संदीप पांडेय
ज्यादा दिन नहीं बीता हैं जब बिहार समेत देशभर के विपक्षी दलों के लाडले बन गए थे, जेएनयू वाले कन्हैया कुमार। चूंकि कन्हैया मूलत बिहार के बेगूसराय जिले के रहने वाले हैं, लिहाजा बिहार के नेताओं ने कुछ ज्यादा ही गर्मजोशी से उनके साथ रिश्ता बनाया।
लालू प्रसाद, तेजस्वी, कांग्रेसी नेतृत्व, शरद यादव या फिर बीजेपी का साथ दोबारा, तिबारा पकड़ने से पहले नीतीश कुमार सब के सब कन्हैया कुमार की जयकार करने की होड़ में लगे थे। कन्हैया से मुलाकात करना, फोटो सेशन करवाना और नरेन्द्र मोदी को कोसना ये सारी कवायद नियमित अंतराल पर होने लगी। ये लगने लगा था कि विपक्ष इन सियासी हरकतों से बरकत पाने की कोशिश कर रही है।
फिर अचानक से क्या हुआ कि कन्हैया और विपक्ष का रिश्ता अवैध सा दिखाई देने लगा। दोस्त एक दूसरे से मुंह फेरने लगे। गठबंधन की गांठ से साथी सरकने लगे। जिस जंग के लिए कन्हैया का पोषण हो रहा था उसके आरम्भ होते ही कन्हैया कुमार को चक्रव्यूह में अकेला छोड़ दिया गया।
बिहार में तेजस्वी यादव की अगुवाई में बने महागठबंधन में कन्हैया कुमार के लिए कोई जगह नहीं बची। बेगूसराय सीट से आरजेडी ने तनवीर हसन को उतारकर साफ कर दिया कि उसकी लड़ाई बीजेपी से भी है और कन्हैया कुमार से भी। यहीं से शुरू हुआ कयासबाजी का दौर जिसमें कुछ लोगों ने दावा किया कि तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार से डर गए। डर इस बात था कि कहीं कन्हैया, भविष्य में अपना जनाधार न बना लें और तेजस्वी को पीछे छोड़ दें।
सूत्रों की मानें तो कन्हैया को महागठबंधन से बाहर करने की राय लालू प्रसाद ने दी थी। लालू नहीं चाहते हैं कि कन्हैया उनकी मदद से सांसद बनें और बाद में उनके लिए ही खतरा साबित हो, लेकिन लालू प्रसाद की राजनीति को समझिए तो इस दांव का निशाना वहां है, जहां से लालू प्रसाद की राजनीति को उभार मिला था।
90 के दशक की शुरूआत में जब बिहार की सत्ता लालू प्रसाद के पास आई थी तो लालू ने सबसे पहले सामाजिक न्याय के नाम पर पिछड़ों और दलितों को लामबंद किया। लालू प्रसाद का यही को काम था जो कागज के बजाए जमीन पर दिखाई दे रहा था।
लालू प्रसाद इतिहास और तत्कालिक सामाज के विरोधाभास को बखूबी समझ रहे थे। उन्हे मालूम था कि भले ही कांग्रेस के विरोध के नाते 1990 में जनता दल को सत्ता मिल गई थी लेकिन सिर्फ कांग्रेस के विकल्प के तौर पर लंबे समय तक सत्ता नहीं टिक सकती थी।
लालू प्रसाद को एक ऐसा वोट बैंक चाहिए था जो सिर्फ लालू के नाम पर वोट करे। चूंकी बिहार में लालू से पहले सत्ता की बागडोर कमोवेश अगड़ी जाति खासकर भूमिहारों के हाथ में रही थी। सत्ता ही क्यों ? भूमिहीनों और दलितों को सबल बनाने का नारा देने वाले वाम दल या जो सामाजिक आंदोलन चले उसमें भी भूमिहार जाति के नेताओं की महती भूमिका रही थी।
इसे ऐसे समझिए कि बिहार में वामपंथी आंदोलन की नींव चंदेश्वरी सिंह ने रखी तो 1956 में बेगूसराय के उपचुनाव में चंद्रशेखर सिंह लाल झंड़ा फहराकर इसे जिले को नया नाम ‘पूरब का लेनिनग्राद’ दिया। जमींदारी उनमूलन के लिए सहजानंद सरस्वती ने आंदोलन चलाया तो कई बार सांसद रहे शत्रुघन सिंह और विपक्ष के नेता रहे बसावन सिंह दलितों, गरीबों की आवाज बने। मूल ये है कि बिहार में एक समय ऐसा भी था कि दलितों की अगुवाई भूमिहार जाति के नेताओं के हाथ में थी।
यही इतिहास लालू प्रसाद के लिए सबसे बड़ा खतरा थी। और शायद इसिलिए सत्ता में आते ही लालू प्रसाद ने पिछड़ों और दलितों को अपने पाले में करने के लिए भूमिहारों को उनका सबसे बड़ा दुश्मन बताया। तभी तो दलितों और भूमिहारों के बीच होने वाले हिंसक संघर्षों को जितना तव्वजो दिया गया उतना कुर्मी और दलितों के संघर्षों को नहीं दिया गया। जैसे बारा, सेनारी, लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नरसंहारों पर तो हायतौब्बा मची, लेकिन पीपरा और बेल्छी नरसंहार को दबा देने की कोशिश की गई।
ये अंचभित करने वाला है कि जाति देखकर नरसंहारों पर चर्चा की गई। पीपरा और बेल्छी नरसंहार में आरोप लगा था कि कुर्मी जाति के दबंगों ने दलितों को मारा था। लेकिन कुर्मी पिछड़ी जाति से आते हैं लिहाजा इन घटनाओं पर खामोशी अख्तियार कर ली गई। क्योंकि ये लालू प्रसाद की रणनीति का खास हिस्सा था। जिसमें पिछड़ों और दलितों को भूमिहारों के खिलाफ बरगला कर अपनी सत्ता बचाए रखनी थी।
इतिहास खुद को दोहराता है और शायद लालू प्रसाद ने कन्हैया के पन्ने में भी उसी अतीत का अक्स देख लिया हो। कन्हैया कुमार एक ऐसे नेता के तौर पर उभर रहे हैं जो देशभऱ में अपनी पहचान रखता है, एक खास वर्ग के युवाओं में लोकप्रिय भी है और वामपंथी दल से जुड़ाव के नाते उस वर्ग में घुसपैठ कर सकता है जो लालू प्रसाद ने तैयार किया था और अब अपने बेटे तेजस्वी यादव को उस वर्ग का मालिकाना हक दे चुके हैं।
तो घुम फिर कर सवाल वहीं है कि क्या कन्हैया कुमार को भूमिहार होने के नाते महागठबंधन में जगह नहीं मिली। अगर ऐसा है तो महागठबंधन का ये दावा कि वो ‘नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लड़ रहा है’ बेमानी सा लगता है यहां तो सब अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। तो फिर दलित कहां है? चौसर देखिए वहीं मोहरे बनें हुए हैं।
(लेखक टीवी पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)