कृष्णमोहन झा
संसद के उच्च सदन राज्य सभा में लगभग 25 विधेयक पारित होने के बाद बुधवार को अनिश्चितकाल के लिए सत्रावसान कर दिया गया यद्यपि पहले निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सदन की कार्यवाही 8अक्टूबर तक चलना थी। कोरोना के बढ़ते मामलों के कारण सदन का समय पूर्व सत्रावसान करना पड़ा।
किसानों के जीवन में खुशहाली लाने की मंशा से मोदी सरकार ने जो तीन अध्यादेश जून में जारी किए थे उनको कानून का रूप देने के लिए सरकार ने संसद के इसी सत्र में तीन विधेयक सदन में पेश किए ये तीनों विधेयक लोकसभा में आसानी से पारित गए परंतु इनमें से दो विधेयकों को राज्यसभा में पारित कराने में सरकार को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी और विपक्ष के अभूत पूर्व हंगामे के कारण उन्हें ध्वनि मत से पारित कर दिया गया।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि ऐतिहासिक कृषि सुधारों का मार्ग प्रशस्त करने वाले इन विधेयकों पर अगर सदन में लंबी बहस चलती और सरकार को भी इन विधेयकों के कुछ प्रावधानों को लेकर किसानों की शंकाओं का समाधान करने के लिए और वक्त मिलता तो वह बेहतर स्थिति होती परंतु कुछ विपक्षी दलों ने खुद को किसानों का सच्चा हितैषी साबित करने के लिए सदन में जो हंगामा किया वह इन विधेयकों को सदन में ध्वनि मतदान से पारित कराने में सरकार के लिए परोक्ष रूप से मददगार साबित हुआ।
राज्यसभा के इस सत्र में श्रम सुधार, पेंशन नियमों में बदलाव और आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन संबंधी विधेयक भी पारित किए गए। 8 विपक्षी सांसदों को अनुशासनहीनता के आरोप में सदन से शेष अवधि के लिए निलंबित कल देने के बाद जब संपूर्ण विपक्ष ने ही सदन की कार्यवाही का बहिष्कार करने का फैसला कर लिया तब तो सरकार को बाकी विधेयकों को सदन से पारित कराने में और आसानी हो गई इसीलिए बहिष्कार के बाद के दो दिनों में सदन में 15 विधेयक बिना किसी बहस के पारित हो गए। इसे लोकतंत्र के लिए सुखद स्थिति नहीं माना जा सकता है।
स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा यही है कि जनहित और राष्ट्र हित से जुड़े सभी विधेयकों के कानूनी रूप लेने से पहले सदन में उन पर व्यापक विचार विमर्श किया जाए।
ऐतिहासिक कृषि सुधार के उद्देश्य से पेश किए गए विधेयकों को संसद के दोनों जनों की मंजूरी मिलने के बाद अब विपक्ष ने राष्ट्रपति से उन्हें स्वीकृति न देने का अनुरोध किया है यद्यपि विपक्ष को अपनी इस कोशिश में निराशा हाथ लगना तय है परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों की शंकाओं को दूर करने के लिए सरकार को ही पहल करना होगी। विपक्ष भी इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ लेने में कोई कसर नहीं छोडने के लिए तैयार नहीं है।
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निश्चित रूप से सरकार अभी भी निश्चिंत होकर नहीं बैठ। इन ऐतिहासिक कृषि सुधारों को लेकर अगर किसानों के मन में कोई गलतफहमी है तो उसे दूर करने की पहल सरकार की ओर से ही होना चाहिए। किसी भी मुद्दे पर सरकार के प्रति अपना विरोध जताने के लिए विपक्षी दलों के सदस्यों का सदन के गर्भ गृह में पहुच कर नारेबाजी करना तो अब सामान्य सी बात हो गई है परंतु गत रविवार को विपक्ष ने सदन में जो हंगामा किया वह घोर आपत्ति जनक ही नहीं बल्कि शर्मनाक था और इसके लिए सदन के सभापति वैंकय्या नायडू ने उन्हें मानसून सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित करने की जो कार्रवाई की उस पर सवाल उठाने से पहले विपक्ष को अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए था।
आश्चर्य की बात तो यह है कि निलंबित सदस्यों को सदन में अपने अशोभनीय आचरण के लिए खेद व्यक्त करने की आवश्यकता का अहसास भी नहीं हुआ बल्कि उन्होंने उपसभापति के विरुद्ध ही अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दे दिया लेकिन सभापति ने यह कहते हुए उसे नामंजूर कर दिया कि अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस देने के विपक्षी दलों ने इसके लिए तय नियमों का पालन नहीं किया।
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अविश्वास प्रस्ताव न तो निर्धारित प्रारूप में है और न ही इसके 14दिनों का नोटिस दिया गया है।दरअसल इस नोटिस का भी कोई औचित्य नहीं था। सभापति ने हंगामा करने वाले जिन 8 सांसदों को निलंबित किया उन्होंने सभापति के इस फैसले के विरोध में संसद भवन के परिसर में धरना शुरू कर दिया जो एक दिन समाप्त तो हो गया परंतु सरकार और विपक्ष के बीच टकराव की स्थिति अभी भी बनी हुई है।
राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण धरना दे रहे सांसदों के लिए जब घर से चाय नाश्ता लेकर पहुंचे तो उसका आशय यही था कि रविवार को सदन के अंदर विपक्ष के जिन सांसदों ने उनके साथ आपत्तिजनक व्यवहार किया उनके प्रति उनके मन में कोई दुराव नहीं है परंतु धरने में शामिल आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने कहा कि जब देश के करोड़ों किसान इन विधेयकों के विरोध में संघर्ष कर रहे हैं तब यहां व्यक्तिगत रिश्ते नहीं निभाए जा सकते। बाद में 8 सांसदों ने अपना धरना तो समाप्त कर दिया परंतु राज्यसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद ने घोषणा कर दी कि जब तक आठों सांसदों का निलंबन वापस नहीं लिया जाता और सरकार सदन में पारित कृषि विधेयकों को वापस नहीं लेती तब तक विपक्ष सदन की कार्यवाही का बहिष्कार करता रहेगा।
गौरतलब है कि उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वैंकय्या नायडू ने धरने पर बैठे सांसदों से एक ट्वीट के माध्यम से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। सभापति ने विपक्ष से सदन की कार्यवाही का बहिष्कार छोड़ कर सदन में लौटने की अपील भी की थी। उधर संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ये संकेत दिए थे कि अगर निलंबित सांसद उपसभापति के साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए खेद व्यक्त करने के लिए तैयार हों तो उनका निलंबन समाप्त किया जा सकता है।
प्रह्लाद जोशी ने यह दावा भी किया कि राज्य सभा में कृषि सुधार विधेयक पारित करवाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त बहुत था इसलिए विपक्ष ने अपनी पराजय की आशंका में हंगामा प्रारंभ कर दिया। अफसोस की बात यह है कि सरकार और विपक्ष के बीच की स्थिति निर्मित होने के पहले ही राज्य सभा का सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। अच्छा होता कि सत्रावसान की घोषणा के पहले सरकार और विपक्ष के बीच सुलह हो जाती। चूंकि अब सदन का सत्रावसान हो चुका है इसलिए सुलह की कोशिशों पर विराम लगने से इंकार नही किया जा सकता।
समूचे घटनाक्रम में एक नया मोड़ तब आया जब राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण ने रविवार को सदन में उनके साथ कुछ विपक्षी सांसदों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के संबंध में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को एक पत्र भेजा और रविवार की घटना के विरोध में एक दिन का उपवास करने की घोषणा कर दी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उपसभापति हरिवंश ने संसद परिसर में रात भर धरना देने वाले निलंबित सांसदों के लिए सुबह चाय ले जाकर जो सौजन्यता और विनम्रता प्रदर्शित की है वह सराहनीय है। राज्यसभा के उप सभापति के इस कदम को विपक्ष के साथ सुलह की पहल के रूप में देखा गया परंतु विपक्ष के सामने यह धर्म संकट था कि खुद को किसानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने का यह मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे।
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कुल मिलाकर सरकार और विपक्ष के बीच जारी टकराव दूर होने के निकट भविष्य में कोई आसार नहीं हैं क्योंकि विपक्ष की सरकार के साथ असली लड़ाई तो कृषि सुधार विधेयकों को लेकर है। वे अगर इनका विरोध करना छोड़ देंगे तो उनके पास सरकार का विरोध करने का बहुत बड़ा मुद्दा हाथ से निकल जाएगा इसलिए राज्य सभा का सत्रावसान होने के बावजूद वे अपनी लडाई जारी रखेंगे। संसद में पारित कृषि सुधार विधेयकों को अब राष्ट्रपति की मंजूरी मिलना बाकी है जिसमें संशय की कोई गुंजाइश नहीं है परंतु कई प्रदेशों के किसान अभी भी इन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं।
25 सितम्बर को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने इन विधेयकों के विरोध में बंद का आह्वान किया यद्यपि इस बंद का असर कुछ राज्यो में ही देखा गया परंतु विपक्षी दलों ने इसे अपना समर्थन प्रदान कर किसानों को यह संदेश देने की कोशिश की कि उनके हितों की चिंता सरकार से ज्यादा विपक्षी दलों को है।पंजाब और हरियाणा में इस बंद का ज्यादा असर रहा। पंजाब में किसानों के आंदोलन में अकाली दल बढचढ कर हिस्सा ले रहा है जिसे किसानों के बीच अपने घटते जनाधार की चिंता सता रही है।
राज्य के किसानों ने तीन दिन के रेल रोको आंदोलन की घोषणा की है जिसके तहत किसानों ने रेल की पटरियों पर कब्जा जमा लिया है। आंदोलनकारी किसानों ने धमकी दी है कि अगर तीन दिनों में कृषि विधेयकों पर उनकी मांगें नहीं मानी गई तो वे 28 सितंबर को देश की राजधानी के लिए कूच करेंगे। उधर केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने देश के सात राज्यो और केंद्र शासित प्रदेशों में नवीनतम कृषि सुधारों के बारे में एक पखवारे तक जागरुकता मुहिम चलाने का फैसला किया है। ये वही राज्य हैं जहां की बहुत बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है।
इस मुहिम को ‘आत्मनिर्भर किसान’ नाम दिया गया है जिसके अंतर्गत इन राज्यों के हर गांव में पार्टी के कार्यकर्ता घर घर जाकर लोगों को नए कृषि सुधारों के फायदों से अवगत कराएंगे।
इसके अतिरिक्त गांवों में चौपालों के माध्यम से भी किसानों को यह समझाने की कोशिश की जावेगी कि नए कृषि सुधारों से किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आना तय है। निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी को किसानों के मन से गलतफहमी को दूर करने की सक्रिय पहल करना होगी। किसानों का असंतोष देखकर भाजपा और केंद्र सरकार को यह अहसास हो गया होगा कि संसद में कृषि सुधार विधेयकों के पारित हो जाने के बाद अब उनके फायदों के बारे में किसानों को संतुष्ट करना भी उसके लिए किसी चुनौती से कम नहीं है।
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