई सुपर किंग्स और मुंबई इंडियन्स के बीच दो गेंदों की आखिरी बाज़ी बची थी। मुकेशभाई की घरवाली हाथ से कटोरी बनाकर मुंह ढंके हुए थीं। सचिन तेंदुलकर की आंखें चौड़ी थीं। एक गेंद निकली। अब आखिरी गेंद पर दो रन चाहिए थे। गेंदबाज़ के घुंघराले बाल देखकर मेरे मुंह से अनायास निकला- मलिंगा! और सुनते ही मलिंगा ने यॉर्कर मार दिया। खेल खत्म। मुंबई इंडियन्स जीत गई। अगली शाम अस्सी चौराहे पर पता चला कि कई बनारसियों का चेन्नई पर लगाया पैसा डूब गया था। हां, जान बच गई थी। इस जीत को देखने के लिए हालांकि लड्डू जिंदा नहीं थे।
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जिस सुबह मैं बनारस पहुंचा, उसके एक दिन पहले लक्सा के रहने वाले दीपक गुप्ता उर्फ लड्डू ने अपने तीन बच्चों के साथ ज़हर खाकर जान दे दी थी। लड्डू ठेले पर कपड़ा बेचते थे और आइपीएल में सट्टा लगाते थे। कर्ज में डूब गए थे। तीन बच्चों को लेकर ऐन चुनाव और आइपीएल के बीचोबीच निकल लिए। बनारस के अखबारों के तीसरे पन्ने पर बड़ी-बड़ी खबर छपी थी लेकिन अडि़यों पर इसकी चर्चा नगण्य थी। बनारस में किसी का मरना कोई घटना नहीं है। यहां लोग मरने के लिए ही आते हैं। लड्डू को मोक्ष मिल गया होगा, यही सोचकर बेरोजगार नौजवान अपनी मौत का सट्टा लगाने में बेपरवाह जुटे रहे।
रोहनिया में शूलटंकेश्वर पर इतवार की शाम पांच बजे के आसपास तीन युवा बहुत तेज़ी में मोटरसाइकिल लेकर मिठाई की दुकान पर आए। वे सट्टा खेलने जा रहे थे। गोदौलिया पर रात नौ बजे गिरजाघर के सामने फोन पर सट्टा लग रहा था। क्या गांव क्या शहर, सब जगह नौजवान 12 मई तक सट्टा लगाते रहे। अगले दिन से चुनावी सट्टा शुरू हो गया। कांग्रेस एक का दस पर चल रही है। भाजपा का सट्टा बाजार में भाव दस गुना ज्यादा है। सट्टेबाजों ने भाजपा की 250 और एनडीए की 300 के आसपास सीटें मान रखी हैं। भाजपा भी बार-बार 300 कह कर अपना भाव बढ़ा रही है। एक के बाद एक सट्टे का सीज़न युवाओं को व्यस्त रखे हुए है। ‘’आएगा तो मोदी ही’’ मानकर चलने वाले प्रचार करने की जगह पैसा बनाने में जुटे हैं।
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यहां पैसा बनाने के कई तरीके हैं। सट्टेबाज़ी में जान जा सकती है, ऐसा सोचकर कुछ समझदार लोग राजनीतिक सट्टा खेल रहे हैं। यह सेफ़ है। जान का खतरा नहीं है इसमें।
ग़ाज़ीपुर में एक छोटे नेताजी ने अपने बड़े नेताजी की जनसभा रखवायी जो चुनाव लड़ रहे थे। कारिंदे के सात-आठ हजार रुपये खर्च हुए। जाते-जाते प्रत्याशी ने कारिंदे को तीन हजार पकड़ा दिए। उसके मुंह से गालियां झरने लगीं। किसी ने सलाह दी कि दूसरे प्रत्याशी के पास बहुत पैसा है, यहां क्यों टाइम खोटा करते हो। छोटे नेताजी शहर पहुंचे और दूसरे प्रत्याशी के आगे साष्टांग दंडवत् हो गए। वे और बड़े नेता थे। जितना बड़ा नेता, उतनी बड़ी बख्शीश। तुरंत जेब में बीस हजार खोंस दिए। छोटा नेता क्षण भर में बिक गया। राजनीतिक सट्टा इसे कहते हैं। यहां पाला बदलने के लिए बस इस बात का अहसास होना चाहिए कि कौन सा प्रत्याशी कितना खर्च कर रहा है।
छठवें चुनाव का मतदान 12 मई को संपन्न हुआ। भदोही के यादव रमाकांत यादव के लिए प्रचार कर रहे थे। खर्चे पानी की कोई कमी नहीं की गई थी। वोट के दिन सब जाकर रंगनाथ मिश्र पर बटन दबा आए। एक तरीका यह भी है सट्टेबाजी का, जहां पाला बिना बदले ही खेल कर दिया जाता है। एक हाथ लेता है तो दूसरे को पता तक नहीं होता। ऐसे सट्टेबाज़ कभी खुद नहीं मरते। कभी ज़हर नहीं खाते। बात खुलने पर निपटा दिए जाते हैं।
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प्रियंका गांधी का रोड शो होने वाला था। अस्सी पर खचाखच भीड़ थी। फुल वाल्युम में गाना बज रहा था, ‘’सीधे पंजा का बटन दबाना है, अजय भइया को जिताना है‘’। पोई की अड़ी के बाहर मूंछ ऐंठे एक भक्त उकड़ूं बैठा था। गाना सुनकर उससे रहा नहीं गया। डीजे के बीच में वह ‘’मोदी मोदी’’ चिल्ला उठा। बगल में खड़े एक बुजुर्ग ने समझाया कि मौके की नजाकत देखकर काम किया करो। अभी मोदी जाप का सही वक्त नहीं है। पट्ठा तुरंत समझ गया। जैसे ही डीजे अगली बार बजा, उसने दोनों हाथ उठाकर कहा- राहुल गांधी जिंदाबाद। ऐसी प्रजाति को फ्रीलांसर सटोरिया कहते हैं। इसे पैसे नहीं चाहिए, बस अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार के प्रयोग की आजादी चाहिए। चाहे किसी का भी जिंदाबाद लगाना पड़े।
उसी भीड़ के बीच में दिख गए डॉ. गया सिंह। पास पहुंच कर मैंने प्रणाम किया। उनके साथ उनका नाती भी था। वह कांग्रेसी टोपी पहने हुए था। मैंने पूछा- गुरुजी, नतिया कांग्रेसी टोपी काहे पहिनले हव? पूर्ण सहजता से उन्होंने जवाब दिया- पिछली बार मोदी क पहिनले रहे। उनकी यह बात सही हो सकती है, बशर्ते नाती की उम्र पांच साल से ज्यादा की रही हो।
चलते-चलते मैंने उनसे बनारस पर राय मांगी। वे अचानक ठहर गए। नाती हुज्जत कर रहा था- नाना, चलिए चलिए। उन्होंने उसे प्यार से घुड़का और कहते भये- ‘मिट्टी और पानी आपस में मिल गया है। सब खिल्द-बिल्द हो गया है। एकदम… ‘’, और इतना कहते ही उनके चेहरे पर घृणा का भाव तैर गया जैसे सामने विष्ठा रख दी गई हो। और काफी तेजी से कदम आगे बढ़ाते हुए वे बोले, ‘’धत्… धुत्… चलिए प्रणाम’’।
बरसों से उनकी इस कूट भाषा का अर्थ निकालने की कोशिश कर रहा हूं। समझ में इतना ही आया कि कुल मिलाकर मामला अब चरित्रहीन हो गया है। न चुनाव, चुनाव रह गया है और न खेल, खेल। सब सट्टा है। मिट्टी और पानी से मिलकर बना कीचड़। मुंबई इंडियन जीते चाहे नरेंद्र मोदी, जीत तो मुकेशभाई की ही होनी है। खिलेगा तो कमल ही। आएगा तो…।
( अभिषेक श्रीवास्तव स्वतंत्र पत्रकार हैं , इस लेख में बनारस की स्थानीय बोली का प्रयोग किया गया है )