शबाहत हुसैन विजेता
अस्पतालों में जगह नहीं है. रिश्तेदार अपने मरीजों को गाड़ियों में लेकर इस अस्पताल से उस अस्पताल भाग रहे हैं. अस्पताल की गैलरी में भी इलाज को तैयार हैं. स्ट्रेचर पर भी इलाज मिल जाए तो भी शुक्र का सजदा करे ले रहे हैं. अस्पतालों में बेड नहीं, जहां बेड है वहां आक्सीजन नहीं. अस्पताल भर्ती करने को तैयार हैं बशर्ते मरीज़ के रिश्तेदार आक्सीजन खुद लेकर आयें.
आक्सीजन का हाल यह है कि हफ्ता भर पहले जो सिलेंडर 12 हज़ार का था वो 18 का है. जब दुकानदार को याद दिलाया कि पिछले हफ्ते तो 12 का था, इस पर दुकानदार बोला ये आज का रेट है, लेना है तो लो वर्ना टाइम खराब मत करो.
आक्सीजन की जिस मशीन पर एमआरपी 12 हज़ार छपा है वो खुले आम 40 हज़ार की बिक रही है. अस्पताल बेतरतीबी से भरे हैं. किसी को आक्सीजन चाहिए, किसी को इंजेक्शन चाहिए तो किसी को प्लाज्मा की दरकार है. रिश्तेदार मारे-मारे घूम रहे हैं. कुछ मददगार भी रात-दिन एक किये हुए हैं.
महामारी जिंदगियों को लील जाने के लिए अपना बड़ा सा मुंह खोले हुए है. उसे जहां भी मौका मिल रहा है जान लिए ले रही है मगर ऐसे हालात में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो दोनों हाथों से पैसा कमा रहे हैं. 800 रुपये वाला इंजेक्शन 45 हज़ार रुपये में बिक गया. तमाम दवाएं बाज़ार से लापता हो गई हैं. मुंहमांगा पैसा देने पर भी दवाई नहीं मिल रही है.
कुछ साल पहले जब बोतलों में पानी बिकना शुरू हुआ था तब लोगों को बड़ा ताज्जुब हुआ था कि पानी बिक रहा है. हालात आज ऐसे मोड़ पर ले आये हैं कि हवा बिक रही है. हवा की कीमत इतनी ज्यादा है कि बहुत से लोग हवा की कीमत न दे पाने की वजह से मर रहे हैं तो बहुत से लोग पैसा खर्च करने के बावजूद हवा को हासिल नहीं कर पा रहे हैं.
आक्सीजन की कमी पहली बार नहीं हुई है जो व्यवस्था करने में दिक्कत हो रही है. याद करिये कुछ साल पहले गोरखपुर में आक्सीजन की कमी से तमाम बच्चे मर गए थे. आज आक्सीजन की कीमतें आसमान छू रही हैं क्योंकि आक्सीजन के जितने प्लांट होने चाहिए थे नहीं हैं. जितनी आक्सीजन की ज़रूरत है उतनी बन नहीं रही है.
राजधानी लखनऊ से लगे बाराबंकी जिले में आक्सीजन का एक बड़ा प्लांट बंद पड़ा है. इस प्लांट पर बिजली का बिल अदा न करने की वजह से ताला लगा हुआ है. सरकार प्लांट का बिल अदा करके तत्काल आक्सीजन निर्माण का काम शुरू करवा सकती है. बिल की कीमत तो आक्सीजन बेचकर भी वसूली जा सकती है.
लखनऊ में कोविड अस्पताल के बराबर में आक्सीजन प्लांट है. उसकी क्या स्थिति है पता की जानी चाहिए. पीजीआई में आक्सीजन निर्माण का काम शुरू हो गया है. तमाम लोगों ने खुद के सिलेंडर खरीद लिए हैं, तमाम लोगों ने आक्सीजन मशीनें खरीद ली हैं लेकिन मौत है कि ज़ोरदार आवाज़ करती हुई घूम रही है. वो एलानिया लोगों को मार रही है.
मरते हुए लोगों को बचाने के लिए यूपी सरकार के वरिष्ठतम अधिकारी भी अब अस्पतालों के सामने हाथ जोड़ रहे हैं कि भर्ती कर लो मगर अस्पताल हाथ खड़े किये हैं कि जगह नहीं है. लखनऊ में चालीस साल से पत्रकारिता कर रहीं ताविशी श्रीवास्तव की आक्सीजन न मिल पाने की वजह से मौत हो गई. उन्हें बचाने के लिए वरिष्ठ पत्रकारों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक के दरवाज़े खटखटाये, उन्हें बचाने की तमाम कोशिशें कीं मगर रात दस बजे अस्पताल पहुंचकर भी वह बच नहीं पाईं.
ताविशी श्रीवास्तव उस दर्जे की पत्रकार थीं जिन्हें पिछले चालीस साल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपालों के अलावा वरिष्ठतम अफसर नाम और शक्ल दोनों से पहचानते थे. अपनी पहचान रखने वाली ताविशी अपनी जान नहीं बचा पाईं. इलाज के लिए मुंहमांगा पैसा दे सकने की हैसियत वाले भी मर रहे हैं. एक-एक घर में कई-कई मौतें हो रही हैं. पद्मश्री हासिल करने वालों की भी सुनवाई नहीं है. जजों के फोन सुनने को भी कोई तैयार नहीं है.
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अजीब मंज़र है. हर तरह मौत है. हर तरफ तबाही है. ज़िन्दगी का चिराग तेज़ हवा से भड़क रहे हैं. यह महामारी खतरनाक है, जान ले लेती है. पैसा और पहुँच दोनों किसी काम के नहीं हैं. जान बचाना है तो दुनिया से छुप जाओ. समझ लो शहर में डाकू आ गए हैं, देखते ही मार डालेंगे. घरों में रहो, न कहीं जाओ न किसी को बुलाओ. यह वक्त गुज़र गया तो फिर मुस्कुरा सकती है ज़िन्दगी. यह बीमारी खतरनाक है, किसी को छोड़ती नहीं है. यह किसी रुतबे से डरती नहीं है. डरना तो इससे ही पड़ेगा. जिनके एक इशारे पर क़ानून बदल जाते हैं वह भी इसके सामने बेबस हैं. वह खुद इसका शिकार हैं. इससे लड़कर नहीं इससे छुपकर ही ज़िन्दगी को बचाया जा सकता है.