न्यूज डेस्क
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नरम और सख्त राजनीति ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के मन में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी है। लोकसभा चुनाव से पहले सपा-बसपा और आरएलडी गठबंधन पर नरम दिखे राहुल बदायूं की रैली में अखिलेश और मायावती पर तीखा हमला किया।
वहीं, राफेल मामले को लेकर पीएम मोदी के खिलाफ आक्रमक राहुल ने वाराणसी में उनके खिलाफ मजबूत उम्मीदवार न खड़ा करके जो नरमी दिखाई है उससे कार्यकर्ता और मतदाता दोनों भ्रमित हैं।
दरअसल, चाहे बात गठबंधन की हो या बीजेपी की राहुल कभी बहुत आक्रमक होकर हमलावर हो जा रहे हैं तो कभी बहुत नरम रवैया अख्तियार करके मामले को यूं छोड़ दे रहें हैं। उनके लगातार बदलते बयानों के वजह जमीनी कार्यकर्ताओं के मन में दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
बदायूं की रैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सपा और बसपा पर हमलावर दिखे। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान यह पहला मौका था, जब राहुल ने बीजेपी के अलावा इन दोनों दलों को सीधे निशाने पर लिया।
हालांकि, इसके दो दिन बाद ही वह यह स्पष्ट करते दिखे कि वह सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन का नुकसान नहीं चाहते। वह बीजेपी को हराना चाहते हैं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रिमो मायावती के लिए उनके दिल में सम्मान है।
ये दो तरह के बयान कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भ्रम पैदा कर रहे हैं। साथ ही कांग्रेस की उस मुहिम को नुकसान पहुंचा रहे है, जिसके बूते वह 2022 में उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने का ख्वाब देख रही हैं। कांग्रेस अध्यक्ष को क्या करना है शायद वो खुद तय नहीं कर पा रहे हैं या वो कार्यकर्ताओं को सही तरीके से बता नहीं पा रहे हैं।
दरअसल, 90 के दशक में कमजोर होती कांग्रेस के विकल्प के तौर पर यूपी में सपा और बसपा ने खुद को खड़ा किया। दलित और पिछडा वर्ग इन दोनों दलों से जुड़ गया, जबकि ब्राह्मण बीजेपी की तरफ खिसक गए। कांग्रेस उस वोट बैंक के सहारे रह गई, जो विचार के तौर पर कांग्रेसी है या इन दलों से नाराज है।
जानकारों का कहना है कि अगर कांग्रेस को यूपी में खुद को दोबारा खड़ा करना है, तो सबसे पहले सपा-बसपा से लड़कर अपना खोया वोट बैंक हथियाना होगा। जाहिर है कि यह काम नरम रुख से नहीं हो सकता है।
एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने बताया कि बीजेपी को विकल्प के तौर पर खुद को रखने के लिए सपा-बसपा की भी खामियां गिनानी होंगी। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के पिछले भाषणों पर ध्यान दिया जाए तो उनके और कांग्रेस के अन्य नेताओं के बयान में फर्क साफ समझा जा सकता है।
कांग्रेस का बड़ा धड़ा मानता है कि सपा-बसपा पर हमलावार होने के साथ उनके खिलाफ कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रमोट करने की जरूरत है। यह काम अन्य दलों से चुनावी सीजन में आए नेताओं के बूते नहीं हो सकता।
यही वजह है कि कमजोर कांग्रेस को ये नेता केवल चुनावी सिंबल की तरह इस्तेमाल करते हैं और दूसरा विकल्प मिलने पर उधर चले जाते हैं। उनके जाते ही क्षेत्र में कांग्रेस पहले की अपेक्षा ज्यादा कमजोर हो जाती है।
सूबे की कई सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे तो कई जगह कमजोर प्रत्याशी उतार कर सपा-बसपा गठबंधन फायदा दिलाया है। वहीं, राफेल मामले पर चौकीदार के नारा लगवा कर लगातार पीएम मोदी को घेर रहे राहुल ने वाराणसी से किसी मजबूत उम्मीदवार उतारने के बाजए अजय राय को मैदान में उतारा है।
इसके अलावा प्रत्याशियों के चुनाव में देरी ये सब वो बातें हैं जिसके वजह से कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता आखिरी समय तक नहीं तय कर पाते है कांग्रेस लड़ भी रही हैं या एक फ्रेंडली फाइट है।