Tuesday - 5 November 2024 - 9:15 AM

पहेलियों जैसी अबूझ हो रही समकालीन राजनीति

केपी सिंह 

समकालीन राजनैतिक परिदृश्य में पहेलियों जैसे उलझाव से भरे रोचक तत्व शामिल हो रहे हैं।

बोफोर्स का प्रेत

राफेल विमानों की खरीद में घेरे जाने से परेशान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बोफोर्स दलाली के गड़े मुर्दे को उखाड़ दिया। हैरत की बात तो यह है कि इस पर तालियां बजाने वाले वे लोग ज्यादा हैं जिन्होंने कभी इसे लेकर वीपी सिंह को देशद्रोही तक साबित करने में कसर नही उठा रखी थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के फैसले की टीस जब-जब मौका मिलता था इसी रूप में उभरती थी। कारगिल की लड़ाई में जब बोफोर्स तोपें बेहद कामयाब हुईं तो पाकिस्तान से ज्यादा मारक निशाना वीपी सिंह पर साधने का मौका ऐसे तत्वों को मिल गया था।

चंद्रशेखर सरकार की एफआर का स्वागत

इतिहास के पन्ने एक बार फिर पलटने की जरूरत है। राजीव गांधी की कृपा से बनी चंद्रशेखर सरकार ने बोफोर्स मामले की जांच को जब दाखिल दफ्तर कर दिया तो वह लोग इसका स्वागत करने में सबसे ज्यादा थे जिनकी संताने चोला बदलकर अब कांग्रेसी से भाजपाई हो चुकीं हैं।

हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस कदम पर फटकार लगाई थी और कहा था कि बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के आदान-प्रदान का तथ्य इतना प्रकट है कि पूरी जांच की बिना यह मामला बंद नही किया जा सकता। पर चंद्रशेखर सरकार की एफआर का स्वागत करने वालों की निगाह में सामाजिक व्यवस्था के कारण सदियों से हांशिये पर पड़े पिछड़ों को आगे बढ़ने का अवसर देना बड़ा अपराध था जिसके सामने रक्षा सौदे में दलाली का गुनाह माफ किये जाने योग्य माना जाना चाहिए।

पवित्र पापी की दास्तान

राजीव गांधी की हत्या भी चंद्रशेखर सरकार के समय हुई। संडे के संपादक रह चुके वीर संघवी जो बाद में भाजपा में चले गये थे, ने जैन आयोग के सामने जिसमें राजीव गांधी हत्याकांड की जांच की थी, गवाही दी थी। इस गवाही के मुताबिक चंद्रशेखर सरकार के कैबिनेट सचिव टीएन शेषन ने वीर संघवी को बताया था कि आईबी से राजीव गांधी की जान को लिटटे उग्रवादियों के कारण खतरा होने का इनपुट मिलने पर उन्होंने प्रधानमंत्री को सूचित किया लेकिन प्रधानमंत्री ने इसमें कोई दिलचस्पी नही दिखायी।

वीर संघवी की गवाही ने इशारा किया था कि किस सरकार की लापरवाही से राजीव गांधी को शहीद होना पड़ा था। लेकिन भाजपा के ज्यादा प्याज खाने वाले नये मुल्लों के पिताजी लोग उस समय कह रहे थे कि वीपी सिंह ने एसपीजी का सुरक्षा कवज हटाकर जो दुष्टता की उससे राजीव गांधी जैसा शरीफ नेता देश ने खो दिया। तथ्य यह था कि खुद राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते कानून बनाया था कि एसपीजी सुरक्षा कवर केवल प्रधानमंत्री को उपलब्ध कराया जायेगा। जब वे प्रधानमंत्री नही रह गये तो काननू तौर पर सरकार उनसे एसपीजी की सुरक्षा वापस लेने के लिए बाध्य थी। पर वीपी सिंह सरकार ने विकल्प में और ज्यादा बड़ा सुरक्षा घेरा राजीव गांधी को उपलब्ध कराया था और उसमें शामिल करने के लिए अफसरों के नाम खुद राजीव गांधी से मांगे गये थे।

वीपी सिंह सरकार न रहने के बाद भी राजीव गांधी के प्रति कृतज्ञ चंद्रशेखर सरकार भी उन्हें कानून के कारण ही एसपीजी वापस मुहैया कराने में असमर्थ रही थी। विषयांतर न करके मुददे पर आये तो बात यह है कि आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि राहुल अपने पिता के पापों की सजा भोग रहे हैं तो कल तक शरीफ आदमी (राजीव गांधी) के लिए जिन लोगों को इतना दुख होता था, उन्हीं की संताने आज और ज्यादा बमक कर राजीव गांधी के पापों को कोसने में लगीं हैं। मामला चश्मा का है, तब कौन सा चश्मा चढ़ा था और आज कौन सा चश्मा चढ़ा दिया गया है।

चुनावी युद्ध में सब जायज

पिछले लोकसभा चुनाव को जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि चुनाव में बहुत कुछ कहा जाता है। लेकिन अब चुनाव का युद्ध समाप्त हो चुका है तो उन्हें यह कहना है कि हर प्रधानमंत्री ने अपने तरीके से देश को आगे बढ़ाने में योगदान दिया है जिसे स्वीकार किया जाना चाहिए। लोगों को उम्मीद है कि वर्तमान चुनावी युद्ध के समापन के बाद अगर जनता ने एक बार फिर मोदी को देश चलाने का अवसर दिया तो वे ऐसा ही बड़प्पन पुनः दिखायेगें।

राष्ट्रीय धरोहर हैं हर कालखंड के नायक

अपने कालखंड का हर राष्ट्रीय नायक देश की धरोहर है क्योंकि समाज न कभी बेवकूफ था न है जो बिना किसी खूबी के किसी व्यक्तित्व को मसीहा की तरह सिर-माथे बिठाये। भारत में सोवियत संघ और चीन जैसा किया जाना मान्य नही है। जहां व्यवस्था बदलने पर पुराने राष्ट्र नायकों का मूर्तिभंजन का जंगलीपन दिखाया जाये। यह एक आस्तिक देश है और यही इसकी शक्ति है। कल को पता नही देश में कौन सी सरकारें आयें लेकिन यह परंपरा नही बनने चाहिए कि आज अपने कालखंड के विराट नायक के रूप में प्रमाणित किये जा रहे मोदी की स्मृतियों के साथ कोई बदसलूकी करे।

इस देश की संस्कृति की वजह से अपने उद्धत स्वभाव के बावजूद सरकार में बैठने के बाद मायावती ने खुद को बदल लिया था। अपने आंदोलनकारी दौर में मायावती ने कांशीराम जी के साथ महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर अराजकता की हद तक विरोध प्रदर्शन किया था। उन्हीं मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में गांधी जी की स्मृति में होने वाले आयोजनों में कोई व्यवधान नही होने दिया।
और हां राजीव गांधी कुल मिलाकर सचमुच शरीफ व्यक्तित्व थे।

असल राजनीतिक एजेंडा

भारतीय समाज में लोकतंत्रीकरण की अपेक्षाओं के मुताबिक वांछनीय परिवर्तन जब तक अपनी तार्किक परिणति पर नही पहुंच जाते तब तक उनकी ओर अग्रसरता समय की मांग है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव में जो मुददे उठा रहे हैं उससे उनके वास्तविक राजनीतिक एजेंडे का आंकलन नही किया जा सकता। उन्होंने भारतीय राजनीति की असली नब्ज तभी पकड़ ली थी जब उनकी ताजा-तरीन कामयाबी को बिहार विधानसभा के चुनाव में संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान की वजह से करारा झटका लगा था। इसके बाद उन्होंने बहुजना राजनीति के एजेंडे को अपनी कामयाबी स्थाई करने के लिए आत्मसात किया।

नतीजतन उनके भाषण की विषयवस्तु में मौलिकता झलकने लगी जो संघ की अवधारणाओं की कसौटी पर बेमेल थी। उन्होंने जीतेजी आरक्षण खत्म न होने की दुहाई देनी शुरू की। हर जनसभा में गर्व से कहों कि हम पिछड़े हैं जैसी अभिव्यक्ति का सिलसिला अनिवार्य हो गया।

अपने जाति वर्ग के हवाले से खुद का प्रधानमंत्री बनना महान करिश्में के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसके लिए बाबा साहब अंबेडकर के प्रति कृतज्ञता वाचन भी उनके भाषणों का अभिन्न अंग बन गया। इसी अतिउत्साह में अनुसूचित जाति, जनजाति उत्पीड़न अधिनियम के बारे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी कर उसके पुराने स्वरूप को बहाल करने का कदम उन्होंने उठा दिया था।

संतुलन की मजबूरी

भाजपा की पैरवी करने वाले वाचाल वर्ग में उनकी राजनीतिक दिशा को लेकर संशय तो पहले से उपज रहा था लेकिन अब बारी थी उसके असंतोष के विस्फोट की। इसी दौरान तीन प्रमुख हिंदीभाषी राज्यों में जब भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा तो मोदी को संतुलन की जरूरत महसूस हुई। जिसके नतीजे में सवर्ण आरक्षण कानून सामने आया। लेकिन यह उनके वास्तविक एजेंडे में विचलन का कोई संकेत नही है क्योंकि उन्हें यह एहसास है कि सामाजिक लोकतंत्र का एजेंडा ही उनकी सफलता का स्थायित्व सुनिश्चित कर सकता है।

पुलवामा हमले के जबाव में की गई सर्जिकल एयर स्ट्राइक को प्रधानमंत्री मोदी ने फिलहाल चुनावी ब्रहमास्त्र के रूप में अपना रखा है लेकिन इसका केवल रणनीतिक महत्व है। मोदी को भी एहसास है कि उत्तर प्रदेश में योगी की कार्यशैली ने उनके साम्राज्य विस्तार में बड़ा विघ्न उपस्थित कर दिया है।

योगी की कार्यशैली उनके असल एजेंडे के एकदम विपरीत है। जिसने सपा-बसपा में एक बार फिर गठबंधन का अवसर मुहैया करा दिया है और देश के सबसे बड़े सूबे में बहुजन एकता उनके खिलाफ जा रही है। जाहिर है कि अगर एक बार फिर उनको केंद्र में सरकार बनाने का अवसर मिला तो वे उत्तर प्रदेश में भी अपने एजेंडे को पुख्ता करने की कोशिश करेगें तांकि उनका वर्चस्व दीर्घजीवी हो सके। उत्तर प्रदेश में भी गठबंधन से ज्यादा कांग्रेस के प्रति आक्रामक रहने और कारसेवकों पर गोली चलवाने के इतिहास के बावजूद सर्वमान्य नेता के रूप में उनके द्वारा मुलायम सिंह का महिमा मंडन अन्यथा नही है इसके निहितार्थ समझे जाने चाहिए।

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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