सुरेंद्र दुबे
हमारे धर्मग्रंथों में नारी शक्ति को दुर्गा के रूप में पूजा गया है, परंतु उसे नारी रूप में कभी सम्मान नहीं दिया गया। हमने उसे जगह-जगह मंदिरों में स्थापित कर दिया पर उसे अपने समाज में कभी सम्मान व आदर प्रदान नहीं किया। दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक देश होने का दंभ भरने वाले अपने प्यारे देश भारत में जब कोई बेटी मां के गर्भ में आती है तभी से उसके जीवन पर संकट शुरु हो जाता है। कभी गर्भ में ही मार दी जाती है तो कभी मां की गोद में आने पर सास-ससुर के तानों से आजिज आकर उसे भूखे-प्यासे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। हमें लगता है कि हमारे समाज के जींस में ही कुछ गड़बड़ है। इसीलिए हम बेटी को सम्मानजनक जीव समझने के बजाए पत्थर में गढ़कर अपमानित करने, प्रताड़ित करने और बलात्कार कर सरेआम जला देने जैसे घृणित कृत्य करते रहते हैं।
शनिवार को फतेहपुर के हुसैनगंज थाना क्षेत्र के एक गांव में एक लड़की को जिंदा जलाने का मामला सामने आया। यहां भी उन्नाव और हैदराबाद जैसी घटना को अंजाम देने की कोशिश की गई। लड़की जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है। इस घटना ने हमें फिर से एक बार ये सोचने को मजबूर कर दिया है कि हम किस देश में और किस समाज में रह रहे हैं। क्या हमारे जींस में ही बेटियों के साथ बलात्कार और उन्हें जिंदा जला देने का वायरस संक्रमित कर गया है।
हाल ही में जब हैदराबाद में एक बेटी को बलात्कार के बाद जिंदा जला देने वाले चार दुष्कर्मियों को पुलिस ने गोलियों से उड़ा दिया था तो इस देश के अधिकांश लोगों को उम्मीद बंधी थी कि शायद दरिंदों में अब खौफ जागेगा। इसीलिए तथाकथित एनकाउंटर करने वाली पुलिस पर हमने फूल बरसाये थे। पर सारी आशाएं धूल धूसरित हो गई। हद तो तब हो गई जब उसके दूसरे ही दिन उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में तड़के ही एक युवती को जिंदा जलाने का प्रयास किया गया, क्योंकि उसने अपने साथ हुए बलात्कार के आरोपियों को कोर्ट में घसीट लिया था। जिसकी बाद में मौत हो गई।
अभी हम इस सदमे से उबर भी नहीं पाये थे कि शनिवार को यूपी के फतेहपुर में यह वीभत्स घटना हो गई। आखिर बेटी क्या करें। मां के गर्भ में आती है तो उसे मारे जाने का डर। कोख से बच गई तो समाज में आते ही मां-बाप के बीच लगातार अपमानित होने का डर। मोहल्ले में निकले तो छेडख़ानी का डर। शादी हो जाए तो दहेज के नाम पर जला दिए जाने का डर। पति मर जाए तो ढोल नगाड़ों के बीच चिता पर जिंदा जला देने का डर भी इस देश में बेटियों को सताता रहा है।
भला हो राजा राममोहन राय का, जिन्होंने इस डर से तो बेटियों को मुक्ति दिला दी। पर अब जो ये बेटियों के साथ बलात्कार और फिर उन्हें जिंदा जला देने का नंगा नाच इस देश में शुरु हो गया है उससे कौन राजा राममोहन राय बचा पायेेंगे। जाहिर है पूरे समाज को राजा राममोहन राय जैसी भूमिका में आना पड़ेगा वरना बेटिया मरती रहेंगी और उन्हीं की प्रतिमूर्ति दुर्गा पत्थरों के रूप में मंदिर में पूजी जाती रहेंगी।
बात बहुत गहरी है और इसका हल भी बहुत गहरे जाकर खोजना होगा। अगर कानून से बेटियों की रक्षा हो पाती तो मृत्यु दंड निर्धारित होने के बाद बेटियां वाकई निर्भया हो जाती। परंतु अब बेटियां और भयभीत हो गई हैं और उनके माता-पिता उनसे ज्यादा भयभीत हैं। किससे कहें और किससे गुहार लगाएं। समाज की इस जटिल समस्या की जड़ में जाने के लिए हमें अपने पुरुष प्रधान समाज और उसमें रह रहे उन लोगों की गंदी मानसिकता को समझना होगा जो बेटियों को भोग की एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझते।
ये कोई आज की समस्या नहीं है। अगर हम अपने धर्म ग्रंथों पर नजर दौड़ाए तो पता चलेगा कि उस जमाने में भी इसी तरह के कुकृत्य होते रहते थे, जिससे पुरुषों से बचाने के लिए हमारे शास्त्रकार तरह-तरह के नाटक रचते थे और बलात्कार की घटनाओं को चमत्कार से जोड़कर अपने को महिमा मंडित करते थे। इस तरह वह बलात्कारियों को बचा लेते थे। यानी समस्या सदियों पुरानी है। आज मीडिया के युग में घटनाएं सामने आ जाती हैं। कैंडिल मार्च निकलते हैं। कोर्ट-कचहरी चलती है। पर समस्या जस की तस खड़ी है। दुर्गा के इस देश में आज भी दुर्गा हर पल प्रताड़ना और भयावह मृत्यु के वातावरण में जीने को मजबूर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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