रफ़त फातिमा
रोए बग़ैर चारा न रोने की ताब है
क्या चीज़ उफ़ ये कैफ़ियत-ए-इज़्तिराब है
COVID-19 के संकट से मुक़ाबले का एक तरीक़ा ‘लॉकडाउन’ तजवीज़ किया गया। अन्य देशों में सरकारें जिस तरह लॉकडाउन से उत्पन्न समस्याओं के समाधान के लिये पैकेज की घोषणा कर रहीं हैं, उसकी तुलना में हमारी स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत जैसे देश में आर्थिक विषमता की शक्ल बहुत ही भयानक है।
जिस प्रकार लॉकडाउन -1 की घोषणा की गयी उसने सरकारी मशीनरी की कार्य पद्धति, संवेदनहीनता और प्रशासनिक अकुशलता से परिचय करा दिया है। आज़ाद भारत में इस प्रकार आम जनता -जिसमें अधिकतर मज़दूर, कामगार, ग़रीब और कमज़ोर तबक़े के ही लोग थे, को अपने गाँव और शहर की तरफ़ वापिसी के सफ़र की त्रासदी से गुज़रना पड़ा वह हम सबके लिए पीड़ादायक है।
लॉकडाउन -2 की घोषणा से आर्थिक परेशानियों से पैदा होने वाली कई क़िस्म की सामाजिक और मानसिक परेशानियों से ग़रीब अवाम को सामना करना पड़ रहा है।
लॉकडाउन की अवधि बढ़ाये जाने के दृष्टिगत केंद्र सरकार की तरफ़ से कोई इस प्रकार की घोषणा नहीं हुई है कि समाज के निचले पायदान पर ज़िंदगी जीने वाले, जिनके विषय में ‘रोज़ कुंआ खोदने और पानी पीने वाली’ कहावत चरितार्थ होती है, कि वह किस प्रकार अपनी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करेंगे। क्या यह मान लिया जाये कि केवल दो वक़्त का अपौष्टिक आहार ही मात्र उनकी आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जन-धन के अंतर्गत परिवार के महिलाओं के खाते में 500 की अल्प धनराशि से क्या कोई मक़सद हल होगा।
समाज के निचले तबक़े की आमदनी एक तरह से ख़त्म हो जाने से इस का असर दिमाग़ी तौर पर घर के सभी सदस्यों पर पड़ना लाज़मी है। ऐसे में अगर कोई छोटी- मोटी कोई अन्य बीमारी का बोझ उठाना भी बहुत मुश्किल साबित हो सकता है।
इसमें कोई शक नहीं है कि वर्तमान गंभीर स्थिति को देखते हुए लॉकडाउन को वैज्ञानिक तरीक़े से लागू किया जाये क्यूँकि “जान है तो जहान है”। इसलिये कारपोरेट जगत के हितों की सुरक्षा के बजाये ग़रीब जनता के हितों को सर्वोपरि रखना होगा।इसके लिये आवश्यक है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपना खजाना खोलें और सभी जरूरतमंद भारतवासियों, श्रमिकों के घरबन्दी के दौरान उनकी आजीविका- भोजन और अन्य जरूरी ज़रूरियात की मुफ़्त आपूर्ति की गारंटी करें।
बढ़ेगी गरीबों के बच्चों की मुश्किल
खाद्य वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य एक गम्भीर समस्या से मज़दूरों, टेम्पो चालक, छोटे कारीगर सहित तमाम दो चार होने वाले हैं, वह है जुलाई में स्कूल खुलने पर बच्चों के दाख़िले, फ़ीस और किताबों पर व्यय होने वाली धनराशि का बंदोबस्त करना।
इसके अतिरिक्त उच्च या मध्यवर्ग की तरह ग़रीबों के बच्चे ऑनलाइन क्लासेस की सुविधा का लाभ उठाना उनके लिये सम्भव नहीं है। क्योंकि इसके लिये ज़रूरी infrastructure से वह महरूम हैं। जिसका नतीजा यह है शिक्षा में यह तबक़ा अधिक पिछड़ सकता है और ड्रॉप आउटस की प्रबल सम्भावना भी है।
गरीबों की रिहाईश एक बड़ी फिक्र
कमज़ोर और ग़रीब अवाम के रहन-सहन और unhygienic माहौल से सरकार भी भली भाँति परिचित हैं, लेकिन कोई ऐसी नीति निर्धारित नहीं हुई है जो इस समस्या का निदान प्रस्तुत करती हो। हमारी आबादी का एक बड़ा भाग जिस प्रकार ऐसे घरों और इलाक़ों में रहने को विवश है जिसमें ना स्वच्छ हवा है, ना माक़ूल रौशनी का इंतज़ाम और ना ही स्वच्छ और पीने योग्य पानी की उपलब्धता, इन हालात में अन्य बीमारियों के संक्रमण का ख़तरा और सिलसिला भी जारी रहता है
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बड़े शहरों विशेषकर मुंबई और दिल्ली में ग़रीब, अन्य राज्यों के प्रवासी, निम्न वर्ग सहित बहुत बड़ी आबादी के घरों की कल्पना मात्र से ही सिहरन सी होती है। उनकी ज़िंदगी की दिनचर्या ही इस प्रकार की है वह कम से कम घर पर रहें क्योंकि उनका अधिकतर समय कारख़ानों, दफ़्तर या सड़कों पर गुजरता है। ऐसे में लॉकडाउन से उनकी ज़िंदगी पर विषम प्रभाव पड़ा है वह एक घुटन भरी अमानवीय ज़िंदगी गुज़ारने के लिये मजबूर हैं।जिसके कारण मानसिक तनाव और स्वभाव में चिड़चिड़ापन पैदा होना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। इनके अफ़वाहों से जल्दी प्रभावित होने की सम्भावना भी बहुत प्रबल रहती है।
बढ़ता मानसिक तनाव नई समस्याओं को जन्म देगा
आय के साधन बहुत सीमित होने के कारण अक्सर ग़रीब तबक़ा बहुत ही तंगी में ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर रहता है, ऐसे में मज़ीद आर्थिक समस्या के कारण परिवार के सभी सदस्य मानसिक तनाव से ग्रस्त हो कर पारिवारिक तनाव में वृद्धि का कारण बन सकते हैं। जिसका परिणाम घरेलू हिंसा के रूप में सामने आ सकता है। इसके कई कारण सामने आ रहे है। पहले कामकाजी महिलायें घर की परेशानियों और पति के ग़ुस्से से बच कर थोड़े समय ही सही बाहर खुली हवा में साँस ले लेती थी या फिर अपने माता-पिता या किसी रिश्तेदार के घर चली जाती थी। लेकिन अब इसकी सम्भावना भी ख़त्म हो गयी है और वह उपेक्षित होकर भी घर में पति द्वारा सताए जाने को मजबूर है।
अगर प्रताड़ित होने की शिकायत लेकर थाने जाती तो एक डर कि वापस घर जाने पर ज़ुल्म ज़्यादती और अधिक बढ़ जाएगी।इस प्रकार महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ने की सम्भावना अब बहुत अधिक हो गई है।
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इस पर अगर गौर करे इस घरेलू हिंसा के बाद जब लॉकडाउन खुलेगा तो मानसिक बीमारियों का खतरा भी बढ़ेगा। चिकित्सा विशेषज्ञों की राय है कि वर्तमान स्थिति के मद ए नज़र लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग का दुष्परिणाम देखने को मिलेगा।मनोचिकित्सकों की मानें तो जो मानसिक अवसाद से पीड़ित और चिड़चिड़ेपन का शिकार जो लोग होते हैं उनको चिकित्सीय सलाह यह दी जाती है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा सामाजिक दायरा बढ़ायें अन्य मित्रों के बीच जायें और एकांतवास में ना रहें। लॉकडाउन में अलग परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है जिससे मानसिक अवसाद में अधिकतर लोगों के घिरने की सम्भावनाएँ बढ़ जाएगी।
इसी लॉकडाउन में कुछ दिन पहले की ही घटना है जिसमें पति द्वारा पत्नी को सताने की शिकायत मिली जिसमें पीड़िता ने फ़ोन से आपबीती सुनाते हुए मदद की गुहार करी। ऐसे ही ना जाने कितनी महिलायें आपराधिक प्रवृति के लोगों की साथ रहने को मजबूर होंगी।
भविष्य की फिक्र बहुत बड़ी है
मानसिक अवसाद के होने की अनेक वजहें है एक सबसे ख़तरनाक सोच भविष्य को लेकर है कि कल क्या होगा? क्योंकि भारतीय जन मानस भविष्य के लिये बहुत सजग रहता है, वो अपने वर्तमान समय से ज़्यादा भविष्य कि चिंता में घुला रहता और अपने परिवार एवं बच्चों के आने वाले कल को संवारने में कोई कसर नही उठा रखता है।आर्थिक रूप से टूटने के पश्चात यह भी एक बड़ा संकट समाज में मानसिक अवसाद की घटनाओं में बढ़ोतरी का कारण बनेगा।
इसलिये कोरोना वाइरस का संकट केवल आर्थिक सतह पर नहीं होगा बल्कि इससे पैदा होने वाली सामाजिक और मानसिक समस्याओं पर भी पड़ेगा जिस पर गहन विचार और अध्ययन की ज़रूरत है।
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(लेखिका आल इंडिया कांग्रेस कमेटी अल्पसंख्यक विभाग की कोऑर्डिनेटर हैं)