प्रांशु मिश्रा
बीते कुछ सालों में मुल्क की राजनीति बेपटरी हुई है, लेकिन राजनीति के कीड़े ने हर सेक्टर में जबरदस्त डंक मारी की है पत्रकार, वकील, मास्टर और डॉक्टर। हर जगह संगठनों की बाढ़ आ गई है और तमाम स्वयंभू एरिया कमांडर टाइप नेता मोर्चा संभाले हैं।
सेल्फी, फेसबुक पर वाच पार्टी, ट्विटर और अनगिनत न्यूज़ चैनल्स पर प्रतिक्रिया देने के स्वर्णिम अवसर इन तमाम कमांडरों के स्वाभिवक मोरल बूस्टर हैं और उन्हें कुछ कर गुजरने की फीलिंग देते हैं। बाकी तमाम असल मुद्दे जिन पर सही मायनों में आंदोलन होना चाहिए वह ठंडे बस्ते में हैं।
इन आंदोलनों के केंद्र बिंदु में बुनियादी सवाल है ही नहीं। मसलन सरकारी मेडीकल कॉलेजों की बदहाली का सवाल, उच्च शिक्षा पर खर्च होने वाले बजट का सवाल। MBBS और उसके आगे की सीटों की घटती संख्या का सवाल. महंगी होती उच्च शिक्षा का सवाल।
जाहिर है ऐसे में मौजूदा दौर का यह आंदोलन भी जल्द ही ठंडा पड़ जायेगा..और वह भी बिना किसी बड़े बदलाव को हॉसिल किए। आंदोलन कर रहे तमाम मेडीकल स्टूडेंट्स और युवा डॉक्टर जान ही नहीं पाएंगे की वो कहां और किस मोड़ पर खुद ही राजनीति की बिसात पर प्यादों की तरह इस्तेमाल करके फेंक दिए गए।
पहले की तरह इस बार भी यह आंदोलन शायद ही आम आदमी से रिश्ता जोड़ पाए एक आम आदमी के लिए डॉक्टर भगवान भले बना रहे लेकिन सरकारी अस्पताल का अनुभव उसके लिए किसी नरक से कम नहीं होगा और तमाम प्राइवेट अस्पताल और डॉक्टर पहले की ही तरह एयरपोर्ट की लाउन्ज सर्विसेज की तरह ‘ जितना ज्यादा दाम उतना ज्यादा ध्यान’ के फलसफे पर लोगों को सर्विसेज देते रहेंगे।
लेकिन बात सिर्फ डॉक्टर्स तक ही सीमित नहीं है। वर्तमान में उनका आंदोलन चल रहा है। इसलिए पहले उनका जिक्र किया। जनता की बीच सहानुभूति न हासिल कर पाने, अपनी लड़ाई को आम जनता से कनेक्ट न कर पाने की कमी हर सेक्टर में है। वो चाहे वकील हो या यूनिवर्सिटी-कॉलेजों के लेक्चरर-प्रोफेसर।
यह तब तक नहीं होगा, जब तक की इन आंदोलनों के केंद्र में आम भारतीय न हो. मौजूदा दौर के आन्दोलन-“सिस्टम की बुनियादी कमियों के खिलाफ कम और खराब सिस्टम से उभर रही चोटों के खिलाफ ज्यादा है।’ और अंत में अपनी बिरादरी का सच। यहां तो कोई आंदोलन बचा ही नहीं है। पत्रकार संगठन और उनके नेता ‘पावर ब्रोकर’ से ज्यादा कुछ और बचे नहीं हैं। असली ‘राजपूत’ होते जा रहे, जिसका राज उसके पूत।