Thursday - 14 November 2024 - 4:38 AM

नहीं भूलती जाड़े की वह रात

शबाहत हुसैन विजेता

वह ज़बरदस्त जाड़े की रात थी। लिहाफ के ऊपर कम्बल भी था और रूम हीटर चल रहा था, लेकिन ठंड जिस्म का एग्जाम पूरी शिद्दत से ले रही थी। फर्स्ट फ्लोर पर मेरी रिहाइश है. उन दिनों बड़ी सी छत पर एक किनारे पर मेरा कमरा बना था। कमरे में मैं, मेरी पत्नी और साल भर का बेटा रहते थे। ग्राउंड फ्लोर पर मेरी माँ और भाई रहते हैं। फर्स्ट फ्लोर का वह अकेला कमरा गर्मियों में खूब तपता था और जाड़े में फ्रीज़र की ठंड को मात देता था।

हाँ, तो मैं बता रहा था उस बर्फीली रात के बारे में। रात को बारह-सवा बारह बजे का वक्त रहा होगा। दरवाज़े पर हल्की से खट-खट हुई। यह खटखट चौंकाने वाली थी, क्योंकि ठंड के दिनों में आधी रात को दरवाज़े पर कौन हो सकता है, क्योंकि मेरी माँ को अगर कोई काम होता तो वह आने के बजाय फोन मिलातीं और बाहरी कोई सीढ़ी चढ़कर आ नहीं सकता था क्योंकि मेन गेट मैं खुद बंद कर आया था।

फिर वह कौन हो सकता है जिसने दरवाज़ा खटखटाया। दो-तीन बार पूछने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिला। जब कोई जवाब नहीं मिला तो लगा कि दस्तक का धोखा हुआ होगा। आँखें बंद कर फिर सोने की तैयारी शुरू हो गई।

जैसे ही आँख लगी। दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। अंदाज़ वही पहले वाला। लगा जैसे किसी ने धीरे-धीरे खटखट किया। दो-तीन बार फिर आवाज़ लगाकर पूछा, कौन..? मगर बाहर सन्नाटा था। उस बर्फीली रात में शरीर में डर की सिहरन दौड़ गई। ठंड की जगह कुछ ही देर में गर्मी लगने लगी। रूम हीटर बंद कर दिया। कान दरवाज़े पर लग गए।

दरअसल उन दिनों आये दिन चोरी-डकैती और लूट की वारदात सुनने को मिल रही थीं। बदमाश घरों में घुसकर लूटपाट के बाद कत्ल कर भाग जाते थे। हमारे साथ कमरे में साल भर का बच्चा भी था, यही सबसे ज्यादा डराने वाली बात थी।

दरवाज़े पर होने वाली हर दस्तक अन्दर तक हिला जाती थी, क्योंकि मैं जिस दोराहे पर खड़ा था उसमें खुद को किस्मत के हवाले करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि नीचे अपनी माँ को फोन कर सिर्फ उनकी नींद खराब की जा सकती थी, वह दरवाज़ा खोल देतीं तो वह खुद खतरे में पड़ जातीं। मैं अपने किसी दोस्त या पुलिस से भी मदद नहीं मांग सकता था क्योंकि घर के बाहर की दस फुट ऊंची बाउंड्रीवाल फांद कर घर में आना आसान बात नहीं थी।

मुसीबत दरवाज़े तक आ चुकी थी और बार-बार दस्तक देकर वह बाहर निकलने को ललकार रही थी लेकिन अन्दर से उसे कौन है…? के जवाब में कोई रेस्पांस नहीं मिल रहा था।

दरवाज़े पर दस्तक का सिलसिला लगातार जारी रहा। यहाँ तक कि घड़ी ने 4 बजा दिए। कुछ देर बाद अज़ान की आवाज़ सुनाई देने लगी लेकिन दरवाज़े पर खड़ा वह बन्दा न तो थका, न इरीटेट हुआ और न ही इतना आक्रोशित कि लात मारकर दरवाज़ा तोड़ दे। हर थोड़ी देर के बाद वह हौले-हौले दस्तक देता और डर से हमें अन्दर तक चीर देता।

ज़िन्दगी की सबसे लम्बी रात

वह रात शायद ज़िन्दगी की सबसे लम्बी रात थी। रिश्तेदार, दोस्त और करीबी जान-पहचान वाले बहुत याद आ रहे थे। मेरी दोनों बहनें घर से तीन-तीन किलोमीटर की दूरी पर रहती हैं। माँ और छोटा भाई उस छत के नीचे रहते हैं जहाँ मैं सो रहा था, लेकिन लग रहा था कि अब शायद किसी से मुलाक़ात नहीं हो पायेगी। कुछ ऐसे दोस्त बहुत याद आये जिन्हें अगर फोन मिला देता तो वह बगैर घड़ी और खतरा देखे भागकर आ जाते लेकिन उस वक्त जब ज़िन्दगी खात्मे के कगार पर खड़ी थी तब किसी को खतरे में डालकर खुद को बचाना खुद को गवारा नहीं लग रहा था।

हद तो यह है कि खिड़की के शीशे में हलकी रौशनी दस्तक देने लगी थी। सुबह होने के संकेत साफ़ नज़र आने लगे थे, मगर दरवाज़े पर रात बारह-सवा बारह बजे से बार-बार दस्तक देने वाला अपना मकसद पूरा किये बगैर जाने को तैयार नहीं था।

या तो वह नहीं या फिर मैं नहीं

रात भर खड़े रहकर दरवाज़ा टूटने के बाद खुद के एक्शन पर सोचते-सोचते अचानक एक बड़ा फैसला किया। पत्नी से कहा कि बच्चे को लेकर बाथरूम में जाओ और अन्दर से बंद कर लो। वह लोहे का दरवाज़ा है टूटेगा नहीं। कोई कितना भी चिल्लाये, यहाँ तक कि मैं खुद भी मदद मांगूं तो भी दरवाज़ा मत खोलना। अब बहुत हो चुका। अब मामला आर या पार। दरवाज़ा टूटने तक मैं इंतज़ार नहीं कर सकता। रात भर में वह भी थक गया होगा। अब या तो वह नहीं या फिर मैं नहीं।

पत्नी और बच्चे को बाथरूम में भेजने के बाद आत्मरक्षा के लिए हथौड़ी उठाई और दरवाज़े पर दस्तक का इंतज़ार करने लगा। इस बार जैसे ही खटखट की आवाज़ हुई, मैंने झटके से दरवाज़ा खोला और हथौड़ी से पूरी ताकत से हवा में ही वार किया।

वापसी पर हैरान हो गया

दरवाज़ा पाटोपाट खुला था। सामने कोई नहीं था। सूरज की पहली किरण छत पर फैलने लगी थीं। हिम्मत कर बाहर कदम निकाला। छत पर घूमकर चारों तरफ देखा। वहां कोई नहीं था। लगा कि वह भाग गया है लेकिन जब वापस कमरे में दाखिल होने को बढ़ा तो हैरान हो गया। कहीं से पतंग काटकर आयी थी। कमरे की छत पर दरवाज़े के ठीक ऊपर निकली सरिया में उसका मंझा फंस गया था। हवा चली तो पतंग नीचे लटक गई।

रात में जब हवा चलती तो पतंग हिलती और दो तीन बार दरवाज़े से टकराकर शांत हो जाती। वही पतंग रात भर दस्तक देती रही और कमरे के अंदर तरह-तरह के ख्यालात पहुंचाती रही।

इस ज़िन्दगी में तमाम दंगे देखे हैं। आमने-सामने चलती गोलियां और पथराव देखे हैं। मर्चरी में लाइन से लेटी लाशें देखी हैं। मगर उस रात पतंग ने जितना डराया था, किसी ने नहीं डराया।

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