जुबिली डेस्क
हर दिन एक करीब 88 बार अपना फोन चेक करना, दोस्तों से चैटिंग, सोशल मीडिया पर आ रहे वीडियो और भी बहुत कुछ करते करते आम आदमी अपने दिन के तकरीबन ढाई घंटे तो हर रोज यूँ ही निकाल देता हैं। आम युवा तो अपने फोन या अन्य मोबाइल डिवाइसों पर करीब सात घंटे बिता रहे हैं। सुनाने में ये बात चौंकाने वाले लग सकती है , मगर सच यही है।
डिजिटल दुनिया ने हमें अपने भीतर ले लिया है। इंटरनेट डेटा अब तकरीबन एक ऐसे सुनामी की शक्ल ले चुका है जिसकी तेज रफ़्तार का आक्रमण हमारा अपना दिमाग हर वक्त कर रहा है। जाहिर है इसका असर हमारे सोचने की स्वाभाविक क्षमता पर भी पड़ रहा है, और अब हम अनजाने में भी वही सोचने लग रहे हैं जिस तरह की सूचनाओं से लगातार दो चार हो रहे हैं। यानी हम वो नहीं सोच रहे जो सोचना चाहते हैं , बल्कि वो सोच रहे हैं जो हमें सोचने के लिए परोसा जा रहा है।
मोबाइल फोन की लत तो ऐसी लग चुकी है कि कई लोगो को इसकी वाइब्रेशन और रिंग टोन तब भी सुनाई देने लगती है , जब उनका फोन उनके पास नहीं होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने फोन को हमेशा ही अपने साथ ले जाते हैं भले ही वे अपने टायलेट में जा रहे हों। यानी मोबाइल के साथ न्यूरो एलिमेंट खुद ही जुड़ चुका है।
जर्मन समाचार एजेंसी डीडब्ल्यू वर्ल्ड की एक खबर बताती है की विश्व की लगभग आधी आबादी तक इंटरनेट पहुंच चुका है और इनमें से कम से कम दो-तिहाई लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं. 5 से 10 फीसदी इंटरनेट यूजर्स अब यह मानाने लगे हैं कि वे चाहकर भी सोशल मीडिया पर बिताया जाने वाला अपना समय कम नहीं कर पाते. ऐसे लोगो के दिमाग के स्कैन से मस्तिष्क के उस हिस्से में गड़बड़ दिखती है, जहां ड्रग्स लेने वालों के दिमाग में दिखती है। यही एडिक्शन है।
ये असर सोशल मीडिया और बढ़ा रहा है। डीडब्ल्यू वर्ल्ड ने शोधकर्ताओं के हवाले से लिखा है कि हमारी भावनाओं, एकाग्रता और निर्णय को नियंत्रित करने वाले दिमाग के हिस्से पर काफी बुरा असर पड़ता है. सोशल मीडिया इस्तेमाल करते समय लोगों को एक छद्म खुशी का भी एहसास होता है क्योंकि उस समय दिमाग को बिना ज्यादा मेहनत किए “इनाम” जैसे सिग्नल मिल रहे होते हैं। यही कारण है कि दिमाग बार बार और ज्यादा ऐसे सिग्नल चाहता है जिसके चलते आप बार बार सोशल मीडिया पर पहुंचते हैं।
हमारा दिमाग लाइक्स और फॉलोवर्स की संख्या से प्रभावित होने लगा है। हमारी खुशियां लाइक्स बढ़ने पर बढ़ रही हैं और , कम लाइक्स मिलने पर अवसाद का शिकार हो जा रही हैं।
याना फंडाकोवा एक न्यूरो रिसर्चर है , जो माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट में लगातार सूचनाओं से घिरे मस्तिष्क पर रिसर्च कर रही हैं. याना आम मस्तिष्क को समझाते हुए कहती हैं – ” सामान्यतया जब हमारे सामने कोई स्थिति आती है, तो हमारा दिमाग उस पर पहले चिंतन करता है और उसके बाद ही प्रतिक्रया देता है। ” लेकिन अब दौर बदल गया है। संचार क्रांति ने हमारे मष्तिष्क की चुनौतियों को बढ़ा दिया है।
निश्चित तौर पर ये एक अच्छी स्थिति नहीं है। हमें ये समझना होगा कि तकनीकी हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए है , न की हमें खुद को तकनीकी का गुलाम बनाना है।