रिपु सूदन सिंह
भारतीय राजनीति को देखने के दो प्रमुख नजरिए हैं; एक है समग्र दृष्टि और दूसरा है हिस्सों में विभाजित दृष्टि। भारत को लेकर भी दो प्रकार के विद्वान हैं; एक पश्चिमी विद्वान और पश्चिमी विश्लेषण से प्रभावित भारतीय विद्वान। दूसरे हैं भारतीय विद्वान और भारतीय विद्वानों से प्रभावित विदेशी विद्वान। हिस्सों में विभाजित दृष्टि को अंग्रेजों ने बांटो और शासन करो की नीति के माध्यम से आज़ादी के पूर्व अपना रखा था जिसके चलते 1909 मोरले-मिंटो रेफ़ोर्म के जरिये मुस्लिम के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल की व्यवस्था की गयी जो आगे चल कर भारत-विभाजन का कारण बना।
मजहबी-रेलिजस द्वंद के आधार पर दो नेशन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। राष्ट्र-विखंडन के बावजूद उस द्वंद का आज तक अंत नहीं हुआ। आज़ादी के बाद काँग्रेस ने राजनीति का एक नया नरेटिव (अफ़साना) तैयार किया जिसमें विचारधारा का आदर्श और राजनीति की व्यावहारिकता को मिश्रित कर दिया। प्रजातन्त्र एक प्रतिनिधि व्यवस्था होती है जिसमें वोटों की बहुसंख्या सत्ता निर्माण करती है। जहां काँग्रेस ने समाज का समाजवादी प्रतिरूप की बात की वहीं पर जनता को छोटी छोटी इकाइयों में विभक्त कर संख्या के खेल मे ब्राह्मण केन्द्रित सवर्ण, जाटव केन्द्रित दलित और अशरफिया (सवर्ण) केन्द्रित मुस्लिम मतदाता का एक अटूट गठबंधन तैयार किया।
उसके द्वारा अपनाया गया यह फॉर्मूला 1947 से 1989 तक चलता रहा। कहा जाता है जहर को जहर ही काटता है। 1984 में बीएसपी बनाकर कांशीराम ने काँग्रेस के वोट-बैंक मे सेंध लगाई और दलित को काँग्रेस से उत्तर भारत और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में अलग कर डाला।
1985 मे अयोध्या में राम जन्मभूमि का ताला खुलने के बाद से मुस्लिम में काँग्रेस के प्रति गुस्सा और आक्रोश उबला जिसको निष्प्रभावी करने के लिए काँग्रेस ने बुजुर्ग महिला शाहबानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुये 1996 में मुस्लिम महिला एक्ट पारित किया जिसने मध्य-युगीन शरीया-कानून को कायम करके मुस्लिम महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया।
उक्त दोनों घटनाओं का फायदा भाजपा समेत अन्य विपक्षी दलों ने अपने अपने तरीके से खूब उठाया। रही सही कसर 1989 के चुनाव में नेशनल फ्रंट के नेतृत्व में जनता दल के नेता प्रधानमंत्री के रूप में निर्वाचित वीपी सिंह ने मण्डल कमीशन लाकर पूरा कर दिया। राजनीति पर काँग्रेस के वर्चस्व को मण्डल कमीशन ने और भी कमजोर कर डाला। 1984 में दो सीटों पर सिमटी भाजपा 1989 के लोकसभा में 85 सीट पर पहुँच गयी और 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद कल्याण सिंह की सरकार की शहादत देकर भारतीय राजनीति में जोरदार पदार्पण किया। भाजपा ने काँग्रेस के एकतरफा राजनीतिक पकड़ को चुनौती दी और एक नये ध्रुव के रूप में उभरने लगी।
काँग्रेस की ईकाईयों में विभाजित दृष्टि को उत्तर भारत में मुलायम सिंह ने बखूबी समझा और 1992 में सपा बनाकर और 93 में बीएसपी से गठबंधन कर काँग्रेस के बचे मुस्लिम वोट में घुसपैठ कर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। यही काम भारत के अन्य राज्यों में अन्य दलों ने अपनाया जिससे काँग्रेस अनेक राज्यों से बेदखल होकर हाशिये पर पहुँच गयी। काँग्रेस समेत अधिकतर दलों ने जाति-मजहब के गठबंधन का जहां एक फंदा (ट्रेप) बनाया वहीं पर भाजपा ने धर्म की एक लंबी लक्ष्मण रेखा खींच दी। भाजपा ने अपना राष्ट्रवादी-धर्मवादी विकास का नजरिया पेश कर काँग्रेस और शेष दलों के मुस्लिम-तुष्टीकरण की राजनीति को चुनौती दे डाली। बीजेपी की धर्म-केन्द्रित विकास की लंबी रेखा के सामने शेष दलों की जाति-मजहब की पहचान की राजनीति फींकी पड़ने लगी।
ऐसे हालात मे मुस्लिम वोट एक अनार सौ बीमार के मुहावरे को चरितार्थ करने लगा। मुस्लिम सभी दलों की पहली पसंद बन गए। अब मुस्लिम तुष्टीकरण का काम विपक्ष के नेता भी अपने अपने राज्यों में करने लगे जिसके चलते काँग्रेस का जनाधार और भी गर्त में चला गया। दूसरी तरफ भाजपा का ग्राफ बढ़ने लगा। 1989 के बाद जहां भाजपा ने केंद्र मे पाँच बार क्रमश 1996, 1998, 1999, 2014, 2019 में सरकार बनाई वहीं पर उत्तर प्रदेश में 1991, 97, 99, 2017 में सरकार निर्माण का काम किया। 2021 में हुये पश्चिम बंगाल के चुनाव में जहां काँग्रेस और सीपीएम को एक भी सीट नहीं मिली वहीं बीजेपी 3 सीटों से 77 सीटों पर पहुँच गयी। उसकी धर्म-केन्द्रित विकास की लक्ष्मण रेखा भारतीय राजनीति के व्याकरण का एक अभिन्न अंग बन गयी।
2022 में फरवरी-मई के बीच होने वाले उत्तर प्रदेश की विधान सभा के चुनाव की धमक शुरू हो गयी है। दलों के द्वि-ध्रुवीकृत खेमे साफ उभरते नजर आ रहे हैं। यह खेमा सिर्फ राजनीतिक दलों में ही नहीं बल्कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग (इन्टेलजेन्ट्सीअ) के बीच भी उत्पन्न हो गया है। छोटे बड़े दलों के क्षत्रप अपनी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना शुरू कर दिये हैं और अपनी संख्या बल पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं। भारतीय राजनीति दो ध्रुवों मे विभाजित हो गयी है। एक ध्रुव व्यक्ति-परिवार केन्द्रित है, आर्थिक नीतियों मे उदारवादी-समाजवादी है, सेकुलरिस्म की पक्षधर है, जातीय-मजहबी पहचान को लेकर चल रही है, स्वभाव में गैर-भाजपा है और लोक-लुभावन नीतियों का समर्थक और तात्कालिक राजनीतिक लाभ उसके तत्कालिक उद्देश्य हैं। वहीं पर दूसरा ध्रुव राष्ट्रवाद की वकालत करता है, धर्म केन्द्रित है, विकास-केन्द्रित, गैर-परिवारवाद का समर्थक है, आर्थिक नीतियों में निजीकरण और बाज़ार केन्द्रित विकास का पोषक है, पर साथ ही लोक-कल्याणकारी कार्यक्रमों का प्रबल समर्थक है। एक ध्रुव का प्रतिनिधित्व काँग्रेस तो दूसरे का बीजेपी कर रही है। भारतीय राजनीति का तीसरा खेमा इन्हीं दो ध्रुवों के साथ समय समय पर अपनी सुविधानुसार पैतरे बदलता रहा है।
राजनीति के पहले केंद्र में ट्रैन्ज़ैक्शनल लीडर (कारोबारी नेतृत्व) है जो तत्कालिक लाभ को ले कर चलता है और राजनीति में सत्ता-केन्द्रित नीतियाँ, कार्य और व्यवहार को अपनाता है। वह अपने क्लाइअन्ट-मतदाता (असमी या ग्राहक) के प्रति बहुत जागरूक रहता है। वह लोकप्रिय और लोकलुभावन कार्य करता है। वह अपने मतदाताओं को ग्राहक मानता है और उसको खुश करने के सारे प्रयास करता है। वह जाति-मजहब के लोगों का एक नेक्सस (गठजोड़) तैयार कर संख्या के खेल से सत्ता में बना रहता है और अपने लक्षित समूह, जाति और कन्स्टिचूअन्सी (मतदाता वर्ग) के इर्द गिर्द उसको निरंतर तुष्ट (अपीज) करने का काम करता है।
दूसरे केंद्र में ट्रैन्सफॉरमेशनल (परिवर्तनवादी) नेतृत्व है जो सत्ता के साथ साथ व्यवस्था में बदलाव चाहता है। वह लंबे अवधि की नीतियों पर चलता है जिससे यथास्थिति में मूलभूत परिवर्तन आए। वह बहुत लोकलुभावन नहीं होता और अपने गवर्नेंस में लेनदेन और अपने असमी को खुश करने के लिए छोटे छोटे लाभों (फ्रीबीस) को नहीं बाटता। वह गवर्नेंस को कुशलता और उतकृष्टता के चरम बिन्दु तक ले जाता है। उसके लिए साध्य और साधन दोनों ही महत्वपूर्ण होता है। वह एक टफ (कठोर) नेता के रूप मे होता है। पर वह कठोर के साथ साथ बहुत लचीला भी होता है और सत्ता के समीकरण के प्रति बहुत ही यथार्थवादी है।
आगामी उत्तर प्रदेश के चुनाव में जहाँ एक तरफ काँग्रेस व्यवस्था से प्रभावित दल है वहीं पर दूसरी ओर भाजपा दलीय व्यवस्था से जुड़े दल हैं। पीलीभीत की घटना के बाद जिस तरह प्रियंका गांधी ने अपनी सक्रियता दिखाई उसने मुख्य विपक्षी दलों के नेताओं की नींद ही उड़ा डाली। साथ ही असदुद्दीन ओवैसी के प्रदेश में आने से काँग्रेस समेत समूचा विपक्ष रक्षात्मक मुद्रा में आ गया है। इसी सदमे में सपा मुखिया अखिलेश यादव ने मुस्लिम को तुष्ट करने के लिए जिन्ना को राष्ट्रवादी तक घोषित कर दिया।
पीलीभीत की घटना के बाद जहां बीजेपी डैमेज कंट्रोल में लगी वही पर समस्त विपक्ष सरकार के खिलाफ अपनी आक्रामकता को तेज कर दिया है। सत्ता के हवन में आहुती डालने के लिए काँग्रेस के अनेक मुख्यमंत्री तक उत्तर प्रदेश आए। सत्तासीन भाजपा के विरोध में समाजवादी पार्टी अन्य पिछड़ी जातियों को लामबंद करने में लगी है, बीएसपी ब्राह्मण पर केन्द्रित कर रही है और अपनी पुश्तैनी जमीन को पाने के लिए काँग्रेस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दिया है।
काँग्रेस के लिए यह चुनाव 2024 के लोकसभा में अपनी खोयी सत्ता पाने का एकमात्र अवसर है। इसके अलावा अन्य पिछड़ी और उपेक्षित जातियों का एक बड़ा समूह है जो अपने अपने दल बनाकर और जातीय रैलियों का आयोजन कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। देश की सत्ता की चाभी फिलहाल उत्तर प्रदेश के हाथ में ही है।
1984 में बीएसपी के गठन के बाद पहचान की राजनीति की शुरुआत हो गयी। 1995 मे सपा-बसपा गठबंधन के टूटने के बाद अनेक जाति-मजहब केन्द्रित दलों का उभार हुआ जिसके चलते बाद में सपा-बसपा के क्रमश 2007 और 20013 में सरकारें बनीं। अनेक मुद्दों पर दलित और पिछड़ों की कमजोर जातियों के नेताओं का उन सरकारों से इतना मोहभंग हुआ कि वे अपना अपना अपना दल बना कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की रणनीति पर चलने लगे।
भारत में कुल 2301 गैर-मान्यता दल हैं। 198 तो सिम्बल चुनाव आयोग द्वारा जारी किए गए हैं। उत्तर प्रदेश में सात राष्ट्रीय पार्टी और आठ राज्य स्तर की मान्यता प्राप्त दल हैं। सपा और बीएसपी को छोड़ कर शेष सात दल क्रमशः सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी ओमप्रकाश राजभर), अपना दल (सोनेलाल)-अनुप्रिया सिंह पटेल, राष्ट्रीय लोक दल (जयंत चौधरी) निषाध पार्टी (संजय निषाध) महान दल (केशव देव मौर्य), प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (शिवपाल सिंह यादव) और जनसत्ता दल-लोकतान्त्रिक ( अक्षय प्रताप सिंह) इत्यादि गैर-मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल हैं।
तेलंगाना और बिहार की सफलता से उत्साहित ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (अखिल भारतीय मुस्लिम संघ) के नेता असदुद्दीन ओवैसी अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ पौने चार करोड़ मुस्लिम (18.5 प्रतिशत) की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में अपनी राष्ट्रीय पहचान पाने और भारत में मुस्लिम के एक मात्र प्रतिनिधि बनने के उद्देश से चुनाव में उतर चुके हैं और 100 सीटों पर लड़ने की घोषणा कर दिया है।
राष्ट्रीय मीडिया भी बहुत उत्साहित होकर इन छोटे छोटे दलों में बड़ी चीज को तलाशने की कोशिश कर रहा है। दिल्ली का प्रेस जानता है कि बिना उत्तर प्रदेश में बदलाव के 2024 में केंद्र की सरकार को नहीं हिलाया जा सकता। प्रदेश के चुनाव में अनेक लोगों के दांव लगे हैं। अधिकतर मीडिया को इस बात की चिंता नहीं कि जमीन पर क्या है बल्कि क्या होना चाहिए को लेकर फिक्रमंद हैं।
अगर 1989 से 2021 तक के बीच उत्तर प्रदेश के लोकसभा और विधान सभा के चुनाओ का तथ्यपरक विश्लेषण किया जाये तो बहुत बातें स्पष्ट हो जाती हैं। दो ध्रुविकृत दलों का उभार स्पष्ट रूप से हो चुका है। जो स्थिति 1989 तक काँग्रेस की थी वही स्थिति 1989 के बाद बीजेपी की हो गयी है।
2017 में विधानसभा में बीजेपी को 39.67 प्रतिशत और 2019 के लोकसभा में 49.98 प्रतिशत वोट मिले जिसका औसत 44.82 प्रतिशत है।
एसपी का 17 विधान सभा में 21.82 प्रतिशत और 2019 के लोकसभा मे 18.11 प्रतिशत था जिसका औसत 19.96 प्रतिशत
बीएसपी का 17 में 22.23 और 2019 के लोकसभा मे 19.43 जिसका औसत 20.83
काँग्रेस का 17 मे 6.26, और 2019 लोक सभा मे 6.36 है जिसका औसत है 6.31 प्रतिशत है।
2017 के विधान सभा मे छोटे दलों के समस्त वोट का प्रतिशत है 5.16 जिसमें आरएलडी, अपना दल (सोनेलाल), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, पीस पार्टी ऑफ इंडिया, एआईएमआईएम, लोक दल, बहुजन मुक्ति पार्टी, सीपीआई, महान दल, शिव सेना इत्यादि है।
इस प्रकार देखा जाये तो बीजेपी का औसत 44.82 प्रतिशत है, वहीं पर एसपी का 19.96, बीएसपी का 20.83 और काँग्रेस का 6.31 है। अगर विपक्ष की उपरोक्त समस्त छोटी-बड़ी पार्टियों के समस्त वोट देखें तो यह आता है 5.16 । इसमे से अपना दल (सोनेलाल), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी 2017 मे बीजेपी के साथ गठबंधन में थी। तो देखा जाये तो बीजेपी के पास उत्तर प्रदेश मे औसतन 45 प्रतिशत वोट है वहीं पर विपक्ष के पास 54 प्रतिशत। बीजेपी को हराने के लिए विपक्ष के सभी दलों को एक छतरी के तहत आया होगा क्योंकि दो या तीन दलों के गठबंधन का प्रयोग 17 के उत्तर प्रदेश (एसपी और काँग्रेस का गठबंधन) और 19 के लोक सभा (एसपी और बीएसपी का गठबंधन) विगत विधान सभा और लोकसभा के चुनाव मे फ़ेल हो चुका है। 2022 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिए 32 से 35 प्रतिशत वोट हासिल करना होगा जो किसी भी एक पार्टी के लिए असंभव सा दिख रहा है। कुछ लोग उत्तर प्रदेश में पश्चिम बंगाल दुहराना चाह रहे हैं पर बंगाल में भी बीजेपी को वोट शेयर 38.1 प्रतिशत और सीटें 3 से 77 तक पहुँच गयी। बंगाल में मुस्लिम 35 प्रतिशत से भी ज्यादा है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि बीजेपी सभी विपक्ष के लिए कॉमन एनिमी है तो 1977 और 1989 की तरह उनकी एक जुटता क्यों नहीं बन रही है? इसका जवाब विपक्ष को देना होगा।
दुबई मे खेले जा रहे वर्ल्ड कप में भारत की वापसी हो सकती थी गर न्यूजीलैंड को अफ़ग़ानिस्तान हरा देता। बहुत सारे लोगों ने सोचा भी कि अफ़ग़ानिस्तान जीत जायेगा जो एक असंभव सा काम था। पर राजनीति में भी कभी कभी ऐसी घटना होती है जिसमें पूरा परिणाम उलट जाता है जैसे 1991 के लोकसभा के चुनाव में राजीव गांधी की हत्या के बाद हुआ था। पर 2021 में ऐसी कोई भी संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती। राजनीति भी अपने एक खास नियमों से चलती है और वर्तमान में सारे समीकरण भाजपा के पक्ष में जाते दिख रहे हैं।
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बीजेपी की सरकार के परफॉर्मेंस का मूल्यांकन 2012 की सपा और 2007 की बीएसपी की सरकार और 2004 और 2009 की देश मे काँग्रेस की सरकार से तुलना करके ही किया जा सकता है। जहां बीजेपी अपने किले मे बहुत ही आश्वस्त लग रही है वही पर विपक्ष के खेमे के एक अजीब ऊहापोह और हलचल सी मची है। 2017 में काँग्रेस और 2019 में बीएसपी के साथ अपने गठबंधन के असफल प्रयोग के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव बीजेपी की पुरानी रणनीति को अपना कर छोटे छोटे दलों के साथ अपने भाग्य की आजमाइश कर रहे हैं और 80-90 दशक की पहचान की राजनीति की ठंडी पड़ी आग को सुलगाने का प्रयास कर रहे है। जबकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव 2012 के चुनाव में विकास के रथ पर सवार थे जिसके चलते उनकी ताजपोशी मुख्यमंत्री के रूप में हुयी। दूसरी ओर बीएसपी भी 2007 के अपने सोशल इंजीनियरिंग को फिर से पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही है।
काँग्रेस प्रियंका गांधी के छवि का प्रयोग कर काँग्रेस के पुनुरुथान को अंजाम देने का प्रयास कर रही है। बीजेपी ने अपने तरकश से धर्म-केन्द्रित विकास का ऐसा बाण छोड़ा है कि उसकी तपिश की गर्मी में सभी व्याकुल सा हो गए हैं। इसका तोड़ अभी दिख नहीं रहा है।
(लेखक बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ में प्रोफ़ेसर हैं )