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पुण्यतिथि विशेष :अटल बिहारी की वो पांच कविताएं जो आज भी प्रासंगिक हैं

न्यूज डेस्क

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा नेता प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई की आज दूसरी पुण्यतिथि है। इस मौके पर पूरा देश उन्हें याद कर भावुक हो रहा है। लोग उनके साथ जुड़ी अपनी यादें भी सांझा कर रहे हैं। इसके अलावा सोशल मीडिया पर भी लोग उनकी कविताएं शेयर कर उन्हें याद कर रहे हैं।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा के मुख्यमंत्री, नेताओं समेत विपक्षी दलों के नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है। पीएम ने ट्वीट कर कहा कि देश के विकास में आपके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा।

मालूम हो कि 16 अगस्त 2018 को लम्बी बीमारी के कारण अटल बिहारी बाजपेई का निधन हो गया था।

अटलजी एक बेमिसाल कवि भी थे और उनका मन हमेशा कविताओं में ही बसता था। वे अक्सर कहा करते थे कि, ‘ये दिल्ली की राजनीति मुझ जैसे कवि को निगल जाती है, लेकिन मैं फिर भी डटा रहूंगा और लिखता रहूंगा।’

पूर्व प्रधानमंत्री की पुण्यतिथि पर हम उनकी पांच चुनिंदा कविताएं आपको पढ़ा रहे हैं जो उन्होंने अपने 60 साल के राजनीतिक सफर के दौरान अलग-अगल मौकों पर खूब इमोशनल होकर लिखी हैं। इनमें उनके खुद के जीवन और देश की वो बाते हैं जो झकझोर कर देती हैं।

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1- गीत नया गाता हूं

गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं।
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी
अंतर को चीर
व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं।

2- क्या खोया, क्या पाया जग में

क्या खोया, क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में,
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें।

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी,
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं,
यद्यपि सौ शरदों की वाणी,
इतना काफी है अंतिम दस्तक पर खुद दरवाजा खोलें।

जन्म-मरण का अविरत फेरा,
जीवन बंजारों का डेरा,
आज यहां, कल कहां कूच है,
कौन जानता, किधर सवेरा,
अंधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें।
अपने ही मन से कुछ बोलें।

3- एक बरस बीत गया

एक बरस बीत गया,
झुलासाता जेठ मास.
शरद चांदनी उदास.
सिसकी भरते सावन का.
अंतर्घट रीत गया.
एक बरस बीत गया।

सीकचों मे सिमटा जग.
किंतु विकल प्राण विहग.
धरती से अम्बर तक.
गूंज मुक्ति गीत गया.
एक बरस बीत गया।

पथ निहारते नयन,
गिनते दिन पल छिन,
लौट कभी आएगा,
मन का जो मीत गया,
एक बरस बीत गया।

4- जीवन बीत चला

कल कल करते आज,
हाथ से निकले सारे,
भूत भविष्यत की चिंता में,
वर्तमान की बाजी हारे।

पहरा कोई काम न आया,
रसघट रीत चला,
जीवन बीत चला.

हानि लाभ के पलड़ों में,
तुलता जीवन व्यापार हो गया,
मोल लगा बिकने वाले का,
बिना बिका बेकार हो गया।

मुझे हाट में छोड़ अकेला,
एक एक कर मीत चला,
जीवन बीत चला,

5- सच्चाई यह है कि

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं, ,मजबूरी है।

ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

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