Wednesday - 30 October 2024 - 1:41 PM

प्रगति के दावों के बावजूद अब तक आधी दुनिया के पास नहीं स्वच्छ रसोई ईंधन

जुबिली न्यूज डेस्क

भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में सरकारों की अनदेखी के चलते आज भी प्रदूषण उत्पन्न करने वाले ईंधन का उपयोग किया जा रहा है और इसका खामियाजा उन महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है जिन पर भोजन पकाने की जिम्मेदारी होती है।

दुनिया भर में खाना पकाने के लिए लकड़ी, कोयला, केरोसिन और गोबर जैसे ईंधन का उपयोग हो रहा है। यह ईंधन बड़ी मात्रा में प्रदूषण फैलाते हैं, जिसका असर केवल पर्यावरण ही नहीं बल्कि खाना पकाने वाले के स्वाथ्य पर भी पड़ता है।

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हाल ही में विश्व बैंक ने इसी से जुड़ा एक रिपोर्ट जारी किया। इस रिपोर्ट के मुताबिक जारी एक रिपोर्ट दुनिया भर में करीब 400 करोड़ लोग आज भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, कोयला, केरोसिन और गोबर जैसे ईंधन पर निर्भर हैं।

हालांकि इससे पहले अनुमान लगाया गया था कि दुनिया भर में करीब 300 करोड़ लोग दूषित ईंधन का प्रयोग कर रहे हैं। पर विश्व बैंक के शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि जिन परिवारों के पास एलपीजी की पहुंच है वो भी खाना पकाने के लिए, लकड़ी, कोयला और चारकोल जैसे पारम्परिक ईंधनों का प्रयोग कर रहे हैं। यही कारण है कि यह संख्या पिछले अनुमान से कहीं ज्यादा है।

भारत ने सतत विकास लक्ष्यों के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। सतत विकास लक्ष्य-7 सस्ती, विश्वसनीय, निर्बाध तथा आधुनिक ईँधन की उपलब्धता सुनिश्चित करने से संबंधित है।

सतत विकास लक्ष्य-7 के तीन संकेतकों में से एक है 2030 तक सभी परिवारों को भोजन पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन उपलब्ध कराया जाना, पर भारत के सतत विकास लक्ष्य डैशबोर्ड से पता चलता है कि देश में केवल 43.8 प्रतिशत घरों में ही स्वच्छ ईंधन का प्रयोग होता है, मतलब अगले 10 साल में भारत को अभी 56 प्रतिशत घरों तक स्वच्छ रसोई ईंधन पहुंचाना है। जिन घरों में अभी स्वच्छ ईंधन का प्रयोग नहीं हो रहा है, उनमें से अधिकांश ग्रामीण इलाकों में हैं।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन विविधता एक सामान्य प्रथा है, जिसमें कोई परिवार खाना पकाने के लिए एक से अधिक ईंधनों पर निर्भर करता है। इन ईंधनों में से एक प्राथमिक ईंधन बन जाता है।

भारत की जनगणना (2011) के मुताबिक देश में 63 प्रतिशत ग्रामीण परिवार खाना पकाने के प्राथमिक ईंधन के रूप में जलावन लकड़ी का उपयोग करते थे जबकि अन्य 23 प्रतिशत परिवार फसलों के अवशेष और कंडे-उपले का उपयोग रसोई ईंधन के रूप में करते थे। केवल 11 प्रतिशत ग्रामीण परिवार प्राथमिक खाना पकाने के ईंधन के रूप में तरल पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) का उपयोग कर रहे थे।

ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद् (सीईईडब्ल्यू) ने साल 2015 से 2018 तक किए गए सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि भारत में ऊर्जा उपलब्धता की कमी से पीडि़त प्रमुख छह राज्यों में खाना पकाने के प्राथमिक ईंधन के रूप में एलपीजी का उपयोग करने वाले घरों की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत से बढ़ कर 37 प्रतिशत हो गई थी (मई 2019, सीईईडब्ल्यू)।

भारत में दीपम, राजीव गांधी ग्रामीण एलपीजी वितरण योजना और प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना जैसी योजनाओं के बावजूद प्राथमिक ईंधन के रूप में रसोई गैस के उपयोग में वृद्धि की दर धीमी रही है।

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2019 में रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर कंपैश्नेट इकॉनॉमिक्स द्वारा किए गए एक अध्ययन में सामने आया था कि 90 प्रतिशत उज्ज्वला लाभार्थी अब भी प्राथमिक रसोई ईंधन के रूप में ठोस ईंधन का ही प्रयोग करते हैं।

वर्ष 2016 में शुरू की गई इस योजना के अंतर्गत गरीब महिलाओं को सब्सिडी वाले एलपीजी कनेक्शन प्रदान किए गए थे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इसके अंतर्गत 8,03,39,993 कनेक्शन बांटे जा चुके हैं। इसके प्राथमिक कारण के रूप में एलपीजी की तुलना में ठोस ईंधन की उपलब्धता और उसके सस्ते होने का उल्लेख किया गया था।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के लोग एलपीजी को सुविधाजनक और खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन के रूप में स्वीकार करते रहे हैं, पर इसके साथ लगने वाले चूल्हे और सिलेंडर की लागत की वजह से वह अपने जीवनचर्या में शामिल नहीं कर पाते। यह एक बड़ी बाधा रही है।

2019 में ही ऊर्जा और संसाधन संस्थान (टेरी) ने 1,000 ग्रामीण घरों में इंडक्शन चूल्हे के उपयोगकर्ताओं के प्राथमिक सर्वेक्षण करने के बाद निष्कर्ष निकाला था कि 84 प्रतिशत घरों में खाना पकाने के ईंधन के द्वितीय विकल्प के रूप में एलपीजी का स्थान बिजली ने ले लिया था लेकिन प्राथमिक ईंधन के रूप में ठोस ईंधन का ही इस्तेमाल जारी है।

उपयोगकर्ताओं ने इंडक्शन चूल्हे का उपयोग सुविधाजनक होने की बात भी कही, लेकिन, खाना पकाने के ईंधन विकल्प के रूप में बिजली का उपयोग करने के लिए बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है।

1980 के दशक के बाद से ग्रामीण भारत में प्रदूषणमुक्त तरीकों से खाना पकाने की पहलों का मूल्यांकन करते हुए जो बात सामने आती है, वह यह है कि लोग खाना पकाने के लिए सामान्यत: ठोस ईंधन पर निर्भर हैं और स्वच्छ ईँधन तथा प्रौद्योगिकी का उपयोग दूसरे और तीसरे विकल्प के रूप में करते हैं।

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अर्थव्यवस्था पर पड़ता है करीब 1,77,20,112 करोड़ रुपए का बोझ

हाल ही में विश्व बैंक ने जो रिपोर्ट जारी की है उसके मुताबिक दुनिया भर में ठोस ईंधन का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था पर भी बड़ा बोझ डालता है। अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले इसके असर को देखें तो यह हर साल करीब 1,77,20,112 करोड़ रुपए (240,000 करोड़ डॉलर) का अतिरिक्त बोझ डालता है। यह भार जलवायु और स्वास्थ्य पर पडऩे वाले असर के रूप में पड़ रहा है।

यदि अकेले स्वास्थ्य की बात करें तो इसके चलते 1,03,36,732 करोड़ रुपए (140,000 करोड़ डॉलर) का नुकसान हो रहा है। जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। यदि उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और उत्पादकता पर पड़ रहे असर का आंकलन करें तो वो करीब 59,06,704 करोड़ रुपए (80,000 करोड़ डॉलर) के बराबर है। जबकि जलवायु और पर्यावरण पर इसके पड़ रहे असर को देखें तो वो करीब 14,76,676 करोड़ रुपए (20,000 करोड़ डॉलर) के बराबर है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस तरह से कोविड-19 महामारी फैली है उसके चलते महिलाओं के स्वास्थ्य पर बोझ बढ़ता जा रहा है। जो महिलाएं आज भी खाना पकाने के लिए दूषित ईंधन का उपयोग कर रही हैं, उनपर इस महामारी का ज्यादा असर पडऩे की सम्भावना है, क्योंकि गंदे ईंधन और स्टोव से उत्पन्न होने वाला घरेलू वायु प्रदूषण उन्हें कोविड -19 और अन्य श्वसन रोगों के लिए अतिसंवेदनशील बना सकता है।

आंकड़ों के अनुसार हर साल करीब 40 लाख असमय मौतों के लिए इंडोर एयर पोलूशन जिम्मेवार होता है, जिसमें से ज्यादातर महिलाएं और बच्चे उसका शिकार बनती हैं।

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अफ्रीका की 10 फीसदी आबादी ही करती है साफ-सुथरे ईंधन का उपयोग

विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक यदि अफ्रीका की बात करें तो वहां की केवल 10 फीसदी आबादी ही खाना पकाने के लिए ऊर्जा के आधुनिक स्रोतों का उपयोग कर रही है, जबकि दक्षिण पूर्व एशिया में 21 फीसदी और दक्षिण एशिया की 27 फीसदी आबादी आज भी साफ-सुथरे ईंधन से वंचित है।

फिलहाल दुनिया भर में भारत, चीन जैसे कई देश पारम्परिक ईंधन से साफ-सुथरे ईंधन को अपनाने पर जोर दे रहे हैं इसके बावजूद आज भी एक बड़ी आबादी ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों पर ही निर्भर है, जिससे निपटने के लिए ठोस कदम उठाने की जरुरत है।

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