रिपु सूदन सिंह
नारी (औरत) असीम ऊर्जा और कल्पनातीत सृजनशीलता का एक अद्भुत केंद्र है जो पुरुष का सृजन करती है। वह अपनी समूची ऊर्जा, अथाह क्षमता और जान हथेली पर रख कर उसको इस ब्रह्मांड मे प्रक्षेपित करती है। कभी कभी वह किसी उपग्रह की ही तरह खुले आसमान मे फट कर ख़त्म भी हो जाती है।
मरते समय भी उसकी चिंता यह होती है कि क्या उसका नवजात शिशु (सन) जिंदा तो है? क्या वह शिशु उसके बिना कुछ भी है? उसे उस समय प्रसूति वैराग्य होता है। वह अपनी पूर्णता (अल्टीमेट) को पा लेती है। बिना नारी के क्या परम परमेश्वर का अस्तित्व भी हो सकता है? नारी इस पृथ्वी पर प्रकृति का ही सजीव रूप है। प्रकृति औरत मे सिमट कर साकार हो उठती है। यह ब्रह्माण्ड उसमे निवास करने लगता है।
नारी को जितना कृत्रिम-उपभोगितावादी बनाया जाता, उसके अंदर की प्रकृति उतनी ही कमतर होती जाती। उसका नैसर्गिक स्त्रीत्व (फ़ेमिनिटी) क्रमश क्षीण होता जाता। उस स्त्रीत्व की क्षति दुनिया की क्षति बन जाती। समूचा वैश्विक जगत आधी नारी और आधे पुरुष का प्रतिफल है।
अर्द्धनारीश्वर का विचार भारत विश्व-दृष्टि की एक अद्भुत खोज है। यह पुरुष और प्रकृति का स्वाभाविक संयोग है। पश्चिम का अब्राहमिक विश्व-दृष्टि की तरह यह मानव सृष्टि को कोई पाप कर्म (सिन) का प्रतिफल नहीं मानता। नर-नारी का मिलन अपराध और दंडनीय नहीं वरन पूजनीय और अनुकरणीय है। अर्द्धनारीश्वर सृष्टि सृजन करता है। यह विज्ञान सम्मत है। यह सार्वभौमिक और सार्वकालिक भी है। वैश्विक जगत को चाहिए कि ममत्व को वैश्विक धरोहर घोषित कर सभी सरकारों को उसे संरक्षित करने का निर्देश दे।
क्या कोई भी औरत के मां होने का कोई और कारण बता सकता है? माँ के इस इंसानी सृजन मे किसी अदृश्य-आसमानी शक्ति की कोई भूमिका हो भी सकती है? आसमान मे रहने वाला एक कल्पित पिता पृथ्वी पर जीवन-मरण से जूझती माँ के इस प्रजनन की पीड़ा को कभी नहीं समझ सकता?
आश्चर्य होता है की वह नारी कितनी सीधी है कि उस ऊर्जा पुंज (पुरुष) को जन्म दे कर चुपचाप उसे पुरुषो को सौप देती और उसे अपना नाम भी न देती। समर्पण और त्याग की ऐसी मिसाल न दुनिया मे कभी थी और न ही कभी बन सकती है। पुरुष नारी के इस ऋण को कभी चुका ही नहीं सकता। निसंदेह इस सृष्टि सृजन मे पुरुष का अपना योगदान है। पर प्रजनन में वह मात्र एक नर (एक मेल) की हैसियत से भाग लेता है। दोनों के योग से ही मनुष्य जाति का निर्माण होता है।
इस ब्रह्मांड (यूनिवर्स) की प्रत्येक चल और अचल वस्तु मे यह अर्द्धनारीशवर उपस्थित है। हिमालय पुरुष तो नदियाँ नारी। आकाश पुरुष तो अंतरिक्ष नारी। सूरज पुरुष तो पृथ्वी नारी। सागर पुरुष तो उसमे से निकलने वाली उष्णा नारी। बादल पुरुष तो बूँदें नारी। जल पुरुष तो ओसें नारी। पर्यावरण पुरुष तो प्रकृति नारी। यह कहानी अनंत है। पूरी दुनिया ही नर-नारीमय है। पर नारी (मादा) प्रमुख सकारात्मक और सक्रिय भूमिका मे है। वह कर्ता है, वही पर पुरुष एक सीमित भूमिका मे है, वह कर्म है और निष्क्रिय है। नारी प्रदाता (प्रोवाइडर) है, पुरुष प्राप्तकर्ता (रिसीवर) है। नारी कारण है, पुरुष मात्र उसका प्रभाव है। औरत ब्रह्मांड मे व्याप्त अथाह ऊर्जा का वह एक अभिन्न हिस्सा है।
ब्रह्मांड मे जहाँ एक स्थिर ऊर्जा है, वही दूसरा निरंतर प्रवाहमान ऊर्जा है। मौन स्त्रीत्व ऊर्जा है वही क्रोध पुरुसत्व ऊर्जा है। पर दोनों के समिल्लन से ही यह कायनात (यूनिवर्स) चलती है। उसके बिना सब कुछ अपूर्ण और अनिर्मित रह जाए। प्रकृति ने सर्वत्र मादा (फ़ीमेल) की भूमिका को सृजन के साथ ही जोड़ा है। नारी की अन्य भूमिका समाज द्वारा निर्मित और अर्जित है।
प्रकृति ने नारी को एक खास किस्म से तैयार किया है। वह एक्स और एक्स क्रोमोसोम से मिलकर बनती, न कि पुरुष की तरह एक्स और वाई क्रोमोसोम से। इसी चलते वह पूर्ण और सुंदर लगती। वह अनायास ही आकर्षित करती, लुभाती, अपनी ओर बरबस खींचती। नारी हर रूप, रंग, रोल, उम्र में अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों के चलते उपयोगी होती। स्त्री की सुंदरता नैसर्गिक होती, पुरूष को सुंदर बनने के लिए यत्न करने पड़ते।
नारी को मां बनने के लिए कुछ नहीं करना होता, पुरूष को पिता, पुत्र, पति या प्रेमी बनने के लिए जीवन भर प्रयास करना होता और अपने को सिद्ध करना होता। नारी को उसके मां के पद से कोई नहीं हटा सकता। पुरूष के ये पद कभी भी खत्म हो सकते है। माँ के पद का कोई रिपलेसमेंट बना ही नहीं। इसीलिए पुरूष उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता क्योकि औरत उसमे हर वक्त रहती है।
नारी कभी किसी दंगा, फसाद और युद्ध मे भी भाग नहीं लेती। जहाँ वह सृजन और निर्माण करती तो वही पुरुष विनाश और विध्वंश मे लग जाता है। जहाँ वह इस धरा पर ही स्वर्ग का निर्माण करती, वही पुरुष (मर्द) मरने के बाद के स्वर्ग की संरचना मे लगा रहता है। गजब ट्रैजिडि है की जहाँ औरत दुनिया रचती तो पुरुष उसे ही रच और बांध देता।
वह उसे घेरने के लिए लाखो-अरबों पन्ने के शास्त्र और किताबें लिखता। उसे ईश्वरीय, अपौरुषेय और आसमानी घोषित करता। उसे नर्क और दोज़ख़ का डर दिखाता। दूसरी ओर वह औरत उसका कोई जवाब न देती। न ही वह अपने बचाव मे कोई शास्त्र और न शस्त्र उठती। न ही कोई किताब लिखती और न ही अपनी किसी बात को मनवाने के लिए किसी ऊपर वाले के डर का खौफ दिखाती। अंत मे वह औरत उस पुरुष की न समझ मे आने वाली बातों को सुनकर थक-हार जाती। कहती ‘हमे नहीं समझ आता तुम पुरुषो की बाते। तुम जो कहो हमे मंजूर है।‘
वह मस्त और निश्चिंत हो जाती । वह पुरुषो की मान, मर्यादा, उसके दंभ के लिए महीनो कंपकपाती ठंड मे बाहर नारे लगाती, डंडे खाती, जेल जाती, बीमार पड़ जाती। वह जाड़े मे किसी नदी, पोखरे या फिर किसी जल में खड़े भूखे, नंगे पाव उस पुरुष के जीवन, आयु, सुख और समृद्धि के लिए सूरज की वंदना करती। चाँद देखती, रोजे रखती, उसके लिए प्रैयर करती।
वह चुपचाप सफ़ेद लिबास पहन लेती, प्रकृति प्रदत्त सुंदरता को ठुकरा देती, वह उसके मृत शरीर को शय्या मानकर जलती आग मे कूद जाती। धन्य है। वह अनंत है, अथाह है, असीम है, अगम्य है, अविभाज्य है, अबूझ है, भोलीभाली, नासमझ है या फिर बहुत ही समझदार है? वह कैसी है? शायद कोई न समझ सकता? क्या कोई जान सकता उसके रहस्य को?
पश्चिम की फेमिनिज्म की धारणा पुरुष प्रधानता की प्रतिक्रिया में उत्पन्न होती है। उस वैचारिकी का संभवतः तीन प्रमुख लक्ष्य था; प्रथम, पुरुषत्व (पुरुष प्रधानता) का विरोध, दूसरा नर-नारी में समानता का भाव लाना और तीसरा नारी को स्वयं पुरुषत्व में बदल कर नारी वर्चस्व की स्थापना करना। पूरा आंदोलन स्त्री-पुरूष के विरोध में खड़ा हो जाता है।
पश्चिम में भी यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब वहां की स्त्री ज्ञानोदय के चलते उस आसमानी होली किताब, चर्च और उसके निर्देशों से मुक्त हो चुकी थी। दूसरी ओर आज भी बहुसंख्यक नारी शास्त्र और आसमानी पुस्तक से मुक्त न हो सकी है। सवाल उठता कि मानव जाति (रेस) को जन्म देने वाली माँ धीरे धीरे उस पुरुष की दासी और लौंडिया कैसे बन जाती? स्त्री-पुरुष का भेद कब, कहाँ और कैसे उत्पन्न हुआ? मातृत्व परिवार संस्था के आने से पहले से ही था। एक लंबे समय तक पिता था ही नहीं। माता ही जनसमूह का केंद्र थी।
परिवार संस्था पुरुषों के ही दिमाग की उत्पत्ति थी जिसमे नारी उलझ गई और उसे प्रकृति प्राप्त अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। परिवार संस्था ही आगे चल कर राजसत्ता का आधार बनी। धीरे धीरे स्री-जाति द्वेष भी शुरू हो गया। पुरुष उसे अपने पराक्रम और बदला लेने का माध्यम बना लेता। कुछ समाजों ने अपनी पुरानी सोच मे सुधार किए पर कुछ समाज उसे रिलीजन और मजहब के नाम पर रत्ती भर परिवर्तन नहीं करना चाहते। कोई भी जाति (रेस) या मुल्क बिना नारी के सहयोग के आगे नहीं बढ़ सकता। मध्य युग मे पूरा यूरोप इस हिंसा के दौर से गुजरता है।
आज 21वी सदी तक मे पश्चिम एशिया समेत अनेक मुल्को मे औरतों का यही हाल है। जब तक वहाँ की औरतों को जमीनी हक नहीं दिया जाता और मनगढ़ंत आसमानी किताबों से आज़ादी नहीं मिलती, वहाँ हिंसा रुकने का नाम नहीं ले सकती। आज जरूरत है कि परिवार संस्था को अधिक से अधिक प्रजातान्त्रिक बनाने की।
जरूरत है उस झगड़े के कारण पर प्रहार किया जाये न कि उसके प्रभाव पर व्यर्थ लाठी चलाने की। अर्धनारीशवर का विचार उस बिना मतलब की लड़ाई का एक तार्किक पटाक्षेप कर सकता है। इस अवधारणा को बहुत ही खुले मन से और गहराई से विचार करना होगा। उत्तर कोरोना नारी-विमर्श इस पर गंभीरता से विचार करेगा और असंख्य यक्ष सवाल, जवाब और उसके समाधान इंतजार करेगे।
(लेखक अंबेडकर केंद्रीय विश्वविदयालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं)