उत्कर्ष सिन्हा
एडिटर्स टॉक में ये पहली बार हो रहा है की हम एक ही विषय पर लगातार दूसरे दिन चर्चा कर रहे हैं.. लेकिन ये विषय है ही इतना जरूरी की इस पर चर्चाओं की लंबी शृंखला होनी चाहिए.. जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ सरकारी बैंकों के निजीकरण की योजना पर..
कई लोगों का कहना है की बैंक अगर प्राईवेट कंपनियों के हाँथ में दे दिए जाएँ तो ग्रहकों को साहूलियाते मिलने लगेंगी.. लेकिन फिर याद आ जाता है यस बैंक केस जहां कुछ समय पहले ही एक ऐसी स्थिति आ गई थी जिसमे खातेदारों की सांस अटक गई थी। उन्हे इस बात की फिक्र होने लगी की उनके पैसे कहीं डूब तो नहीं गए ?
फिर लोग बात करेंगे बैंकों के डूबते कर्जों की जिसकी वजह से सरकारी बैंक तबाह होने लगे हैं, मगर उसमे क्या अकेला कसूर बैंकों का है ? ये भी सवाल है।
51 साल पहले जब महाजनी बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया था तब ये माना गया कि गरीब किसान मजदूर तक बैंकों की पहुँच आसान होगी और ये लोग सूदखोर महाजनों से बाहर आएंगे .. सरकार की कई सामाजिक योजनाओं का जिम्मा भी इन बैंकों को दिया गया।
लेकिन अब 51 साल बाद सरकार के नीति आयोग ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के सिफारिश कर दी है। कुछ दिनों पहले स्टेट बैंक के एक कार्यक्रम में में स्टेट बैंक के चेयरमैन रजनीश कुमार ने कहा कि बैंकों को अब मोरोटोरियम या हॉलिडे पैकेज की जरूरत नहीं।
चर्चा ये भी है की देश के चार बड़े बैंक– बैंक आफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, पंजाब एंड सिंध बैंक और बैंक आफ महाराष्ट्र को कारपोरेट को सौंपने का फैसला हो सकता है।
हाईकोर्ट के एक आदेश में ये व्यवस्था भी थी कि बैंकों के पालिसी संबंधी निर्णयों के लिए वे अपने मैनेजमेंट में कर्मर्चारीयों और अधिकारियों की नियुक्ति करे जो वाच डॉग की भूमिका निभाएगा, मगर ये नहीं हुआ और बैंकों के विलय का फैसला यूं ही कर दिया गया।
बैंक के कर्मचारियों की तनखवाहें बीते कई सालों से नहीं बढाई गई और एक वक्त शनदार नौकरी माने जाने वाले बैंक कर्मी की हालत अब खराब हो गई है। सवाल बहुत है – बैंकर का सवाल है ? उपभोक्ता का सवाल है और नीतियों और नीयत का सवाल है।
तो आज इसी पर बात देखिए…