प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव
लखनऊ के पुराने बाशिंदों को याद होगा 1976 में क्राइस्ट चर्च कालेज के सामने जीपीओ के निकट फुटपाथ एक दही बड़े का ठेला लगता था। यहां काफी भीड़ देखकर अक्सर लोगों के पांव ठिठक जाते। कार, स्कूटर साइकिल वालों से लगभग रास्ता जाम सा हो जाता था। यहां मिलते थे संतराम गुप्ता के मलाईदार ठंडे दही और सोंठ से लिपटे मुलायम दही बड़े।
जायका, पेश करने का सलीका और कम दाम की शोहरत देखते ही देखते घर घर तक पहुंच गयी। उनके बड़े पर पड़ने वाला ठंडा मीठा क्रीमी दही और नवरत्न सोंठ का स्वाद सबकी जुबान पर चढ़ गया। दूर दूर से लोग इनके दही बड़े का रहस्य जानने आने लगे। नेतानगरी से लेकर सचिवालय के अधिकारियों व बाबुओं की टोलियां आतीं और जी भर के दही बड़ों को स्वाद लेतीं। हर बाइट के साथ मुंह से वाह निकलती। पैकिंग की टीम अलग तेजी से हाथ चलाती रहती।…
उन दिनों को यादकर संतराम जी बताते हैं, ‘नगर निगम से हमने 1976 में ठेला लगाने की जगह एलाट करायी थी। हम ठेले पर हर तरह की चाट लगाते। लेकिन आलू टिक्की, मटर टिक्की और बताशों की जगह हमारे दही बड़ों को जो भी खाता तारीफ किये बिना नहीं रह पाता। दही बड़ों की डिमांड बढ़ी तो हमने 1990 में यहीं पर दुकान की जगह एलाट करा ली। हमारी दुकान का नाम अब शहर की सीमाओं को लांघकर देश व विदेश में हो चुका था। जब भी लजीज दही बड़ों की बात आती तो लोगों को जीपीओ के दही बड़े ही याद आते।
अतीत की गलियों से गुजरते हुए संतराम जी बताते हैं – लखनऊ व आसपास के लोग यह जानने आते कि भला इनमें क्या खासियत है जो इतना ज्यादा नाम है। 1993 में नगर निगम ने हमारे बगल की जगह में एक और दुकान एलाट कर दी। लेकिन यहां दही बड़े नहीं बनते थे बल्कि साउथ इंडियन डिशें बनती थीं। दोशा इडली आदि।
25अगस्त 2011 को नगर निगम ने हम दोनों की दुकानें तोड़ दीं। हमारे पड़ोसी दुकानदार ने कैपिटल सिनेमा के पास अपनी दुकान खोल ली ‘जीपीओ वाले ठंडे दही बड़े” के नाम से। हमारी दुकान का नाम था गुप्ता जी के दही बड़े। चूंकि हम जीपीओ के पास दुकान चलाते थे सो लोगों ने हमें जीपीओ वाले दही बड़े का नाम और पहचान दी। यह हमारा कालिंग नेम था। बहुत फेमस था। वहां से हटाये जाने के बाद हमने अपने घर साकेत पल्ली निकट चिड़ियाघर मेन गेट पर अपनी दुकान खोल ली। लोग कैपिटल के पास वाली दुकान से हमारी दुकान से कंफ्यूज करते हैं। जो हमारे परमानेंट ग्राहक थे और जब वो इस दुकान पर आते तो हमारा वाला स्वाद न पाकर परेशान हो जाते। पैकिंग भी वो पन्नी में करते तो भी उनका माथा ठनक जाता। हमारी पैकिंग भी काफी मशहूर थी। परेशान ग्राहक मेरा पता पूछते। फिर पूछते पाछते साकेत पल्ली आकर ही संतुष्ट होते। आज भी हमारे पुराने ग्राहक हमें ढूंढते हुए यहां तक आ जाते हैं।”
दही बड़ों की शुरूआत की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। बताते हैं गुप्ताजी, ‘तब हम पंद्रह साल के रहे होंगे। हमारे एक रिश्तेदार थे जिन्हें हम बाबा-बाबा कहते थे, वो शादी ब्याह में खाना बनाने का ठेका लेते थे। वो अपने साथ हमें भी ले जाते हैल्पर के रूप में। दही बड़े तो सभी पार्टी में बनते ही थे सो वह हमें अपने साथ लगा लेते दाल भिगोने, पीसने और तलने में। फिर मेरी कार्यकुशलता को देखते हुए उन्होंने मुझे फ्री हैंड यह टास्क दे दिया। दस साल मैंने दही बड़े बनाए और लोगों ने भर भरकर खाये। इस बीच मेरी शादी हो गयी। दस साल मुझे हो गया था दही बड़े बनाते हुए। घर परिवार की जिम्मेदारी भी बढ़ी। शादी ब्याह का काम तो सीजनल होता था। सोचा अपना काम करूं। बस यहीं से ठेले पर चाट बेचने का ख्याल आया। हमारे चार बेटियां और पत्नी सब मिलकर चाट बनाते। हमारे पास इतना पैसा नहीं था कि हम हैल्पर रखते। तब हम डेढ़ रुपये पत्ता चाट बेचा करते थे।”
‘आज हमारे तीनों बेटे मुकेश, छोटे लाल व इशु हमारा हाथ बंटाते हैं। हमने अपने दही बड़ों की क्वालिटी आज तक नहीं घटायी। दही बड़े में चार चीज ही पड़ती हैं दही सोंठ बड़े और ऊपर से मसाले। हमें इन सबकी क्वालिटी पर ध्यान देना पड़ता है। अगर इसमें एक आइटम भी कमजोर हुआ तो स्वाद बिगड़ जाएगा। कस्टमर आपको कभी एक्सक्यूज नहीं करता। वह दाम देता है तो उतने का माल भी चाहता है। यह कह सकते हैं कि औरों से हमारे दाम जरूर कुछ ज्यादा हैं लेकिन खाने के बाद ग्राहक खुशी खुशी पैसे देकर जाता है। आज महंगाई को देखते हुए चालीस का एक पीस हो गया है। लेकिन एक पीस खाकर आपकी तबीयत खुश हो जाएगी। साकेत पल्ली में खाने का इंतजाम नहीं है हम हर सामान अलग अलग हैड्रोलिक पैकिंग मशीन से आकर्षक पैक बनाकर बेचते हैं। यह सुविधा कोरोना के प्रकोप से बचने के लिए की गयी है।”
संतराम जी के सबसे छोटे सुपुत्र इशु गुप्ता बताते हैं, ‘मैं अपनी जॉब छोड़कर 2017 को अपने पुश्तैनी कारोबार से जुड़ा हुआ हूं। आज हम तीनों भाई इस व्यवसाय को बढ़ाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। हमारा सपना है कि जैसी हमारी दुकान जीपीओ के पास थी, वैसा ही आउटलेट हम कहीं सेट करें। उसके बाद ही हम फ्रैंचाइजी देने की ओर विचार करेंगे। शहर में अन्य स्थानों में अपने आउटलेट भी खोलने की योजना है लेकिन यह सब महामारी के बाद ही सम्भव होगा। एक बात आपको बोलूं हमारे माता पिता ने हमें यही सिखाया है कि जिन्दगी में कभी पैसों के पीछे मत भागना क्योंकि वह सब यहीं रह जाएगा। बस अपनी इज्जत आैर नाम बनाना जो तुम्हारे जाने के बाद भी लोगों की जुबान पर रहेगा।”
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)