जुबिली स्पेशल डेस्क
एक बार फिर भारतीय हॉकी का डंका पूरे विश्व में बज रहा है। ओलम्पिक में भारतीय हॉकी का दबदबा देखने को मिला। ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम को टीम इंडिया ने ओलम्पिक में धूल चटायी जबकि ब्रिटेन को जमीन पर ला दिया।
वहीं स्पेन को हराकर लगातार दो ओलम्पिक में पदक जीतने का कारनामा करने वाली भारतीय टीम स्वदेश लौट आई है और उनकी तारीफ हर कोई कर रहा है। इस बीच ओलम्पिक के जश्न के बीच पूरा देश आजादी का जश्न भी मना रहा है। बात अगर अतीत की जाये तो आजादी मिलने से 11 साल पहले यानी 15 अगस्त का दिन भारतीय हॉकी के लिए बेहद यादगार रहा है।
दरअसल इस दिन भारतीय हॉकी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए बर्लिन ओलंपिक फाइनल में जर्मनी को हराकर पीला तमगा अपने नाम किया था।
इतना ही नहीं हिटलर की मौजूदगी में 15 अगस्त को ध्यानचंद ने भारत का परचम लहराया था। भारत की जीत के बाद हिटलर ध्यानचंद के खेल से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जर्मन नागरिकता का प्रस्ताव भी दे डाला था।
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ध्यानचंद के बेटे और 1975 विश्व कप में भारत की खिताबी जीत के नायकों में शुमार अशोक कुमार ने एक न्यूज एजेंसी से बातचीत में कहा था कि उस दिन को वह (ध्यानचंद) कभी नहीं भूले और जब भी हॉकी की बात होती तो वह उस ओलंपिक फाइनल का जिक्र जरूर करते थे।
समुद्र के रास्ते लंबा सफर तय करके भारतीय हॉकी टीम हंगरी के खिलाफ पहले मैच से दो सप्ताह पहले बर्लिन पहुंची थी लेकिन अभ्यास मैच में जर्मन एकादश से 4 -1 से हार गई।
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पिछले दो बार की चैम्पियन भारत ने टूर्नामेंट में लय पकड़ते हुए सेमीफाइनल में फ्रांस को 10- 0 से हराया और ध्यानचंद ने चार गोल दागे। फाइनल में जर्मन डिफेंडरों ने ध्यानचंद को घेरे रखा और जर्मन गोलकीपर टिटो वार्नहोल्ज से टकराकर उनका दांत भी टूट गया।
ब्रेक में उन्होंने और उनके भाई रूप सिंह ने मैदान में फिसलने के डर से जूते उतार दिये और नंगे पैर खेले। ध्यानचंद ने तीन और रूप सिंह ने दो गोल करके भारत को 8-1 से जीत दिलाई।
अशोक ने कहा कि उस मैच से पहले की रात उन्होंने कमरे में खिलाडिय़ों को इकट्ठा करके तिरंगे की शपथ दिलाई थी कि हमें हर हालत में यह फाइनल मैच जीतना है। उस समय चरखे वाला तिरंगा था क्योंकि भारत तो ब्रिटिश झंडे तले ही खेल रहा था।
उस दौर में भारतीय हॉकी लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही थी लेकिन अखबारों में भारतीय आजादी की चर्चा और आंदोलन की चर्चा ज्यादा होती थी।
हालांकि भारतीय हॉकी को लेकर उस वक्त की मीडिया में खूब चर्चा होती थी। अशोक बताते है कि उस दौर में टीम दान के जरिये इकट्ठा हुए पैसे के दम पर ओलंपिक खेलने गई थी।
उस समय जर्मनी को हराना इतना आसान नहीं था लेकिन भारतीय हॉकी एक अलग टीम बनकर सामने आई थी। उन्होंने बताया कि 15 अगस्त 1936 के ओलंपिक मैच के बाद खिलाड़ी वहां बसे भारतीय समुदाय के साथ जश्न मना रहे थे लेकिन ध्यान (ध्यानचंद) कहीं नजर नहीं आ रहे थे।
अशोक ने कहा कि हर कोई उन्हें तलाश रहा था और वह उस स्थान पर उदास बैठे थे जहां तमाम देशों के ध्वज लहरा रहे थे। उनसे पूछा गया कि यहां क्यो उदास बैठे हो तो उनका जवाब था कि काश हम यूनियन जैक की बजाय तिरंगे तले जीते होते और हमारा तिरंगा यहां लहरा रहा होता। वह ध्यानचंद का आखिरी ओलंपिक था। मौजूदा दौर में भारतीय हॉकी एक बार फिर उफान पर है और लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही है।