अभिषेक श्रीवास्तव
आज बहुत लोगों से फोन पर बात हुई। चौथा दिन है बंदी का, लग रहा है कि लोग हांफना शुरू कर चुके हैं। अचानक मिली छुट्टी वाला शुरुआती उत्साह छीज रहा है। चेहरे पर हवा उड़ने लगी है। कितना नेटफ्लिक्स देखें, कितना फेसबुक करें, कितना फोन पर एक ही चीज के बारे में बात करें, कितनी अफ़वाह फैलाएं वॉट्सएप से? कायदे से चार दिन एक जगह नहीं टिक पा रहे हैं लोग, चकरघिन्नी बने हुए हैं जैसे सबके पैर में चक्र हो। ये सब समाज में अस्वस्थता के लक्षण हैं। अस्वस्थ समाज लाला का जिन्न होता है, हुकुम के बगैर जी नहीं सकता।
स्वस्थ समाज, स्वस्थ आदमी, मने स्व में स्थित। स्व में जो स्थित है, उसे गति नहीं पकड़ती। गति को वह अपनी मर्ज़ी से पकड़ता है। गति में भी स्थिर रहता है। अब सारी अवस्थिति, सारी चेतना हमारी, बाहर की ओर लक्षित रही इतने साल। हमने शतरंज खेलना छोड़ दिया।
हॉकी को कौन पूछे, खुद हॉकी वाले छोटे छोटे पास देने की पारंपरिक कला भूल गए। क्रिकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी का कब्ज़ा हो गया। घर में अंत्याक्षरी खेले कितनों को कितने बरस हुए? किताब पढ़ना भूल जाइए ट्विटर के दौर में, उतना श्रम पैसा मिलने पर भी लोग न करें। खाली बैठ कर सोचना भी एक काम है, लेकिन ऐसा कहने वाला आज पागल करार दिया जाएगा।
ये इक्कीस दिन आर्थिक और सामाजिक रूप से भले विनाशक साबित हों, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर इसका असर बुनियादी और दीर्घकालिक होगा। बीते पच्चीस साल में मनुष्य से कंज्यूमर बने लोगों की विकृत सांस्कृतिकता, आधुनिकता के कई अंधेरे पहलू सामने आएंगे।
कुछ लोग शायद ठहर जाएं। अदृश्य गुलामियों को पहचान जाएं। रुक कर सोचें, क्या पाया, क्या खोया। बाकी ज़्यादातर मध्यवर्ग एक पक चुके नासूर की तरह फूटेगा क्योंकि संस्कृति के मोर्चे पर जिन्हें काम करना था, वे सब के सब राजनीतिक हो गए हैं। जो कुसंस्कृति के वाहक थे, वे संस्कार सिखा रहे हैं।
गाड़ी का स्टीयरिंग बहुत पहले दाहिने हाथ आ गया था, दिक्कत ये है कि चालक कच्चा है। उसने गाड़ी बैकगियर में लगा दी है और रियर व्यू मिरर फूटा हुआ है। सवारी बेसब्र है। उसे रोमांच चाहिए। इस गाड़ी का लड़ना तय है।
तीन हफ्ते की नाकाबंदी में ऐक्सिडेंट होगा। सवारी के सिर से खून नहीं निकलेगा। मूर्खता, पाखंड, जड़ता का गाढ़ा मवाद निकलेगा।
भेजा खुलकर बिखर जाएगा सरेराह। जिस दिन कर्फ्यू टूटेगा, स्वच्छता अभियान वाले उस सुबह मगज बंटोर के ले जाएंगे और रिप्रोग्राम कर देंगे। एक बार फिर हम गुलामियों को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित कर के रेत में सिर गड़ा लेंगे।
(लेख स्वतंत्र पत्रकार हैं )
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)