कृष्णमोहन झा
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस पार्टी अपनी ही पूर्ववती सरकारों द्वारा अतीत में लिए गए फैसलों के लिए केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार को घेरने का प्रयास करती रही है।1951 में स्वर्गीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली के साथ अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए जो समझौता किया था, अगर उसका पाकिस्तान सरकार ईमानदारी से पालन करती तो वर्तमान मोदी सरकार को नागरिकता संशोधन कानून को बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, जिसका अब कांग्रेस पार्टी तीखा विरोध कर रही है।
पंडित नेहरू भी कांग्रेस सरकार के ही प्रधान मंत्री थे, इस हकीकत को कांग्रेस पार्टी जिस तरह नजरअंदाज कर रही है, वह पार्टी के दिग्भ्रमित होने का ही परिचायक है।
दरअसल कांग्रेस यह समझ ही नहीं पा रही है कि उसे नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं है। कांग्रेस को तो इस्लाम धर्म आधारित पाकिस्तान की उन सरकारों का विरोध करना चाहिए था, जिन्होंने गैर मुस्लिमों के हितों की रक्षा में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
इसी तरह पार्टी ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने से इनकार किए जाने के फैसले पर लोकसभा में जो हंगामा किया, वह भी समझ से परे था।
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में 2012 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियंताओं की पदोन्नति में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण लागू किए जाने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि सरकारी नौकरियों एवं पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए राज्य सरकार बाध्य नही है, क्योंकि यह कोई मौलिक अधिकार नहीं है जो किसी व्यक्ति को पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने के लिए विरासत में मिला हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत राज्य सरकारों को नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण सुनिश्चित करने का कोई निर्देश जारी नहीं कर सकती। यह राज्य सरकार की इच्छा पर निर्भर है।
दरअसल 2012 में उत्तराखंड सरकार द्वारा सहायक अभियंताओं की पदोन्नति में एसटी और एससी के लिए आरक्षण लागू करने का फैसला किया था, उसे उत्तराखंड हाईकोर्ट ने रदद् कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा कि नौकरियों एवं पदोन्नति में एसटी ओर एससी समुदाय के लिए आरक्षण देना या न देना राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है।
जो कांग्रेस पार्टी आज इस फैसले को लेकर सरकार पर निशाना साधने का बहाना खोज रही है, उसे खुद इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि जब 2012 में जब उसकी अपनी सरकार ने सहायक अभियंताओं की पदोन्नति में आरक्षण लागू न करने का फैसला किया था। तब वह चुप क्यों रही थी। आश्चर्य की बात यही है कि तब वह अपनी सरकार के फैसले पर मूकदर्शक बनी रही।
और अब यह सिद्ध करने की कोशिश कर रही है कि केंद्र की वर्तमान सरकार आरक्षण को समाप्त करना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद लोकसभा में कांग्रेस पार्टी ने मोदी सरकार को आरक्षण विरोधी बताते हुए सदन से वाक आउट भी कर दिया। उधर मोदी सरकार की ही एक घटक लोक जनशक्ति पार्टी के सदस्य चिराग पासवान ने भी कहा कि आरक्षण संवैधानिक अधिकार है, खैरात नही।
यह भी आश्चर्यजनक है कि लोकसभा में सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत के इस बयान से कांग्रेस पार्टी संतुष्ट नहीं हुई कि सुप्रीम कोर्ट के इस इस मामले में वर्तमान केंद्र सरकार कोई पक्ष नहीं थी और केंद्र से इस मामले में कोई शपथ पत्र भी दाखिल करने के लिए नहीं कहा गया था। ऐसे में इस फैसले के लिए सरकार की आलोचना करने का कांग्रेस को कोई हक नहीं है।
कांग्रेस पार्टी को तो लोकसभा में यह सिद्ध करना था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के हितों की केवल वही चिंता करती है। यही मंशा लोक जनशक्ति पार्टी और जनता दल (यू) सहित अपना दल की भी थी, इसलिए उनके सदस्यों ने भी लोकसभा में उक्त फैसले को लेकर केंद्र सरकार को घेरना चाहा।
लोकसभा में सदन के उपनेता और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए आरोप लगाया कि कांग्रेस एक संवेदनशील मुद्दे का राजनीतिकरण कर रही है। सरकार की ओर से संसदीय मामलों के मंत्री प्रहलाद जोशी ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से अनुरोध किया कि वह इस मामले में विपक्ष द्वारा सरकार के विरुद्ध की गई टिप्पणियों को सदन की कार्यवाही से निकाल दें। उधर लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी एवं राज्यसभा में नेता गुलाम नबी आजाद का कहना था कि सरकार को इस फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए बिल लाना चाहिए।
दरअसल लोकसभा में विपक्ष के आरोपो का सरकार ने जिस तरह खण्डन किया ,उससे विपक्ष को संतुष्ट होना ही नहीं था। कांग्रेस तो मोदी सरकार की छवि आरक्षण विरोधी सरकार के रूप में जनता के सामने पेश करना चाहती है। विपक्ष यह भी सिद्ध करना चाहता है कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों को नौकरी में पदोन्नति में आरक्षण की जो व्यवस्था संविधान में की गई है, उसका पूरा श्रेय पाने का अधिकर केवल उसे ही है। इसलिए वह वस्तुस्थिति को नकार रही है।
जाहिर सी बात है कि इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति करने का सिलसिला थमने वाला नहीं है। यह भी संभव है कि इस मामले को लेकर विपक्षी दल एक नया अभियान शुरू कर दें। इस मुद्दे को गरमाए रखने में विपक्षी दलों को केवल अपना राजनीतिक हित दिखाई दे रहा है, परंतु उसे यह अधिकार क्यों दिया जाना चाहिए की वह इस मुद्दे से जुड़े सारे तथ्यों को नजरअंदाज कर दे।
सुप्रीम कोर्ट ने जहां एक ओर कहा कि सरकारी नौकरी में पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है, वहीं दूसरी ओर यह भी कहा कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की सरकारी नौकरी में प्रतिनिधित्व के संबंध में पहले आंकड़े जुटाना जरूरी है, लेकिन अगर राज्य सरकारों ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया है तो इसकी जरूरत नहीं होगी। निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आरक्षण के रास्ते में मील का पत्थर साबित होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने नौकरियों में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के प्रतिनिधित्व की जो आवश्यकता जताई है, उस पर सरकार को निश्चित रूप से अमल करना चाहिए। इस तरह के आंकड़ों से अगर यह साबित हो जाता है कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों का अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया जा रहा है तो विपक्ष भी सरकार को आरक्षण विरोधी बताने के प्रयासों में सफल नहीं होगा।
(लेखक WDS के राष्ट्रीय अध्यक्ष और IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है )
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