प्रीती सिंह
अखबार में अक्सर ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती है कि सैप्टिक टैंक और सीवर में घुसने के दौरान इतने लोगों की मौत हो गई। इन आंकड़ों को इकट्ठा करें तो पता चलेगा साल में सैकड़ों लोग अपनी जान गवातें हैं।
देश में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने से जुड़ा पहला कानून 1993 में आया था, इसके बाद 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून बना, जिसके मुताबिक नाले-नालियों और सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए रोजगार या ऐसे कामों के लिए लोगों की सेवाएं लेने पर प्रतिबंध है। बावजूद इसका चलन जारी है।
केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने 9 जुलाई को लोकसभा में स्वीकार किया कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि 1993 में और फिर 2013 में मैनुअल स्कैवेंजिंग (हाथ से मैला उठाना) को गैरकानूनी घोषित करने के बाद भी अभी ये प्रथा हमारे समाज में मौजूद है।
खास बात ये है कि मंत्रालय ने बताया कि राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों से मैला ढोने वालों को रोजगार देने या इस तरह का काम कराने के लिए किसी भी व्यक्त को दोषी ठहराने या सजा देने के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिली है।
झारखंड के पलामू से भाजपा सांसद विष्णु दयाल राम द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में मंत्री रामदास अठावले ने कहा कि देश भर में कुल 53,398 मैला ढोने वालों की पहचान हुई है, लेकिन किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश से ये जानकारी प्राप्त नहीं हुई है कि मैला ढाने का काम कराने वाले किसी भी व्यक्ति को सजा हुई है या नहीं।
मंत्री ने कहा कि ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध और उनके पुनर्वास अधिनियम 2013’ के तहत , जिला मजिस्ट्रेट या किसी संबंधित विभाग को यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके अधिकार क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति से मैला ढोने का काम न कराया जाए और अगर कोई ये कानून तोड़ता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘राज्य सरकारों से इन प्रावधानों को प्रभावी ढंग से लागू करने और इस संबंध में मासिक प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करने का अनुरोध किया गया है।’
सिर पर मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ लंबे वक्त से अभियान चलाने वाल मैगसेसे अवार्ड विजेता विल्सन वेजवाड़ा ने एक कार्यक्रम में कहा था कि नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो राज्यवार सीवर की सफाई करने के दौरान दुर्घटना में हुई मौतों का आंकड़ा इकट्ठा करता है लेकिन सेप्टिक टैंक और सीवर में घुसने के दौरान हुई मौतों का कोई राष्ट्रीय आंकड़ा इकट्ठा नहीं होता। आखिर क्यों?
क्या इस काम को करने वाले लोग इंसान नहीं हैं? हम देश भर में शौचालयों, टेलीविजन और स्कूटरों का आंकड़ा इकट्ठा कर सकते हैं तो हाथ से मैला साफ करने वालों के बारे में कोई आंकड़ा क्यों नहीं इकट्ठा कर सकते? पिछले दो साल में सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करते हुए 1370 लोगों की मौत हो गई। क्या इस पर देश में कोई हंगामा मचा? क्या इस बारे में आए 2013 के कानून के बावजूद ऐसा होते रहना शर्मनाक नहीं है?
वहीं 2018 में एक आरटीआई में खुलासा हुआ था कि इस योजना के तहत सरकार ने 2006-07 से लेकर अब तक कुल 226 करोड़ रुपये जारी किए हैं। सभी राशि वित्त वर्ष 2013-14 तक ही जारी की गई है।
साल 2014 यानी जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, इस योजना के लिए कोई राशि जारी नहीं की गई है। इतना ही नहीं आखिरी बार 2013-14 यानी यूपीए कार्यकाल में जारी 55 करोड़ रुपये में से 24 करोड़ रुपये अभी तक खर्च नहीं हुए हैं।
मंगलवार को सांसद असदुद्दीन ओवैसी और इम्तियाज जलील द्वारा पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में अठावले ने बताया कि पिछले तीन सालों में 88 लोगों की सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत हो गई। सबसे ज्यादा 18 मौतें दिल्ली में हुईं।
उन्होंने बताया कि 88 मृतक में से 36 लोगों के परिजनों को 10 लाख का मुआवजा सरकार द्वारा दे दिया गया है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 1993 से लेकर अब तक में 620 लोगों की सीवर सफाई के दौरान मौत हो चुकी है।
अठावले ने आगे कहा कि इन 620 में से 445 परिवारों को 10 लाख रुपये का पूरा मुआवजा दिया जा चुका है। सबसे ज्यादा 141 मौतें तमिलनाडु में हुईं हैं. वहीं दूसरे नंबर पर गुजरात है, जहां 131 सफाईकर्मियों की मौत हुई है।
यह भी पढ़ें: कहां के छात्र पढ़ेंगे ‘राष्ट्र निर्माण में आरएसएस की भूमिका’ का पाठ
हालांकि मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की दिशा में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह मुआवजा अपर्याप्त है। अक्सर ये आरोप लगाया जाता है कि संबंधित अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से बच रहे हैं और कानून को सही तरीके से लागू करने के लिए उचित कदम नहीं उठा रहे हैं ताकि इन मौतों से बचा जाए।
कार्यकर्ताओं ने सरकार के पुनर्वास उपायों के बारे में भी चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि एक बार में 40,000 रुपये का नकद हस्तांतरण या व्यवसाय शुरू करने के लिए ऋ ण देने से कोई भी व्यक्ति नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत नहीं कर सकता है।
देश भर में मैनुअस स्कैवेंजर्स की सही संख्या का पता लगाने के लिए सरकार द्वारा कई बार सर्वे कराए गए हैं और रामदास अठावले जिन आंकड़ों का जिक्र कर रहे थे वो आठवे सर्वे पर आधारित है। आज के दौर में भी मैला ढोने की प्रथा होने के बावजूद स्थानीय अधिकारी ये नहीं स्वीकारते हैं कि उनके क्षेत्र में भी मैनुअल स्कैवेंजर्स हैं।