डॉ. मनीष कुमार जैसल
जन अभिरुचि ही प्रदर्शनकारी कलाओं को जीवंत रखे हुए हैं। नृत्य, संगीत, नाटक, चित्र कला, मूर्ति कला, दास्तानगोई, कव्वाली और सिनेमा के साथ तमाम ऐसे प्रदर्शन जो एक कलाकार की प्रतिभा को एक बड़े वर्ग समूह में देखा सुना जाए उसकी वैलिडिटी दर्शक की अभिरुचि पर ही निर्धारित है।
देश में कुछ ही ऐसे शहर हैं जहां मूर्तिकला और चित्रकला से जुड़ी प्रदर्शनी लगाई जाती रही है उसमें भी इनका दर्शक एक खास वर्ग का ही होता है। दास्तानगोई जैसी परंपरा 21वीं सदी में एक बार फिर से शुरू ही हुई कि उसपर भी दर्शकों का संकट दिखने लगा।
देश में नाट्य प्रेमी उतने ही बचे हैं जितने इससे जुड़े हैं या इन विषयों से जुड़े अध्येता हैं। नृत्य का अपना एक बढ़ा हुआ दायरा तो हैं लेकिन आने वाले समय में सिनेमा की दुनियाँ के साथ साथ इस पर भी संकट के बादल दिखने लगे हैं।
दुनियाँ भर के देश पिछले तीन महीनों से कोरोना के संकट काल से जूझ रहे हैं । लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्था लगातार गिर रही है । ऐसे में भारत जैसे विकासशील देश जिसका सपना विश्वगुरु बनने का है उसके सामने संकट और भी ज्यादा हैं ।
स्वास्थ्य सुविधाएं और रोजगार का संकट अखबार के किसी न किसी पन्ने में आपको पढ़ने को मिल ही जाएगा। ऐसे में वह कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के साथ इनसे कैसे निपटेगा यह सवाल लगभग हर भारतीय इन दिनों घरों में लॉकडाउन के साथ सोच भी रहा होगा।
यह वक्त बेहतर सोचने का है, जरूरी भी है देश के जिम्मेदार नागरिक इस पर सोचें और इसके हल निकालने में सरकार की मदद करें । हालांकि इस पर आखिरी फैसला सरकार का होगा ।
इस लॉकडाउन में जरूरी विषयों पर सोचते हुए मुझे भी प्रदर्शनकारी कलाओं का ख्याल आया। काफी दिन हो गए हैं किसी नाटक को देखे हुए। आखिरी बार छात्रों द्वारा निर्देशित नाटक बकरी देखा था।
मुशायरा और पेंटिंग्स से भी थोड़ा बहुत लगाव है तो दिल्ली जाना होता तो लालकिला के मुशायरा का हिस्सा बना करता। सीसीआरटी की प्रदर्शनी में भी पेंटिंग्स के जरिये नए मुद्दो और समाज की चिंताओं को देखा है। वहीं अंग्रेज़ी मीडियम आखिरी फिल्म रही जिसे सिनेमा हॉल में देखते देखते मैं रह गया । लेकिन अब दोबारा कब देख पाऊँगा यह कहा नहीं जा सकता ।
प्रदर्शन कारी कलाओं में अभिव्यक्त समाज और संस्कृति का गहरा असर दर्शकों पर पड़ता है । देश के कई विश्वविद्यालय इस पर गहन अध्ययन और शोध कर चुके हैं । साथ ही यह भी निष्कर्ष के रूप में निकाल चुके हैं कि इन प्रदर्शनकारी कलाओं का इस सदी में खत्म सा होना भी हमारी और सरकारों की कमी है।
न एक दर्शक उसे देखना चाहता है न ही सरकारें इनसे जुड़े कलाकारों को प्रत्यासित मदद कर रही है। अथक प्रयासों से कुछेक नाम इस क्रम में शामिल हुए हैं जिसमें लौंडा नाच की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले राम चन्द्र मांझी को मिला संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रमुख है। साथ ही नई पीढ़ी में भी कुछेक को प्रोत्साहन मिला है। इस प्रोत्साहन में भी सामाजिक गैरबराबरी को कभी प्रमुखता से चर्चा का केंद्र बनाया जाएगा लेकिन यहाँ मौजूदा समय में जो आगे संकट होने वाला है इस पर सोचने की सबसे ज्यादा जरूरत है ।
कोरोना की वैश्विक आपदा ने प्रदर्शनकारी कलाओं में जिस तरह के असर डाले हैं उसके परिणाम भयावह हो सकते हैं । सरकार चाह कर भी इस संकट से बच नही पाएगी। इन कलाओं से जुड़े कलाकारों को आर्थिक मदद भी सरकार अगर करने पर आ जाए तो इनके विस्तार और इनमें नया प्रयोग करने पर भी असर पड़ेगा ।
आप इधर बीच लखनऊ के प्रसिद्ध दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी के अलावा और तमाम नई पीढ़ी के दास्तानगो के प्रयोगों को देखिये तो पता लगेगा कि वर्षों पुरानी इस परंपरा को एक बार फिर से जीवित करने का जो बीड़ा उन्होने उठाया था वह वाकई अब एक बार फिर उन्हें हतोत्साहित कर रहा है ।
नए ओटीटी प्लेटफॉर्म आने और उनके लोकप्रिय होने से भी सिनेमा उद्योग अपने पुराने काम को ही दोहराता रहेगा । नया करने के लिए उसे सड़कों पर आना ही पड़ेगा । ऐसे में ज्यादा दिनों तक अगर स्थिति सामान्य नहीं होती तो खतरा इस विधा पर भी ज्यादा है । बॉलीवुड से जुड़े लोग अपनी कमाई धनराशि से जीवन यापन कर लेंगे लेकिन क्षेत्रीय सिनेमा का हाल और भी बुरा होने वाला है।
85 वर्षों की यात्रा करके असमिया सिनेमा ने जिस तरह खुद को स्थापित किया वह इस संकट काल से कैसे उबरेगा यह सोचनीय है । असम की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म रत्नाकर के निर्माता और निर्देशक जतिन बोरा से हुई बातचीत में भी उन्हें अब यह डर सता रहा है कि पिछली फिल्म से एक उम्मीद जगी थी कि असम का दर्शक भी व्यावसायिक रूप से फिल्में हिट करा सकता है लेकिन अब वह कोरोना की स्थिति सामान्य होने के बाद सिनेमा हॉल आएगा या नहीं यह कहा नहीं जा सकता।
40 वर्षों से असम में फिल्म पत्रकारिता कर रहे अरुण लोचन दास बताते हैं कि नए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म कि स्थिति यहाँ अभी ठीक नहीं है। यहाँ इसके परिणाम कई वर्षों बाद देखने को मिलेगे। अरुणाञ्चल प्रदेश के ही नए उभरते फ़िल्मकार केजांग ठोंगडोक ने शेरतुपकेन बोली पर ची लूपो नाम की एक शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें उनके ही बुद्धिस्ट ट्राइब के जीवन की दिनचर्या दिखती है।
अरुणाञ्चल के करीब 12 गांवों में रहने वाले 4500 लोगो के इस समुदाय का आखिरी हनी हंटिंग करने वाला यह आखिरी ग्रुप है । निर्देशक ने अपने समाज की इस आखिरी धरोहर को संभालने का प्रयास किया है । फिल्म दादा साहब फाल्के फिल्म फेस्टिवल 2020 में बेस्ट शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म के अवार्ड से नवाजी गई। अरुणाञ्चल के मुख्यमंत्री पेमा खंडुरी ने भी प्रोत्साहन दिया । लेकिन फिल्म के दर्शक अभी भी नहीं हैं । केजांग ने कोरोना के समय से निपटने के बाद अपनी इस फिल्म का फिर से प्रचार करने पर ज़ोर देने की बात कही है ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आने वाला समय भिन्न विभागों के साथ भारत की समृद्ध प्रदर्शंकारी कलाओं पर भी गहरा असर डालेगा । फिल्म निर्माण से लेकर मूर्ति और चित्रकला की प्रदर्शनी तक में दर्शक कब जुटेंगे इस पर अभी संकट रहेगा । एक दर्शक, निर्माता, निर्देशक, कलाकार के तौर पर हमें भी सोचने की जरूरत है कि कोरोना के संकट काल के बाद हम इससे कैसे निपटेंगे ? यह यूं ही हम अपनी कलाओं को इसी महामारी के साथ दफ़न करने की तो नहीं सोच रहे है ?
(लेखक मंदसौर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)