उत्कर्ष सिन्हा
मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया के खिलाफ बगावत को आवाज देने के लिए साल 1979 में जब अपनी नज़्म “हम देखेंगे” लिखी थी तो उन्होंने ये नहीं सोचा होगा की साल 2019 में हिंदुस्तान में उनकी इस नज़्म पर ये कहते हुए जांच बैठाई जाएगी कि ये नज़्म हिन्दू विरोधी है ।
1984 में फ़ैज़ गुजर गए दो साल बाद 1986 में लाहौर के अल-हमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडिटोरियम में ग़ज़ल गायिका इक़बाल बानो ने इस नज़्म को गाकर अमर कर दिया. इकबाल बयानों ने इसे भारत आ कर भी गाया था । इसके बाद तो ये नज़्म पूरे दक्षिण एशिया में सत्ता के विरोध में होने वाले करीब करीब हर आंदोलन में गाई जाने लगी और खास तौर से विद्यार्थियों द्वारा ।
खास बात ये , कि ये जांच न कोई धार्मिक संगठन कर रहा है और न ही साहित्य का कोई विद्वान बल्कि हिंदुस्तान का वो मशहूर संस्थान कर रहा है जो अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ साथ अपनी वैचारिक प्रगतिशीलता के लिए दुनिया भर में जाना जाता है ।
इस खबर को पढ़ते हुए मुझे राही मासूम रज़ा साहब की मशहूर किताब “ आधा गावं ‘ का वो प्रसंग याद आ गया जिसमे एक किरदार दूसरे से पूछता है –
-आपके बेटे कहाँ पढ़ रहे ?
-जी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में । और आपके साहबजादे ?
-अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में
तभी कोई कहता है – “हमारे जमाने में तो इंसान हिन्दू- मुसलमान होते थे । अब युनिवर्सिटियाँ भी होने लगीं ?
तो बात अब यूनिवर्सिटी से भी आगे निकल के नज़्म और कविताओं तक आ पहुंची है ।
आईआईटी कानपुर के उपनिदेशक मनिंद्र अग्रवाल कह रहे हैं कि – कुछ छात्रों ने आईआईटी निदेशक के पास लिखित शिकायत की है कि परिसर में हिंदू विरोधी कविता पढ़ी गई है जिससे हिंदुओं की धार्मिक भावना को ठेस पहुंची है लिहाज़ा इस कविता को पढ़ने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए. इसके बाद आईआईटी प्रबंधन ने इस पर जाँच बिठा दी है.
अब जरा इस नज़्म को पूरा सुन भी लीजिए –
जिन्हे इस नज़्म के हिन्दू विरोधी होने का यकीन है वो दरअसल इस नज़्म में आई लाइन – “बस नाम रहेगा अल्लाह का” के खिलाफ हैं , उन्हे नज़्म के मकसद से कितना मतलब होगा ये कयास लगाने की भी जरूरत है क्या ?
जरा सोचिए कि हिन्दुस्तानी उर्दू में लिखी इस नज़्म में अल्लाह की जगह भगवान या गॉड शब्द का प्रयोग होता तो क्या इस नज़्म के मायने बदल जाते ? बिल्कुल नहीं । मगर सांप्रदायिकता के कीड़े से संक्रमित दिमाग इसे फिर मुस्लिम विरोधी बताने से चूकता ये कहना भी मुश्किल है क्योंकि उसे नज़्म की समझ ही नहीं होती ।
अब जरा आईआईटी जैसे संस्थान के उस प्रबंधन के दिमाग की कमजोरी को भी समझिए जिसने इस आवेदन पर जांच बैठा दी है । माना जाता है कि प्रोफेसर लोग विद्वान होते हैं, तो क्या प्रोफेसर साहबान भी नज़्म के संदेश को नहीं समझ रहे या फिर इस बहाने अपना प्रतिरोध दर्ज करा रहे छात्रों को दबाव में ला कर सत्ता के सामने अपने नंबर बढ़वा रहे हैं ?
हालकि ये पहली बार तो नहीं हो रहा कि किसी कवि गीतकार या फिर शायर को इस तरह निशाने पर लिया हो । अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद कैफ़ी आजमी ने “राम बनवास” नाम की नज़्म जब लिखी तो उस पर हल्ला जरूर हुआ मगर इतने बेतुके तरीके से नहीं ।
मशहूर शायर जावेद अख्तर ने फैज की कविता को हिंदू विरोधी बताए जाने पर कह रहे है ‘फैज की किसी बात को या उसके शेर को ऐंटी हिंदू कहा जाए, यह इतना अब्सर्ड (बेतुका) और फनी है कि इस पर सीरियसली बात करना थोड़ा मुश्किल होगा। फैज अहमद फैज अविभाजित हिंदुस्तान में प्रोग्रेसिव राइटर्स (प्रगतिशील लेखक) का जो मूवमेंट हुआ था उसके लीडिंग स्टार (अग्रणी) थे।
बात तो ठीक है मगर जावेद अख्तर को ये भी ध्यान रखना होगा कि इस फैनेटिक दौर में इन बाते को इतना हल्के में भी नहीं लेना चाहिए , क्योंकि अब ऐसे मामले और बढ़ेंगे ।
फिलहाल यही दौर है । वो भी तब जब शहर दर शहर साहित्य उत्सवों का जोर है ।
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