Tuesday - 29 October 2024 - 1:31 PM

#CoronaDiaries: हवा खराब है। आकाश मायावी

अभिषेक श्रीवास्तव

हवा खराब है। आकाश मायावी। मैंने दोनों को उन्चास दिन बाद देखा। घंटों। गाजियाबाद से दिल्ली। दिल्ली से गुड़गांव। और वापसी में।
इतनी भारी हवा मैंने केवल ओडिशा के समुद्र तट पर महसूस की थी इससे पहले। लेकिन उसमें नमक था। इसमें नहीं।

इतना उदास आकाश मैंने कोई बीस साल पहले एक रात महानिर्वाणी घाट पर महसूस किया था। देखा नहीं था। उसके अगले दिन 9/11 हुआ, जिसके बाद दुनिया ही बदल गई।

रात में आकाश दिखता नहीं। सिर्फ छुआ जा सकता है। दिन में हवा स्पर्श करती है तो दिखती भी है। किसी भी शहर में प्रवेश करता हूं तो सबसे पहले वहां की हवा पकड़ में आती है। मिलते ही कुछ कहती है।

फिर सिर ऊपर उठाता हूं तो सबसे पहली चीज़ जो दिखती है, उसके हिसाब से सोचता हूं। वह कुछ भी ही सकती है। मसलन, कौआ, चील, धुएं की लकीर। मेरा अहं भी, जो अक्सर मेरे सामने ही तिरोहित हो जाता है।

घर से इतने दिन बाद निकलने पर मुमकिन है कि इन्द्रियां ज़्यादा मेहनत कर रही हों। हो सकता है हवा पहचान न रही हो। आकाश झांक रहा हो नीचे, कोई पुरानी पहचान कायम करने के लिए। मैंने भी कोशिश की थी। नहीं हो सकी।

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इसके बाद मैं डर गया। गोया ये हवा सब ले जाने को आई हो। ये आकाश अब गिरा, तब गिरा। हारी बीमारी लगी रहती है। ये महामारी है। ऊपर से गिरेगी अज़ाब के जैसी। नीचे से भूकंप उगलेगी धरती। दाएं से, बाएं से, आएगा तूफान। टूटेंगे पुराने ढांचे, कमज़ोर मकान।

ये इतना सरल नहीं है कि आत्मनिर्भर होने से बचा ले हमको। निर्भर होना पड़ेगा। एक दूजे पर। कुदरत पर। सबको सब पर। जो आत्मनिर्भर हुआ, अकेलेपन में मारा जाएगा। तेज़ आंधी में अकेले की टोपी नहीं टिकती। साझा छत चाहिए होती है।

धार तेज़ हो तो एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नदी पार की जा सकती है, अकेले नहीं। आकाश जिस कदर लाल पीला है, एक छतरी चाहिए, रेनकोट नहीं बचाएगा। बहुत बड़ी छतरी, जिसके नीचे सब आ जाएं। आदमी, जानवर, पौधे, कीड़े मकोड़े, सब। एक नाव चाहिए, जिसमें बैठा ले जाएं हम सबको उस पार।

आत्मनिर्भर नहीं, निर्भर बनो, निर्भर बनाओ। परस्पर निर्भरता जीने का मूल है। आत्मनिर्भरता शूल है। संकट बहुत अदृश्य है, निदान बहुत स्थूल है।

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मैंने आकाश को देखा है। मैंने हवा को महसूस किया है। माहौल भारी है। और भारी होगा। मैं नजूमी नहीं। कीमियागर भी नहीं हूं। जो लगा, वो कह रहा हूं। अनुभव से बड़ा कोई ज्ञान नहीं। कुदरत से ज़्यादा किसी का मान नहीं। परस्पर निर्भरता को हां। आत्मनिर्भरता को ना। आत्म नहीं, पर। देर मत कर।

(डिस्क्लेमर : लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)

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