रतन मणि लाल
उत्तर प्रदेश में लोक सभा चुनाव के मतदान के दिन पास आते आते नित नई संभावनाएं भी सामने आती जा रही हैं. जहां ऐसी ही संभावनाओं की तलाश में सिने अभिनेता, पूर्व सिने कलाकार, पूर्व व वर्तमान सांसद, विधायक और अन्य महानुभाव नए ठिकानों पर पहुँच रहे हैं, वहीँ बड़े दलों की अपनी रणनीति के संकेत भी मिलते जा रहे हैं.
कांग्रेस की ओर से प्रियंका गाँधी वाड्रा ने अपने प्रचार अभियान के अगले चरण में अमेठी और अयोध्या का रुख किया है. ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि उनके अमेठी में होने के समय राहुल गाँधी वहां नहीं हैं. और इसी मौके पर उन्होंने दो बातें कहीं हैं जिनका महत्त्व दूरगामी है.
पहला तो यह, कि वे भी लोक सभा चुनाव लड़ सकती हैं, यदि पार्टी चाहे तो. समझने की सीधी बात है कि उनकी पार्टी में यदि उनकी इच्छा हो तो उन्हें कौन चुनाव लड़ने से मना करेगा, एक तरह से उन्होंने अपनी इच्छा को सार्वजानिक ही किया है. आश्चर्य नहीं होना चाहिये यदि अगले कुछ दिनों में ऐसी खबर आ भी जाए. इसके पीछे एक कारण यह हो सकता है कि चुनाव लड़ने पर उनका जीतना लगभग तय होगा, और कांग्रेस पार्टी की उत्तर प्रदेश में (यदि वे प्रदेश से चुनाव लड़ें तो) या देश में एक सीट तो बढ़ेगी ही.
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दूसरी बात उन्होंने स्पष्ट कही कि राहुल इस बार प्रधान मंत्री के लिए चुनाव लड़ रहे हैं और उनकी सीधी लड़ाई प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से है. इससे एक तो यह स्पष्ट हुआ कि यूपीए जैसे गैर-भाजपा गठबंधन की ओर से प्रधान मंत्री पद के दावेदार नेता का नाम तो सामने आया, जिसके अभी तक न होने पर भाजपा द्वारा सवाल उठाये जाते थे. दूसरा, यह भी स्पष्ट है कि यदि गैर-भाजपा दलों में कांग्रेस की ही सबसे ज्यादा सीटें आती हैं तो कांग्रेस की ओर से राहुल को ही प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाया जायेगा, अन्य समर्थक दलों में से किसी अन्य नेता को नहीं. तो अब यह अन्य दलों के ऊपर है कि गैर-भाजपा दलों की सरकार बनने की स्थिति में उन्हें राहुल का नेतृत्त्व स्वीकार है या नहीं.
अभी तक, केवल तमिल नाडु के डीएमके ने साफ़ तौर से राहुल गाँधी को प्रधान मंत्री बनाये जाने की वकालत की है. वहीँ, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अभी तक कांग्रेस से दूरी बनाये रखी है क्योंकि उन्हें लगता है कि कांग्रेस उन्ही के समर्थकों में सेंध लगा रही है. लेकिन जरूरत पड़ने पर ये दल कांग्रेस के निर्णय का साथ देंगे, जैसा मध्य प्रदेश और राजस्थान चुनाव के बाद में देखने को मिला है.
साथ ही, गैर-भाजपा दलों में मायावती को भी प्रधान मंत्री के पद का दावेदार माना जाता है, और कई पर्यवेक्षकों का कहना है कि राहुल के पक्ष में राय न बनने पर मायावती को सर्वमान्य नेता के रूप में आगे करने की कोशिश की जा सकती है. तो अब, भाजपा या एनडीए के पास अपेक्षित संख्या न होने की स्थिति में सभी गैर-भाजपा दलों के सामने संभावित नेतृत्त्व के विकल्प भी उपलब्ध हो गए हैं – राहुल गाँधी और मायावती. इनमे बिहार के आरजेडी, वाम दलों, तृणमूल, आन्ध्र प्रदेश की टीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, आम आदमी पार्टी आदि जैसे दल भी शामिल हैं.
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कांग्रेस के किसी अन्य नेता द्वारा राहुल का नाम आगे किये जाने के बजाये प्रियंका द्वारा ऐसा किये जाने के अपने लाभ हैं क्योंकि कई विपक्षी नेता प्रियंका की अपील ठुकराने से हिचकिचा सकते हैं.
उत्तर प्रदेश में जिस तरह कई क्षेत्रों से सपा-बसपा गठबंधन की मजबूती की ख़बरें आ रही हैं, उससे यह भी सम्भावना बढ़ी है कि गैर-भाजपा सरकार बनने की स्थिति में ये दोनों दल समर्थन देने के बदले में अपने पक्ष की शर्तों पर जोर दे सकते हैं. लेकिन ऐसा होने पर अंततः फैसला यही होगा – प्रधान मंत्री कौन? राहुल गाँधी या मायावती? या, पिछले दशकों के प्रयोगों के अनुरूप ही कांग्रेस पहले किसी अन्य दल के नेता को प्रधान मंत्री बनाये जाने के लिए तैयार हो और अपनी सुविधा के अनुसार उससे समर्थन वापस ले ले. इन्ही कारणों से एक बार फिर इस सोच का समर्थन होता दिखता है कि दिल्ली (केंद्र सरकार) का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर जाता है.
लेकिन इन सब स्थितियों के पहले तो यह विकल्प खुला ही है कि भाजपा और एनडीए को सरकार बनाने के लिए आवश्यक सीटें मिल ही जाएं और किसी अन्य प्रयोग की जरूरत ही न पड़े. या, कांग्रेस और उसके नेतृत्त्व वाले यूपीए को इतनी सीटें मिलें की वह बिना किसी बाह्य समर्थन के सरकार बना ले जाए. अब आने वाले दिनों में हम सब इसी के लिए जोर-आजमाईश देखेंगे.